IPC 377 पर सुप्रीम फैसला: गे, लेस्बियन, समलैंगिक सेक्स क्राइम या नहीं, फैसला गुरुवार को

दो बालिगों के बीच सहमति से अप्राकृतिक संबंध बनाना अपराध है या नहीं, सुप्रीम कोर्ट गुरुवार को इसी पर फैसला सुनाएगा. मामले की सुनवाई चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन, ए. एम. खानविलकर,  डी.वाई.चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा की पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक बेंच कर रही है.

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IPC 377 पर सुप्रीम फैसला: गे, लेस्बियन, समलैंगिक सेक्स क्राइम या नहीं, फैसला गुरुवार को

Aanchal Pandey

  • September 5, 2018 5:01 pm Asia/KolkataIST, Updated 6 years ago

नई दिल्ली. दो बालिगों के बीच सहमति से अप्राकृतिक संबंध अपराध है या नहीं, इस पर सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच गुरुवार को फैसला सुनाएगी. आईपीसी की धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट सुबह 10.30 बजे फैसला सुनाएगा. मामले की सुनवाई चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन, ए. एम. खानविलकर,  डी.वाई.चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा की पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक बेंच कर रही है.  सुप्रीम कोर्ट ने 17 जुलाई को भारतीय दंड सहिंता की धारा 377 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित कर लिया था. इस धारा के तहत समलैंगिता अपराध की श्रेणी में आती है.

समलैंगिकता को अपराध न मानने की मांग करने वाली याचिकाओं का विरोध कर रहे पक्षकारों ने अदालत से आग्रह किया कि आईपीसी की धारा 377 का भविष्य संसद पर छोड़ दिया जाए. पक्षकारों ने कहा था कि समलैंगिक यौन संबंध को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का अन्य कानूनों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा, जिसमें पर्सनल लॉ और एड्स जैसे खतरनाक बीमारियों का फैलाव शामिल है.

जस्टिस रोहिंटन नरीमन एपोस्टिक अलायंस ऑफ चर्चेज की तरफ से पेश वकील मनोज जॉर्ज से यह कहते हुए असहमति जताई थी कि इसका कोई व्यापक असर नहीं होगा, क्योंकि अन्य कानूनों में इस तरह के सभी संदर्भो को मिटा दिया जाएगा. जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि यौन संबंधों के जरिए फैलने वाली बीमारियां असुरक्षित यौन संबंधों के कारण होती हैं.

उन्होंने कहा था कि कोई ग्रामीण महिला अपने पति के जरिए बीमारी से संक्रमित हो सकती है, यदि वह प्रवासी श्रमिक है. जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह टिप्पणी तब की थी, जब वरिष्ठ वकील के. राधाकृष्णन ने IPC की धारा 377 को अपराध की श्रेणी से हटाने पर एचआईवी और एड्स के व्यापक फैलाव की बात कही.

बता दें कि 11 जुलाई को नरेंद्र मोदी सरकार ने कहा था कि सहमति से किए गए समलैंगिक सेक्स को अपराध की श्रेणी में रखने वाला कानून संवैधानिक रूप से उचित है या नहीं, वह इसका फैसला सुप्रीम कोर्ट के विवेक पर छोड़ता है. केंद्र ने बेंच से अनुरोध किया था कि उन्हें इस कानून को चुनौती देने के निर्णय को उसी सीमा में ही रखना चाहिए जिसमें ऐसा स्कोप न हो जो एलजीबीटी समुदाय को संपत्ति के अधिकार, नागरिक अधिकार, विवाह, गोद लेना समेत अन्य नागरिक अधिकारों से जुड़े मुद्दों की मांग के लिए प्रेरित करे.

क्या कहा था दिल्ली हाई कोर्ट ने: जुलाई 2009 में दिल्ली हाई कोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 को गैर-कानूनी करार दिया था. ‘नाज फाउंडेशन’ की पीआईएल पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट कोर्ट ने धारा 377 को संविधान की धारा 14,15 और 21 का उल्लंघन बताया था. तत्कालीन चीफ जस्टिस एपी शाह और जस्टिस एस मुरलीधर की अगुवाई वाली बेंच ने यह फैसला सुनाया था.

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