नई दिल्ली. जब भी भगत सिंह या विनायक दामोदर सावरकर की जयंती या पुण्यतिथि जैसे मौके आते हैं, तमाम बीजेपी या संघ विरोधी लोग सावरकर और भगत सिंह की तुलना करना शुरू कर देते हैं. उनका मकसद ये बताना होता है कि सावरकर के मुकाबले भगत सिंह कितने महान थे. जबकि भगत सिंह का कद इतिहासकारों ने इतना कद्दावर बना दिया है कि सावरकर को पसंद करने वाले लोग उनके समर्थन में भगत सिंह की आलोचना भी नहीं कर पाते. जो लोग ये तुलना करते हैं, या तो उन्हें पता नहीं है या फिर जानने बूझने के बावजूद वो इस बात पर चर्चा नहीं करना चाहते कि भगत सिंह और सावरकर के बीच क्या रिश्ता था? क्या वो भी ऐसे ही लड़ते थे जैसे उनके चाहने वाले लड़ते हैं?
जाहिर है आप इतिहास खंगालेंगे तो ना आपको भगत सिंह का कोई बयान सावरकर के विरोध में नजर आएगा और ना ही सावरकर का कोई बयान भगत सिंह के विरोध में नजर आएगा. दूसरे नजरिए से देखा जाए तो गांधीजी के तौर तरीकों के खिलाफ दोनों की सोच एक जैसी ही थी, दोनों ने ही अलग अलग तरीकों से गांधीजी की नीतियों से असहमति जताई ही थी. दोनों के समर्थकों का मानना है कि ना गांधीजी ने भगत सिंह की फांसी रुकवाने की कोई कोशिश की थी और ना ही सावरकर के काला पानी की सजा रुकवाने या कम करने के लिए कुछ किया था. सावरकर को भी फांसी हो जाती तो शायद ये तुलना भी नहीं होती. जेल से आने के बाद सावरकर का ज्यादातर काम हिंदुत्व के लिए लगा, हिंदुत्व शब्द भी उन्हीं का दिया गया था, और ये एक बड़ी वजह बन गई जिसके चलते लोग आजादी के लिए उनके संघर्ष की बजाय उनकी हिंदुत्व विचारधारा पर चर्चा करते हैं और गाहे बगाहे सावरकर के मुकाबले भगत सिंह को खड़ा कर देते हैं.
एक और वजह थी, हिंदू महासभा के एक और अध्यक्ष पंडित मदनमोहन मालवीय गाधीजी के करीबी थे, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय खोलने के बावजूद, हिंदू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बावजूद ना तब और ना अब लोगों ने कभी उन्हें निशाने पर नहीं लिया, लेकिन चूंकि हैदराबाद में 90 फीसदी हिंदुओं के होते हुए भी सरकारी नौकरियों की 85 फीसदी सीटों पर मुसलमान काबिज थे, इसके खिलाफ सावरकर के आंदोलन को गांधीजी ने समर्थन नहीं किया था, इसलिए उनकी गांधी जी से बिगड़ गई. वैसे भी सावरकर राजनीति में शामिल होने के पक्ष में नहीं थे, कांग्रेस से ही नहीं जनसंघ से भी दूर रहे, इसलिए मालवीयजी की तरह गांधीजी के करीब भी नहीं रहे। ये भी बड़ी वजहें हैं कि सावरकर को भगत सिंह के मुकाबले कमतर दिखाया जाता रहा.
जबकि हकीकत में इन दोनों शख्सियतों का आपस में कभी कोई विवाद रहा ही नहीं. बल्कि उलटे भगत सिंह ने वीर सावरकर की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर लिखी किताब ‘1857 का स्वातंत्रय समर’ का तीसरा एडीशन छपवाया और संगठन के लिए धन इकट्ठा करने के लिए उसकी कीमत भी ज्यादा रखी. इसके लिए उन्होंने बाकायदा रत्नागिरी में जाकर वीर सावरकर से मुलाकात की और उनसे उनकी पुस्तक को छापने की अनुमति ली. उससे भी ज्यादा चौंकाने वाला तथ्य ये है कि सावरकर की लिखी यही पुस्तक भगत सिंह की बायोग्राफी में जिन पुस्तकों को उन्होंने जेल या जेल से बाहर पढ़कर प्रेरणा ली, उन पुस्तकों में भी शामिल हैं.
लेकिन आपको हर कोर्स किताब या भगत सिंह से जुड़ी फिल्मों, सीरियल्स में बताया जाएगा कि फांसी वाले दिन भगत सिंह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे. तो बाकी किताबें भगत सिंह की आधिकारिक सूची में क्या कर रही थीं, और भगत सिंह ने पढ़ी भी थीं, तो उनके बारे में क्यों नहीं बताया जाता? भगत सिंह ने अलग अलग भाषाओं की जो देसी या विदेशी पुस्तकें पढ़ी थीं, उनकी सूची आप लुधियाना की शहीद भगत सिंह रिसर्च कमेटी के वेब पेज http://www.shahidbhagatsingh.org/index.asp?linkid=32 पर भी पढ़ सकते हैं और तस्दीक कर सकते हैं कि भगत सिंह खाली लेनिन की ही किताब नहीं पढ रहे थे बल्कि तिलक की ‘गीता रहस्य’, राजा महेन्द्र प्रताप की जीवनी, सचिन्द्रनाथ सान्याल की ‘बंदी जीवन’ के साथ वीर सावरकर की ‘1857 का स्वातंत्रय समर’ भी पढ़ रहे थे.
आजादी से पहले के तौर में पंजाबी की एक मशहूर पत्रिका थी ‘कीर्ति’, जिसमें खुद भगत सिंह भी लिखा करते थे। 18 अप्रैल 1928 को इस पत्रिका में एक लेख छपा था- The Significance of May 10th यानी 10 मई की महत्ता. 10 मई यानी 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का पहला दिन, इस लेख में 10 मई के बहाने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की बात की गई थी. इसे लोग सिपाही विद्रोह या मुगलों का सत्ता पाने की छटपटाहट या राजाओं की बगावत बताते रहे, वो सावरकर ही थे जिन्होंने उसे भारत की आजादी की पहली लड़ाई बताया और क्यों थी वो आजादी की पहली लड़ाई इसको साबित करने के लिए कई तथ्यों को अपनी किताब में बारीकी से पिरोया भी. इस लेख में साफ साफ लिखा था कि भगत सिंह और उनके साथियों ने इस किताब को और सावरकर के बारे में विस्तार से पढ़ा था.
सावरकर की इस किताब के प्रति भगत सिंह के लगाव की कहानी उनके एक करीबी सहयोगी राजाराम शास्त्री ने विस्तार से ‘अमर शहीदों के संस्मरण’ में लिखी है, वो लिखते हैं, ‘’वीर सावरकर द्वारा लिखित ‘1857 का स्वातंत्रय समर’ पुस्तक ने भगत सिंह को बहुत अधिक पभावित किया था. यह पुस्तक भारत सरकार द्वारा जब्त कर ली गई थी. मैंने इस पुस्तक की प्रशंसा सुनी थी और इसे पढ़ने का बहुत ही इच्छुक था. पता नहीं कहां से भगत सिंह को ये पुस्तक प्राप्त हो गई थी. वह एक दिन इसे मेरे पास ले आए. जिससे ली है, उसे देनी होगी, इसलिए वो मेरे बहुत कहने पर भी देने को तैयार नहीं हो रहे थे. जब मैंने इसे जल्द से जल्द पढ़कर उसे अवश्य लौटा देने का वायदा किया तो तब उन्होंने वो पुस्तक मुझे बस 36 घंटे के लिए पढ़ने के लिए दी.‘’ जैसे तैसे जल्दी पढ़कर राजाराम शास्त्री ने ये किताब जब भगत सिंह को वापस कर दी तो एक दिन भगत सिंह उनसे बोले, ”यदि तुम कुछ परिश्रम करने के ले तैयार हो जाओ और थोड़ी मदद करने के लिए तैयार हो जाओ तो इस पुस्तक को गुप्त रुप से प्रकाशित करने का उपाय सोचा जाए”.
मूल आलेख विष्णु शर्मा का है, इस लेख को पूरा पढ़ने के लिए आपको उनकी किताब, ‘इतिहास के 50 वायरल सच’ पढ़नी होगी. ये किताब प्रभात प्रकाशन से छपी है और अमेजन पर उपलब्ध है.
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बहुत ही अच्छी-अच्छी जानकारी से भरपूर
जो देश के असली देश भक्तों के दर्शन करवाती है
और नेहरू गांधी so called इतिहासकारों के चेहरे से पर्दा हटा कर उनका गंधा चेहरा दिखती है