नई दिल्ली, बुकर पुरस्कार विजेता उपन्यासकार सलमान रुश्दी पर हुए जानलेवा हमले ने दुनिया को हिला कर रख दिया है. खासतौर पर उन लोगों को जो वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हिमाकत करते हैं, भारत में जन्में लेखक सलमान रुश्दी को 24 वर्षीय एक शख्स ने सरेआम मंच पर चढ़कर गर्दन और पेट में चाकू मार दिया. यह घटना उस वक्त की है जब वह पश्चिमी न्यूयॉर्क में चौटाउक्वा इंस्टीट्यूशन में स्पेशल लेक्चर देने वाले थे. उधर, हमलावर का मकसद अभी स्पष्ट रूप से सामने नहीं आया है, रुश्दी को उनके उपन्यास “द सैटेनिक वर्सेज” के प्रकाशन के बाद से मुस्लिम देशों विशेष रूप से ईरान से मौत की धमकी दी गई थी. उपन्यासकार सलमान रुश्दी अभी भी वेंटिलेटर पर हैं और डॉक्टर उन्हें बचाने की पूरी कोशिश कर हरे हैं.
बता दें, सलमान रुश्दी के अलावा कई और लोग इसी तरह के हमले झेल चुके हैं. इस्लाम की कथित आलोचना को लेकर अब भी कई लोग सुरक्षा के घेरे में हैं और सार्वजनिक रूप कम ही नज़र आते हैं, आइए आज आपको इन लोगों के बारे में बताते हैं.
आज से तकरीबन सात साल पहले फ्रांस की पत्रिका शार्ली एब्दो पर आतंकियों ने हमला किया था, दरअसल इस पत्रिका ने पैगंबर मोहम्मद का एक कार्टून छापा था, जिसके बाद आतंकियों ने उसके दफ्तर में घुसकर अचानक हमला कर दिया और इस हमले में 12 मासूमों की जान ले ली थी जबकि 11 घायल हुए थे. पत्रिका ने पैगंबर के कार्टून छापने को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ा था, जबकि कट्टरपंथियों ने इसका पुरजोर विरोध किया था. 7 जनवरी 2015 की सुबह शार्ली एब्दो के दफ्तर में आम दिनों की तरह ही काम चल रहा था, कोई लिख रहा था तो कोई कार्टून बना रहा था. किसे पता था कि ये दिन उनपर बहुत भारी पड़ने वाला है. सुबह तकरीबन 11:30 बजे हमलावरों ने इमारत में प्रवेश किया और पत्रिका के दफ्तर में घुसकर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी. इन्होंने पत्रिका के एडिटर स्टीफन चार्बोनियर, चार कार्टूनिस्ट, दो स्तंभकार, एक कॉपी एडिटर, एक केयरटेकर, एडिटर के अंगरक्षक, एक पुलिस अधिकारी और एक मेहमान की हत्या कर दी, इस घटना के बाद फ्रांस में कई दिनों तक लोग आतंक के खौफ में छिपे रह रहे थे.
बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन भी इन्हीं लोगों में से एक हैं. 1990 के दशक की शुरुआत में तस्लीमा अपने निबंधों और उपन्यासों के कारण विश्व का ध्यान अपनी ओर खींचा था, उनकी लेखनी को काफी सराहा जाता था. अयोध्या बाबरी विध्वंस के बाद तसलीमा को 1993 में उनके चर्चित उपन्यास ‘लज्जा’ के प्रकाशन के बाद बांग्लादेश से निष्कासित कर दिया गया थे, दरअसल ‘लज्जा’ की कहानी एक हिंदू परिवार पर केंद्रित थी जो कट्टरपंथी हिंसा के बाद देश छोड़ने को मजबूर हो गया था. उनके कई और उपन्यास भी प्रकाशित हुए जिसमें उन्होंने इस्लाम को लेकर अपना नजरिया बताया है. उनके लेखन को जहाँ एक वर्ग ने सराहा तो वहीं, दूसरा वर्ग इस लेखनी से नाराज़ हो गया. उनके खिलाफ भी बांग्लादेश में फतवा जारी कर दिया गया था, वह तब से भारत के कोलकाता में निर्वासित जीवन बिता रही हैं. उनपर भी हमले की कई कोशिशें की गई हैं, हालांकि कोई भी गंभीर हमला नहीं था. वह अब भी ट्विटर के जरिए अपना नजरिया सामने रखती हैं, इसी कड़ी में रूश्दी पर हमले के बाद उन्होंने प्रतिक्रिया जताते हुए इसे बेहद भयावह करार दिया है.
इसी तरह का मामला हालिया दिनों में भारत में भी सामने आया है जब भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नुपुर शर्मा की एक टिप्पणी ने देश भर में विवाद खड़ा कर दिया. पैगंबर पर उनकी टिप्पणी ने देश के कई हिस्सों में उबाल ला दिया और लोग हिंसा को उतारू हो गए. नुपुर शर्मा को जान से मारने की धमकियां मिलने लगीं, इसके बाद उन्हें पुलिस सुरक्षा देनी पड़ी और अब वह इस समय किसी अज्ञात जगह पर रह रही हैं. उनकी गिरफ्तारी की लगातार मांग उठती रही और कई राज्यों में उनके खिलाफ मामला भी दर्ज किया गया, इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली और फिलहाल उन्हें गिरफ्तारी से राहत मिली हुई है. उनकी जान पर खतरा लगातार बना हुआ है,पाकिस्तान स्थित आतंकी गुट भी उन्हें मारने की प्लानिंग कर रहा है. देश में तो अब तक नुपूर शर्मा का समर्थन करने वाले कई लोगों को मौत के घाट उतारा जा चुका है.
नौ अक्टूबर 2012 को पाकिस्तान में 15 साल की किशोरी मलाला यूसुफजई पर जानलेवा हमला हुआ था, इस बेरहम हमले के पीछे और कोई नहीं बल्कि आतंक का आका तालिबान था. पाकिस्तान में लड़कियों की शिक्षा की हिमायत करने वाली मलाला यूसुफजई पर तालिबान ने हमला किया और सिर में गोली मारकर उनकी जान लेने की कोशिश की, ये हमला उस समय हुआ जब मलाला स्कूल से घर लौट रही थी. मलाला पर ये बहुत ही घातक हमला हुआ था, लेकिन उनकी हिम्मत ने मौत को मात दे दी. ब्रिटेन में लंबे इलाज के बाद वह ठीक हुईं और एक बार फिर अपने अभियान में जुट गई, उनके इसी हौसले की वजह से उन्हें सबसे कम उम्र में शांति का नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया. मलाला आतंकवादियों के बच्चों को भी शिक्षा देने की पक्षधर हैं ताकि वह शिक्षा और शांति का महत्व समझें, उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान की स्वात घाटी की रहने वाली मलाला ने 11 साल की उम्र में गुल मकाई नाम से बीबीसी उर्दू के लिए डायरी लिखना शुरू किया था, वहीं साल 2009 में डायरी लिखने की शुरुआत करने वाली मलाला स्वात इलाके में रह रहे बच्चों की मुश्किलें सामने लाती थीं और उनकी इसी बात से तालिबान उनसे खफा था. उस समय स्वात इलाके में तालिबान का खतरा बहुत ज्यादा था और मलाला उसके बारे लिखती थी. 9 अक्टूबर को तालिबान ने मलाला पर हमला किया था, जिसके बाद हालत बिगड़ने पर इलाज के लिए ब्रिटेन में बर्मिंघम ले जाया गया था. हमले के करीब छह साल बाद 31 मार्च 2018 को पहली बार पाकिस्तान में स्वात घाटी में अपने घर लौट कर आईं.
सेटेनिक वर्सेस: सलमान रुश्दी ने ऐसा क्या लिखा कि उन्हें जान से मारने को आतुर हो गए कट्टरपंथी
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