Supreme Court IPC Section 377 Hearing: 377 को अपराध नहीं बनाने की अदालती लड़ाई का इतिहास, दिल्ली हाईकोर्ट से संविधान पीठ का सफर

Supreme Court IPC Section 377 Hearing: सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ समलैंगिकता को आपराधिक श्रेणी में लाने वाली धारा 377 पर सुनवाई कर रही है. धारा 377 को लेकर इस बात पर फैसला होना है कि समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में रखा जाए या नहीं. धारा 377 को सबसे पहले 1862 में लागू किया गया था. इस कानून के अंतर्गत अप्राकृतिक रूप से यौन संबंध बनाना कानून की नजर में गलत है. धारा 377 पर अदालती लड़ाई 2001 में शुरू हुई.

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Supreme Court IPC Section 377 Hearing: 377 को अपराध नहीं बनाने की अदालती लड़ाई का इतिहास, दिल्ली हाईकोर्ट से संविधान पीठ का सफर

Aanchal Pandey

  • July 11, 2018 6:14 pm Asia/KolkataIST, Updated 6 years ago

नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच समलैंगिकता (धारा 377) अपराध है या नहीं, इस मामले पर सुनवाई कर रही है. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच में जस्टिस आर एफ नरीमन, जस्टिस एम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हैं. धारा 377 का अदालती इतिहास 2001 में शुरू हुआ था. गैर सरकारी संगठन नाज फाउंडेशन ने 2001 में दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर होमोसेक्सुअलिटी को धारा 370 से बाहर करने के लिए कहा था. इससे पहले 1994 में AIDS भेदभाव विरोधी आंदोलन ने याचिका दायर की थी जिसे खारिज कर दिया गया था.

नाज फाउंडेशन ने याचिका में कहा था कि अगर दो वयस्क व्यक्ति आपसी सहमति से एकांत में सेक्स रिलेशन बनाते हैं तो उसे धारा 377 से बाहर किया जाए. इस याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने 2 जुलाई 2009 को ऐतिहासिक फैसला सुनाया. इस फैसले में हाईकोर्ट ने कहा कि अगर दो वयस्क व्यक्ति आपसी सहमति से एकांत में सेक्स संबंध बनाते हैं तो इसे आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध नहीं माना जाएगा. इसके साथ ही कोर्ट ने सभी के लिए समानता के अधिकारों की बात कही.

बाद में यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने 11 दिसंबर 2013 में होमोसेक्सुअल्टी के मामले में उम्रकैद की सजा बरकरार रखने का फैसला दिया. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के उस फैसले को खारिज कर दिया जिसमें दो वयस्कों को आपसी सहमति से एकांत में समलैंगिक संबंध बनाने को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कानून उच्च न्यायालय का 2009 का आदेश “संवैधानिक रूप से अस्थिर है क्योंकि केवल संसद कानून बदल सकती है, अदालतें नहीं.

सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त, 2017 में निजता के अधिकार पर फ़ैसला सुनाते हुए सेक्शुअल ओरिएंटेशन को किसी भी व्यक्ति का निजी मामला बताया था. इसके साथ ही कहा था कि सरकार इसमें दखल नहीं दे सकती. इस फैसले के बाद एलजीबीटी समुदाय में खुशी की लहर दौड़ गई थी. इसके बाद अब फिर से होमोसेक्सुअल समुदाय को इस सुनवाई से बहुत सारी उम्मीदें जुड़ी हैं. धारा 377 के पक्ष में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, उत्कल क्रिश्चियन काउंसिल, एपॉस्टोलिक चर्चेज अलायंस सहित कई धार्मिक संस्थाएं खड़ी हैं.

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