अटल बिहारी वाजपेयी का निधन: वाजपेयी की कालजयी, जोशीली कविताएं जो लोगों पर छा जाती थीं

पूर्व प्रधानमंत्री और जाने माने कवि अटल बिहारी वाजपेयी का गुरुवार को दिल्ली के एम्स निधन हो गया. वे 93 साल के थे. भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की कुछ चुनिंदा कविताएं बेहद प्रसिद्ध हैं. आएये हम आपको उनकी कुछ खास कविताओं से अवगत कराते हैं.

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अटल बिहारी वाजपेयी का निधन: वाजपेयी की कालजयी, जोशीली कविताएं जो लोगों पर छा जाती थीं

Aanchal Pandey

  • August 16, 2018 7:48 pm Asia/KolkataIST, Updated 6 years ago

नई दिल्ली. भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने दिल्ली के एम्स अस्पताल में 5 बजकर 5 मिनट पर आखरी सांसे ली. एम्स डॉक्टर्स ने मेडिकल आधिकारिक मेडिकल बुलेटिन जारी कर वाजपेयी जी के निधन की पुष्टि की. एम्स से उनके पार्थिव शरीर को उनके दिल्ली आवास पर ले जाया गया हैं. सुबह 9.30 बजे बीजेपी मुख्यालय में उनके अंतिम दर्शन के लिए पार्थिव शरीर रखा जाएगा जिसके बाद दोपहर 1.30 बजे उनकी शव यात्रा निकलेगी. राजघाट के पास शाम को उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा जहां पूरा देश एकजुट होकर उन्हें आखिरी विदाई देगा. अटल बिहारी वाजपेयी जी के निधन की खबर से पूरा देश शोक में है. पूर्व पीएम के साथ साथ एक बेहतरीन कवि के रूप में जाने जाने वाले वाजपेयी की कई कविताएं प्रसिद्ध हैं.  आइये हम आपको उनकी कुछ खास कविताओं से अवगत कराते हैं.

अमर आग है

कोटि-कोटि आकुल हृदयों में
सुलग रही है जो चिनगारी,
अमर आग है, अमर आग है.
उत्तर दिशि में अजित दुर्ग सा,
जागरूक प्रहरी युग-युग का,
मूर्तिमन्त स्थैर्य, धीरता की प्रतिमा सा,
अटल अडिग नगपति विशाल है.
नभ की छाती को छूता सा,
कीर्ति-पुंज सा,
दिव्य दीपकों के प्रकाश में-
झिलमिल झिलमिल
ज्योतित मां का पूज्य भाल है.
कौन कह रहा उसे हिमालय?
वह तो हिमावृत्त ज्वालागिरि,
अणु-अणु, कण-कण, गह्वर-कन्दर,
गुंजित ध्वनित कर रहा अब तक
डिम-डिम डमरू का भैरव स्वर .
गौरीशंकर के गिरि गह्वर
शैल-शिखर, निर्झर, वन-उपवन,
तरु तृण दीपित .
शंकर के तीसरे नयन की-
प्रलय-वह्नि से जगमग ज्योतित.
जिसको छू कर,
क्षण भर ही में
काम रह गया था मुट्ठी भर .
यही आग ले प्रतिदिन प्राची
अपना अरुण सुहाग सजाती,
और प्रखर दिनकर की,
कंचन काया,
इसी आग में पल कर
निशि-निशि, दिन-दिन,
जल-जल, प्रतिपल,
सृष्टि-प्रलय-पर्यन्त तमावृत
जगती को रास्ता दिखाती.
यही आग ले हिन्द महासागर की
छाती है धधकाती.
लहर-लहर प्रज्वाल लपट बन
पूर्व-पश्चिमी घाटों को छू,
सदियों की हतभाग्य निशा में
सोये शिलाखण्ड सुलगाती.
नयन-नयन में यही आग ले,
कंठ-कंठ में प्रलय-राग ले,
अब तक हिन्दुस्तान जिया है.
इसी आग की दिव्य विभा में,
सप्त-सिंधु के कल कछार पर,
सुर-सरिता की धवल धार पर
तीर-तटों पर,
पर्णकुटी में, पर्णासन पर,
कोटि-कोटि ऋषियों-मुनियों ने
दिव्य ज्ञान का सोम पिया था.
जिसका कुछ उच्छिष्ट मात्र
बर्बर पश्चिम ने,
दया दान सा,
निज जीवन को सफल मान कर,
कर पसार कर,
सिर-आंखों पर धार लिया था.
वेद-वेद के मंत्र-मंत्र में,
मंत्र-मंत्र की पंक्ति-पंक्ति में,
पंक्ति-पंक्ति के शब्द-शब्द में,
शब्द-शब्द के अक्षर स्वर में,
दिव्य ज्ञान-आलोक प्रदीपित,
सत्यं, शिवं, सुन्दरं शोभित,
कपिल, कणाद और जैमिनि की
स्वानुभूति का अमर प्रकाशन,
विशद-विवेचन, प्रत्यालोचन,
ब्रह्म, जगत, माया का दर्शन .
कोटि-कोटि कंठों में गूँजा
जो अति मंगलमय स्वर्गिक स्वर,
अमर राग है, अमर राग है.
कोटि-कोटि आकुल हृदयों में
सुलग रही है जो चिनगारी
अमर आग है, अमर आग है.
यही आग सरयू के तट पर
दशरथ जी के राजमहल में,
घन-समूह यें चल चपला सी,
प्रगट हुई, प्रज्वलित हुई थी.
दैत्य-दानवों के अधर्म से
पीड़ित पुण्यभूमि का जन-जन,
शंकित मन-मन,
त्रसित विप्र,
आकुल मुनिवर-गण,
बोल रही अधर्म की तूती
दुस्तर हुआ धर्म का पालन.
तब स्वदेश-रक्षार्थ देश का
सोया क्षत्रियत्व जागा था.
रोम-रोम में प्रगट हुई यह ज्वाला,
जिसने असुर जलाए,
देश बचाया,
वाल्मीकि ने जिसको गाया .
चकाचौंध दुनिया ने देखी
सीता के सतीत्व की ज्वाला,
विश्व चकित रह गया देख कर
नारी की रक्षा-निमित्त जब
नर क्या वानर ने भी अपना,
महाकाल की बलि-वेदी पर,
अगणित हो कर
सस्मित हर्षित शीश चढ़ाया.
यही आग प्रज्वलित हुई थी-
यमुना की आकुल आहों से,
अत्यचार-प्रपीड़ित ब्रज के
अश्रु-सिंधु में बड़वानल, बन.
कौन सह सका माँ का क्रन्दन?
दीन देवकी ने कारा में,
सुलगाई थी यही आग जो
कृष्ण-रूप में फूट पड़ी थी.
जिसको छू कर,
मां के कर की कड़ियां,
पग की लड़ियां
चट-चट टूट पड़ी थीं.
पाँचजन्य का भैरव स्वर सुन,
तड़प उठा आक्रुद्ध सुदर्शन,
अर्जुन का गाण्डीव,
भीम की गदा,
धर्म का धर्म डट गया,
अमर भूमि में,
समर भूमि में,
धर्म भूमि में,
कर्म भूमि में,
गूँज उठी गीता की वाणी,
मंगलमय जन-जन कल्याणी.
अपढ़, अजान विश्व ने पाई
शीश झुकाकर एक धरोहर.
कौन दार्शनिक दे पाया है
अब तक ऐसा जीवन-दर्शन?
कालिन्दी के कल कछार पर
कृष्ण-कंठ से गूंजा जो स्वर
अमर राग है, अमर राग है.
कोटि-कोटि आकुल हृदयों में
सुलग रही है जो चिनगारी,
अमर आग है, अमर आग है.

आज सिंधु में ज्वार उठा है

आज सिंधु में ज्वार उठा है
नगपति फिर ललकार उठा है
कुरुक्षेत्र के कण–कण से फिर
पांचजन्य हुँकार उठा है.
शत–शत आघातों को सहकर
जीवित हिंदुस्थान हमारा
जग के मस्तक पर रोली सा
शोभित हिंदुस्थान हमारा.
दुनियाँ का इतिहास पूछता
रोम कहाँ, यूनान कहाँ है
घर–घर में शुभ अग्नि जलाता
वह उन्नत ईरान कहाँ है?
दीप बुझे पश्चिमी गगन के
व्याप्त हुआ बर्बर अँधियारा
किंतु चीर कर तम की छाती
चमका हिंदुस्थान हमारा.
हमने उर का स्नेह लुटाकर
पीड़ित ईरानी पाले हैं
निज जीवन की ज्योति जला–
मानवता के दीपक बाले हैं.
जग को अमृत का घट देकर
हमने विष का पान किया था
मानवता के लिये हर्ष से
अस्थि–वज्र का दान दिया था.
जब पश्चिम ने वन–फल खाकर
छाल पहनकर लाज बचाई
तब भारत से साम गान का
स्वार्गिक स्वर था दिया सुनाई.
अज्ञानी मानव को हमने
दिव्य ज्ञान का दान दिया था
अम्बर के ललाट को चूमा
अतल सिंधु को छान लिया था.
साक्षी है इतिहास प्रकृति का
तब से अनुपम अभिनय होता
पूरब से उगता है सूरज
पश्चिम के तम में लय होता
विश्व गगन पर अगणित गौरव
के दीपक अब भी जलते हैं
कोटि–कोटि नयनों में स्वर्णिम
युग के शत–सपने पलते हैं.

मस्तक नहीं झुकेगा

एक नहीं, दो नहीं, करो बीसों समझौते
पर स्वतंत्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा.
अगणित बलिदानों से अर्जित यह स्वतंत्रता
त्याग, तेज, तप, बल से ‍रक्षित यह स्वतंत्रता
प्राणों से भी प्रियतर यह स्वतंत्रता.

इसे मिटाने की ‍साजिश करने वालों से
कह दो चिनगारी का खेल बुरा होता है
औरों के घर आग लगाने का जो सपना
वह अपने ही घर में सदा खरा होता है.

अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र न खोदो
अपने पैरों आप कुल्हाड़ी नहीं चलाओ
ओ नादान पड़ोसी अपनी आंखें खोलो
आजादी अनमोल न इसका मोल लगाओ.

पर तुम क्या जानो आजादी क्या होती है
तुम्हें मुफ्ता में मिली न कीमत गई चुकाई
अंगरेजों के बल पर दो टुकड़े पाए हैं
मां को खंडित करते तुमको लाज न आई.

अमेरिकी शस्त्रों से अपनी आजादी को
दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो
दस-बीस अरब डॉलर लेकर आने वाली
बरबादी से तुम बच लोगे, यह मत समझो.

धमकी, जेहाद के नारों से, हथियारों से
कश्मीर कभी हथिया लोगे, यह मत समझो
हमलों से, अत्याचारों से, संहारों से
भारत का भाल झुका लोगे, यह मत समझो.

जब तक गंगा की धार, सिंधु में ज्वार
अग्नि में जलन, सूर्य में तपन शेष
स्वातंत्र्य समर की वेदी पर अर्पित होंगे
अगणित जीवन, यौवन अशेष.

अमेरिका क्या संसार भले ही हो विरुद्ध
काश्मीर पर भारत का ध्वज नहीं झुकेगा,
एक नहीं, दो नहीं, करो बीसों समझौते
पर स्वतंत्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा.

क़दम मिलाकर चलना होगा

क़दम मिलाकर चलना होगा
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा.
क़दम मिलाकर चलना होगा.
कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा.
क़दम मिलाकर चलना होगा.

मौत से ठन गई!

ठन गई!
मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई.

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं.

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा.

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर.

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं.

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला.

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए.

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है.

पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई.

मौत से ठन गई.

https://youtu.be/XzT0GGe3Lbk

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है.
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं.
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं.
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है.
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है.
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है.
हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये.

क़दम मिलाकर चलना होगा

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,

प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,

सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,

असफल, सफल समान मनोरथ,

सब कुछ देकर कुछ न मांगते,

पावस बनकर ढ़लना होगा.

क़दम मिलाकर चलना होगा.

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,

प्रखर प्यार से वंचित यौवन,

नीरवता से मुखरित मधुबन,

परहित अर्पित अपना तन-मन,

जीवन को शत-शत आहुति में,

जलना होगा, गलना होगा.

क़दम मिलाकर चलना होगा.

एक बरस बीत गया 
 
झुलासाता जेठ मास 
शरद चांदनी उदास 
सिसकी भरते सावन का 
अंतर्घट रीत गया 
एक बरस बीत गया 
 
सीकचों मे सिमटा जग 
किंतु विकल प्राण विहग 
धरती से अम्बर तक 
गूंज मुक्ति गीत गया 
एक बरस बीत गया 
 
पथ निहारते नयन 
गिनते दिन पल छिन 
लौट कभी आएगा 
मन का जो मीत गया 
एक बरस बीत गया

https://www.youtube.com/watch?v=UY1A3YN2KeM

 

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