12 जनवरी 1924 की एक तस्वीर में गांधीजी ऑपरेशन की टेबल पर बेहोश पड़े हैं और उन्हें डॉक्टर और नर्सेज ने घेर रखा है. ये तस्वीर अब तक बहुत ही कम लोगों ने देखी होगी. कहा जाता है कि महात्मा गांधी को इस ऑपरेशन के कारण जिंदगी का एक बड़ा मौका मिला था. दरअसल अंग्रेजों ने उन्हें देशद्रोह के आरोप में 6 साल की सजा सुनाई थी और 4 साल की सजा अभी बाकी थी. लेकिन उन्हें अपेंडिक्स हो गया और इस ऑपरेशन के कारण ही वे जेल से बाहर आ सके.
आपमें से ज्यादातर ने ये तस्वीर पहली बार देखी होगी. ऑपरेशन थिएटर की तस्वीर है, गांधीजी ऑपरेशन की टेबल पर बेहोश पड़े हैं और उन्हें डॉक्टर और नर्सेज ने घेर रखा है. इस तस्वीर में उनका खुला पेट आपको साफ समझ आएगा. दरअसल पेट के ऑपरेशन के लिए ही गांधीजी को इस हॉस्पिटल में लाया गया था. ये तस्वीर 12 जनवरी 1924 की है और ये ऑपरेशन थिएटर पुणे के ससून हॉस्पिटल का है. इस तस्वीर में उनका अपेंडिक्स का ऑपरेशन किया जा रहा है. माना जाता है कि अगर गांधीजी को अपेंडिक्स नहीं होती, तो शायद गांधी के जीवन में एक बड़ा मौका जो ऑपरेशन के चलते मिला वो नहीं मिलता और शायद वो इतने बड़े आंदोलन नहीं खड़े कर पाते.
आप ये जानकर और भी चौंक जाएंगे कि इस ऑपरेशन के लिए खास तौर पर गांधीजी को जेल से लाया गया था और इस बीमारी के चलते ही उनकी बाकी 4 साल की सजा माफ कर दी गई, अगर ये सजा नहीं माफ नहीं होती तो वो 1928 में पूरी 6 साल की सजा काटकर रिहा होते और तब तक शायद इतना जोश बाकी नहीं रहता. दरअसल उन्हें असहयोग आंदोलन के दौरान चौरी चौरा कांड के बाद उन्होंने आंदोलन वापस ले लिया लेकिन एक लेख के चलते अंग्रेजों ने उन्हें देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था और 1922 में ही 6 साल की सजा सुना दी गई थी. इस बीमारी ने उन्हें मौका दिया बाहर आने का और उसी साल यानी 1924 में वो कांग्रेस के पहली और आखिरी बार कांग्रेस अध्यक्ष भी चुने गए थे बेलगांव अधिवेशन में.
गांधीजी को 10 मार्च 1922 को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, 6 साल की सजा सुना दी गई और 4 फरवरी 1924 को बाकी सजा माफ करके रिहा कर दिया गया. गिरफ्तारी से ठीक 7-8 साल पहले जाएंगे तो पाएंगे कि इसी ब्रिटिश सरकार ने उन्हें पहले विश्वयुद्ध में मदद करने के लिए सम्मानित किया था. 1918 में ब्रिटिश वायसरॉय ने उन्हें एक वॉर कॉन्फ्रेंस में बुलाया और एक लीफलेट ‘अपील फॉर एनलिस्टमेंट’ में गांधी जी ने लिखा- “To bring about such a state of things we should have the ability to defend ourselves, that is, the ability to bear arms and to use them…If we want to learn the use of arms with the greatest possible dispatch, it is our duty to enlist ourselves in the army’’. गांधीजी ने नौजवानों से ब्रिटिश सेना में भर्ती होने का कैम्पेन चलाया और इसके लिए ऐसी कई दलीलें दीं और लोग उनको कहने लगे ‘भर्ती करने वाला सार्जेंट’.
अब देखिए उन तीनों लेख में से वो एक लेख जिसके लिए गांधीजी पर 1922 में देशद्रोह का मुकदमा चला, दिलचस्प बात ये है कि ये भी ब्रिटिश आर्मी में भारतीय नौजवानों के लिए ही था,लेकिन इसमें वो लिख रहे थे, ‘’that it is sinful for anyone, either soldiers or civilian, to serve this Government which has proved treacherous to the Mussalmans of India, and which has been guilty of the inhumanities of the Punjab. I have said this from many a platform in the presence of sepoys”. “I shall not hesitate (when the time is ripe), at the peril of being shot, to ask the Indian sepoy individually to leave his service and become a weaver. For, has not the sepoy been used to hold India under subjection, has he not been used to murder innocent people at Jalianwala Bagh, has he not been used to drive away innocent men, women, and children during that dreadful night at Chandpur, has he not been used to subjugate the proud Arab of Mesopotamia, has he not been utilized to crush the Egyptian? How can any Indian having a spark of humanity in him, and any Mussalman having any pride in his religion, feel otherwise than as the Ali Brothers have done? ‘’
गांधीजी के लिखने की टोन चार साल के अंदर बिलकुल बदल चुकी थी. आखिर वजह क्या थी? दरअसल गांधीजी पहले विश्व युद्ध के दौरान नहीं चाहते थे कि अंग्रेजों की मजबूरी का फायदा उठाकर अपनी आजादी की लड़ाई लड़ी जाए, अपनी इसी सोच के चलते अहिंसा के इस पुजारी ने आर्मी और हथियारों तक के समर्थन की वकालत कर दी. लेकिन बाद में उनको लगा कि अंग्रेज आसानी से देश छोड़कर जाने वाले नहीं तो उन्होंने असहयोग आंदोलन का ऐलान किया. अपने आंदोलन को सफल बनाने के लिए वो मुसलमानों को भी साथ लेना चाहते थे, लेकिन उस वक्त देश का ज्यातादर मुसलमान अली बंधुओं की अगुवाई में खिलाफत आंदोलन चला रहा था. खिलाफत आंदोलन तुर्की के खलीफा की बादशाहत बरकरार रखने में में ब्रिटिश सरकार से कुछ मांगों से जुड़ा था,जिसका भले ही भारत की आजादी से कोई लेना देना नहीं था, लेकिन भारतीय मुसलमान खलीफा को बहुत मानते थे, इसलिए गांधीजी ने उनके आंदोलन से हाथ मिला लिया. खलीफा की बहाली के लिए अली बंधुओं की रैलियों में हजारों हिंदुओं ने हिस्सा लिया और बदले में हजारों मुसलमानों ने गांधीजी के असहयोग आंदोलन को मजबूत किया. ऐसे ही मौके पर खिलाफत की मंच से भाषण देते वक्त अली बंधुओं ने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ काफी आपत्तिजनक बोल दिया और अंग्रेजी कानून के हिसाब से इसे देशद्रोह मानकर गिरफ्तार कर उनको कराची जेल भेज दिया गया.
इधर गांधीजी को दूसरा झटका लगा चौरीचौरा की घटना से, गोरखपुर के पास चौरीचौरा थाने में पुलिस वालों से नाराज होकर स्थानीय लोगों ने थाने में आग लगा दी, कई सिपाही उसमें जिंदा जल गए. ये 4 फरवरी की घटना थी, गांधीजी ने आंदोलन को हिंसात्मक रूप में तब्दील होते देखकर फौरन आंदोलन को वापस लेने का ऐलान कर दिया. इस घटना से दो बड़ी बातें हुईं, एक तो रामप्रसाद बिस्मिल, चंदशेखर आजाद, सचिन सान्याल, रोशन सिंह, अशफाकुल्लाह खान जैसे कई युवाओं का गांधीजी से मोहभंग हो गया. जो भी कांग्रेस में थे, उन्होंने उससे नाता तोड़ लिया और सबने मिलकर क्रांतिकारी गतिविधियों के जरिए ही आजादी पाने का रास्ता अख्तियार कर लिया. दूसरे अंग्रेजों को लगा कि अब गांधीजी पर लगाम कसनी जरूरी है, जिस तरह से असहयोग आंदोलन इतने व्यापक स्तर पर हुआ था, उससे ब्रिटिश अधिकारियों की नींदें उड़ गई थीं. लेकिन गांधीजी को गिरफ्तार करना आसान नहीं था, ऐसे में सुबूत चाहिए थे, तो उनके अखबारों ‘यंग इंडिया’ और ‘नवजीवन’ में लिखे लेखों को आधार बनाया गया.
अगले ही महीने यानी 10 मार्च 1922 को गांधीजी को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और अहमादाबाद के सैशन जज मिस्टर ब्रूमफील्ड की अदालत में 18 मार्च को पेश किया गया. ब्रूमफील्ड ने माना कि उनकी अदालत में आज तक इतना प्रभावशाली व्यक्ति कभी नहीं आया, जिसे उसके देश में सबसे बड़ा देशभक्त माना जाता है और उसके इतने ज्यादा समर्थक हैं,लेकिन जज का कहना था कि मैं गांधीजी को केवल एक आरोपी की तरह ही मानकर अंग्रेजी कानूनों के दायरे में परखूंगा. गांधीजी पर कुल तीन लेखों को लेकर मुकदमा हुआ था, इनमें से पहला आर्टिकल था अली बंधुओं के समर्थन का, जिसमें उन्होंने ब्रिटिश सेना में काम कर रहे भारतीय युवाओं से नौकरी छोड़ने का आव्हान किया और मुसलमानों के प्रति ब्रिटिश सरकार के रुख पर सवाल उठाया था.
दूसरा लेख गांधीजी ने लॉर्ड रीडिंग की इस पब्लिक स्पीच के जवाब में लिखा था, ‘’ I felt perplexed and puzzled by the activities of a section of the Indian community. I ask myself what purpose is served by flagrant breaches of the law for the purpose of challenging the Government and in order to compel arrest? गांधीजी ने रीडिंग की इस स्पीच का जवाब एक लेख से दिया, “We seek arrest because the so-called freedom is slavery. We are challenging the might of this Government because we consider its activity to be wholly evil. We want to overthrow the Government. We want to compel its submission to the people’s will. We desire to show that the Government exists to serve the people, not the people the Government’’.गांधीजी ने इस लेख में काफी सख्त तेवर अपनाए थे. जो अंग्रेजों के लिए भले ही देशद्रोह था, लेकिन भारतीयों के लिए देशभक्ति थी.
गांधीजी ने तीसरे लेख में लिखा था, ‘’ “No empire intoxicated with the red wine of power and plunder of weaker races has yet lived long in this world, and this ‘British Empire ” which is based upon organised exploitation of physically weaker races of the earth, and upon a continuous exhibition of brute force, cannot live, if there is a just God ruling the universe’’. गांधीजी ने यूं तो ये लेख पिछले तीन साल में अलग अलग मौकों पर लिखे थे, लेकिन बौखलाई अंग्रेजी सरकार ने गांधीजी को लम्बे समय तक जेल भेजने की योजना बनाकर इन लेखों को आधार बनाया था. इस तरह से पहले अली बंधुओं को जेल भेजकर, फिर गांधीजी को जेल भेजकर उन्होंने अपना मकसद पूरा कर लिया. गांधीजी ने अपने बचाव में सफाई देने या माफी मांगने की बजाय सरकार के आरोपों को मान लिया. गांधीजी को कुल 6 साल की सजा हुई. खिलाफत के बाद असहयोग आंदोलन भी बिखर चुका था. इधर मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास ने भी गांधीजी के जेल जाते ही बड़ा फैसला लिया, 48 साल के इतिहास में उन्होंने वो कर दिया जो लाल-बाल-पाल के जमाने में भी नहीं हुआ यानी पहली बार कांग्रेस को तोड़ दिया.
जेल में बंद गांधीजी ने कांग्रेस के स्थानीय चुनावों में लड़ने से मना कर दिया, जबकि मोतीलाल और चितरंजन चुनाव लड़ना चाहते थे, उन्होंने कांग्रेस को तोड़कर स्वराज पार्टी बना ली, इस तरह कांग्रेस पहली बार टूट गई. इधर बिस्मिल, आजाद, रोशन सिंह, अशफाकुल्लाह आदि क्रांतिकारियों ने अपनी गतिवधियां तेज कर दीं और काकोरी ट्रेन डकैती को अंजाम दे डाला. इधर गांधीजी पूरे 6 साल अगर अंदर रहते तो शायद कांग्रेस वाकई में खत्म हो जाती, लेकिन वो थोड़े नरम पड़ गए और कांग्रेस को किसी भी बड़े आंदोलन से परहेज करने को कहा. इधर जेल में उनको अंपेडिक्स की परेशानी हो गई, जिसके चलते उनकी तबियत काफी खराब हो गई. इधर विदेशी मीडिया में भी ब्रिटिश सरकार की काफी आलोचना हो रही थी. देश में कई क्रांतिकारी घटनाएं भी हो गईं, अब देश एक तरह से नेता विहीन था और अंग्रेजों के पास उनसे बात करने के लिए कोई चेहरा भी नहीं था. सो जब 12 जनवरी 1924 को गाधीजी का अपेंडिक्स का ऑपरेशन पुणे के ससून हॉस्पिटल में हुआ तो उसके बाद ब्रिटिश सरकार ने उनको छोड़ने का मन बना लिया और बाकी सजा माफी कर दी गई, यानी दो साल के अंदर ही छोड़ दिया गया.
चौरीचौरा कांड की दूसरी बरसी यानी 4 फरवरी 1924 में गांधीजी बाहर आ गए. आते ही गांधी जी ने सबसे पहले कांग्रेस को पटरी पर लाने की योजना बनाई, उसको रचनात्मक कार्य़ों की तरफ बढने की प्रेरणा दी. अहिंसा, सत्याग्रह, खादी, स्वच्छा अभियान और ग्राम स्वराज जैसे कार्यक्रमों के जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को कांग्रेस से जोड़ने की अपील की. यहां तक कि वो एक बार ही कांग्रेस अध्यक्ष बने थे, वो भी जेल से आने के ठीक बाद यानी 1924 में बेलगांव अधिवेशन में, इसी शर्त के साथ कि हर कांग्रेस प्रतिनिधि अधिवेशन में हाथ से बुनी खादी का कपड़ा पहनकर आएगा. गांधी ने इसी गिरफ्तारी के बाद से ये जो फॉर्मूला अपनाया, उसे संघर्ष-विराम-संघर्ष कहा गया यानी कि आंदोलन के बाद रचनात्मक कार्यों के जरिए आम लोगों को कांग्रेस से जोड़ना और फिर एक बड़े आंदोलन का ऐलान, उसके बाद फिर रचनात्मक कार्य़ों के जरिए अगले आंदोलन की तैयारी. असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन के बीच आप जो कई कई साल का फासला पाते हैं, वो उसकी वजह से होता था.
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