सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के एक मामले में मस्जिद के अंदर नमाज पढ़ने को लेकर फैसला सुनाया. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अब्दुल नजीर की बेंच ने यह फैसला सुनाया. कोर्ट ने अपने फैसले में इसे संविधान पीठ के पास भेजने से इनकार कर दिया और कहा कि 1994 में सुनाए गए फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है. मस्जिद में नमाज पढ़ने को लेकर मुस्लिम धर्मगुरुओं की क्या राय है, आइए जानते हैं.
नई दिल्लीः सुप्रीम कोर्ट ने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद से जुड़े एक मामले में गुरुवार को फैसला सुनाया. फैसला मस्जिद के अंदर नमाज पढ़े जाने से जुड़ा था. सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि इस केस में साल 1994 के फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है, लिहाजा चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली तीन सदस्यीय बेंच ने इसे संविधान पीठ के पास भेजने से इनकार कर दिया. शीर्ष अदालत ने 2-1 (पक्ष-विपक्ष) के फैसले के हिसाब से अपना निर्णय सुनाया. जस्टिस अब्दुल नजीर ने चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस अशोक भूषण से अलग अपना फैसला पढ़कर सुनाया. बहरहाल मामला धार्मिक महत्व से जुड़ा हुआ है लिहाजा मुस्लिम धर्मगुरु इस विषय अपनी अलग-अलग राय रख रहे हैं.
उलेमाओं से जब इस बारे में पूछा गया तो वह कहते हैं कि कुरान की 11 आयतों और कई हदीसों से साफ होता है कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम में जरूरी है. एक हदीस का जिक्र करते हुए उलेमा इस बात पर भी जोर देते हुए कहते हैं कि मस्जिद होने के बावजूद अगर कोई मुसलमान अपने घर पर ही नमाज पढ़ता है और उस घर में महिलाएं और बच्चे नहीं हैं तो ऐसे घर को आग के हवाले कर देना चाहिए. नमाज का महत्व इस्लाम में फर्ज से जुड़ा हुआ है और इसे अता करने के लिए मस्जिद का
होना जरूरी है. यह इस्लाम के पांच फर्जों में से एक है.
कई मुस्लिम धर्मगुरुओं ने यह भी कहा कि कुरान की कई आयतों में मस्जिद में नमाज पढ़े जाने का जिक्र किया गया है. इसमें सफर के दौरान व्यक्ति को नमाज पढ़ने में छूट भी दी गई है. मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली ने इस बारे में कहा कि इस्लाम में नमाज पढ़ने की पहली शर्त मस्जिद ही है. इस्लाम की पहली मस्जिद (कुबा मस्जिद) का जिक्र करते हुए मौलाना ने कहा कि मोहम्मद साहब जब मक्का से मदीना जा रहे थे तो उन्होंने रास्ते में इसी मस्जिद का निर्माण किया था. मस्जिद में नमाज पढ़ने से 27 गुना ज्यादा पुण्य मिलता है. कुल मिलाकर अगर यह कहा जाए कि इस्लाम और मस्जिद में नमाज एक दूसरे के पूरक हैं तो यह जरा भी अतिश्योक्ति नहीं होगी.
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