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Saadat Hasan Manto Birthday Special: सआदत हसन मंटो जैसे लेखक अब क्यों नहीं पैदा होते!

सआदत हसन मंटो लेखक, अफ़सानानिगार, उपन्यासकार, पत्रकार, स्क्रीनराइटर और इन सबसे बढ़कर एक बागी शख्स. 1912 में पंजाब के लुधियाना में मंटो का जन्म हुआ. उनके पिता एक स्थानीय कोर्ट में जज थे. मंटो मूल रूप से कश्मीर के रहने वाले थे. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को लिखे एक पत्र में मंटो कहते हैं खूबसूरती और कश्मीर एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं. मंटो पर अश्लीलता के इल्जाम लगे, उन्हें बागी और मुहाजिर कहा गया. लेकिन मौत के लगभग 65 सालों बाद भी मंटो की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है. 11 मई को मंटो का जन्मदिन होता है. 

बगावत का नाम सआदत

मंटो एक संपन्न घर में पैदा हुए थे. गरीबी और कष्टों का सामना उन्हें बचपन में नहीं करना पड़ा. इसलिए भी मंटो की कहानियां अपनी दर्दबयानी नहीं करती बल्कि समाज की विद्रूपताओं का नकाब खींचती है. 21 साल की उम्र में मंटो की मुलाकात अमृतसर के प्रख्यात लेखक और विद्वान अब्दुल बारी अलिग से हुई. उन्होंने मंटो को रूसी और फ्रेंच लेखकों की किताबें पढ़ने को दीं. कुछ ही महीनों में मंटो ने विक्टर ह्यूगो की द लास्ट डे ऑफ कंडेम्ड मैन’ का उर्दू तर्जुमा किया जिसे उर्दू बुक स्टॉल की तरफ से छापा गया. इसके बाद मंटो लुधियान से प्रकाशित मैगजीन मसावत से जुड़ गए.
मंटो की लेखनी में दिनों-दिन निखार आ रहा था. तय ये हुआ कि मंटो को ग्रैजुएशन कर लेना चाहिए. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मंटो ने 1934 में दाखिला ले लिया. ये कदम लेखक मंटो की शख्सियत को तराशने वाला साबित हुआ. यहां मंटो प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गए. यहीं उनकी मुलाकात अली सरदार जाफरी से हुई. मंटो ने अपनी दूसरी कहानी इंकलाब पसंद यहीं लिखी जो 1935 में अलीगढ़ मैगजीन में प्रकाशित हुई.

ये है बंबई मेरी जान….

1934 में मंटो पहली बार बॉम्बे (अब मुंबई) गए. यहां उन्होंने अखबारों, पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया. वो फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट भी लिखने लगे. इस दौरान उनकी नूर जहां, नौशाद, इस्मत चुगतई और अशोक कुमार जैसे लोगों से दोस्ती हुई. मंटो की रिहाईश कमाठीपुरा के पास थी जो मुंबई का रेड लाइट एरिया था. यहां उन्होंने जो देखा उसने उनकी लेखनी पर गहरा प्रभाव डाला. इसी दौरान उन्हें ऑल इंडिया रेडियो के उर्दू सर्विस के लिए भी लिखने का काम मिल गया. मंटो के रेडियो नाटक बहुत मशहूर और मकबूल हुए. उनके रेडियो नाटक संग्रह आओ, मंटो के ड्रामे, जनाजे और तीन औरतें ने खूब लोकप्रियता पाई. लेकिन ऑल इंडिया रेडियो के डायरेक्टर एन एम राशिद से उनकी लड़ाई हो गई. मंटो नौकरी को ठोकर मार दोबारा बॉम्बे लौट गए फिल्मों के लिए लिखने. मंटो ने आठ दिन, शिकारी, चल चल रे नौजवान और मिर्जा ग़ालिब जैसी फिल्में लिखीं. इसी दौरान उनकी कुछ छोटी कहानियां भी प्रकाशित हुईं जिनमें काली सलवार (1941), धुआं (1941), बू(1945) प्रकाशित हुईं. उनकी कहानियों का एक संग्रह भी इस दौरान प्रकाशित हुआ चुगद नाम से. इसी संग्रह में उनकी मशहूर कहानी बाबू गोपीनाथ भी थी. कह सकते हैं कि यह मंटो एक लेखक का स्वर्णिम काल था.

बंटवारे ने मंटो को मार दिया….
1947 में भारत का विभाजन हो गया. धरती पर इतनी बड़ी आबादी की अदला-बदली पहली बार हो रही थी. लाखों की संख्या में लोगों ने अपनी जानें गंवाईं. कल तक जो एक दूसरे के दोस्त थे अब धर्मांधता में एक दूसरे के जान के प्यासे थे. इसी दीवानगी के आलम में मंटो को अपना प्यारा हिंदुस्तान और कर्मभूमि बॉम्बे छोड़ना पड़ा. मंटो ने बंटवारे के बाद हिंदुस्तान में रहना चुना था. मंटो की पत्नी और बच्चे अपने रिश्तेदारों से मिलने लाहौर गए. इसी दौरान बड़ी संख्या में दोनों देशों में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे. मंटो बॉम्बे में थे और अपनी मिली जुली संस्कृति के लिए मशहूर बॉम्बे में भी दंगे भड़क उठे. मंटो जहाज से पाकिस्तान रवाना हो गए.

पाकिस्तान की बंद गली में मंटो का खुलापन

लाहौर में मंटो की दोस्ती फैज़ अहमद फैज़, नासिर काज़मी जैसे शायरों से हुई. आजादख्याल मंटो पाकिस्तान के बंद समाज में घुटने लगे थे. पाकिस्तान में मंटो की कहानियों पर अश्लीलता के इल्जाम लगे. कई बार अदालत का चक्कर काटना पड़ा. तीन बार भारत में और तीन बार पाकिस्तान की अदालत में मंटो पर अश्लीलता का मुकदमा चला. मंटो अदालत मे अपनी सफाई खुद ही देते. एक बार अदालत में जब जज ने उन्हें समाज की मान्यताओं को आहत करने का आरोप लगाया तो मंटो ने कहा, “एक लेखक उसी वक्त कलम उठाता है जब उसकी संवेदनाएं आहत होती हैं.” उन्हें बॉम्बे की बेइंतहा याद आती रही. मंटो ने खूब शराब पीनी शुरू कर दी. पाकिस्तान आने के महज सात साल बाद 1955 में मंटो की मौत हो गई. बहुत शराब पीने की वजह से मंटो का लीवर खराब हो गया था. मंटो के दोस्त कहते हैं अगर वो बॉम्बे में ही रह गए होते तो शायद कई साल और जिंदा रहते. 

मंटो रोज़ ब रोज़ मशहूर हो रहा है….

सआदत हसन मंटो अपनी मौत के 65 सालों बाद भी लोकप्रिय हैं. हाल ही में नंदिता दास ने उन पर एक फिल्म भी बनाई थी मंटो. इस फिल्म में मंटो का किरदार नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने अदा किया था. मंटो की कहानियां समाज के नंगे सच को जस का तस सामने रख देने की हिम्मत रखती थीं. वो हिम्मत जो तब कई लोगों को नागवार गुजरता था, आज की युवा पीढ़ी उसी हिम्मत पर निसार है. मंटो सच बोलता था. अपनी कहानियों में भी. ये फ़न बहुत कम लेखकों को हासिल है. जब तक सच की कीमत रहेगी मंटो बेशकीमती बना रहेगा. 11 मई को मंटो का जन्मदिन होता है. हम अपने महबूब अफ़सानानिगार को मोहब्बत से याद कर रहे हैं.

नवाजुद्दीन सिद्दीकी की मंटो के बाद ‘फ्रॉड मंटो’ की तैयारी, ये टीम पहले बना चुकी है मंटो की शादी

Aanchal Pandey

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