Protest Against BHU Muslim Sanskrit Professor: कोई किसी भी मजहब से आता हो, उसकी योग्यता देखिए, धर्म से आपको क्या लेना. क्या किसी खान लगाने वाले को संस्कृत पढ़ाने का लाइसेंस नहीं मिलता है. क्या डॉक्टर फिरोज खान को बीएचयू में संस्कृत पढ़ाने के लिए अपना नाम बदलना पड़ेगा. ये कैसा समाज ?
वाराणसी. काशी यूपी का एक ऐसा शहर जहां भारत के हर मजहब की खूबसूरत संस्कृति देखने को मिलती है. इसी शहर में बसी है बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी जिसमें डॉक्टर फिरोज खान को हाल ही में संस्कृत विभाग में नियुक्त किया गया. कितने सौहार्द की बात है जब कोई मुस्लिम प्रोफेसर बीएचयू में देश के भविष्य को भारत की सबसे प्राचीन भाषा से रूबरु करवाएं. इसी देश की कल्पना तो महात्मा गांधी ने की थी लेकिन अफसोस ये सच नहीं हो सका.
डॉक्टर फिरोज के संस्कृत विभाग नियुक्त होने के बाद से ही छात्रों ने विरोध शुरू कर दिया. छात्रों की वीसी से मांग है कि सहायक प्रोफेसर फिरोज खान की संस्कृत विभाग से नियुक्ति वापस ली जाए. हालांकि, यूनिवर्सिटी इस मामले में छात्रों से बात करने को जरूर तैयार नहीं है.
खान की जगह शुक्ला या शर्मा होते तो संस्कृत पढ़ाने का लाइसेंस मिल जाता
खास बात तो ये है कि संस्कृत के प्रोफेसर फिरोज पर सवाल उठाने वाले छात्रों को कई साधु संतों के साथ सोशल मीडिया पर भी कई बुद्धिजीवियों का साथ मिल रहा है. तमाम तरह के सवाल डॉ. फिरोज और उनकी शिक्षा पर उठाए जा रहे हैं. क्या उनका संस्कृत भाषा को पढ़ना कोई गुनाह था. क्या ये साल 2019 नहीं 1819 चल रही है. हम कौनसी 21वीं सदी की बात करते हैं, समझ ही नहीं आ रहा.
Video Credit- Shudra You tube Channel
अरे कोई किसी भी मजहब से आता हो, आप उसकी योग्यता देखिए ना, धर्म से आपको क्या लेना देना. क्या किसी खान लगाने वाले को संस्कृत पढ़ाने का लाइसेंस नहीं मिलता है. खैर ये तो सोच ही ऐसी बनाई जा चुकी है वरना डॉक्टर फिरोज खान को भी सबसे ज्यादा अंक पाने के बाद नियुक्ति मिली.
अब जब प्रोफेसर फिरोज का नाम 10 चयनित लोगों की टीम में सबसे ऊपर रहा. यूजीसी गाइडलाइंस के तहत चयन प्रक्रिया भी की गई तो किसी के सवाल उठाने का तो कोई सवाल ही नहीं बनता है. बाकी नौकरी से निकालने की बात तो छोड़ ही दीजिए.
हीरो या विलेन नहीं कोई डॉ. फिरोज, बस संस्कृत के शिक्षक हैं, रहने दीजिए
देश में संविधान की आंखों में धर्म की धूल नहीं झौंकी जा सकती है. ऐसा नहीं मैं कुछ ऐसा लिखकर डॉक्टर फिरोज खान को हीरो बना रहा हूं. वे शिक्षक हैं और उन्हें शिक्षक ही रहने दें, मैं उन छात्रों को ये समझाने की कोशिश जरूर कर रहा हूं.
राम हो या रहीम हो किसी भाषा का या किसी शिक्षा का कोई धर्म नहीं. न ही आप उसे बांट सकते हैं. न जाने कितने शब्द संस्कृत से अरबी के लिए इस्तेमाल होते हैं, ऐसा ही हाल दूसरी भाषाओं का भी.
संस्कृत किसी की बपौती नहीं, आप किसी को नहीं रोक सकते
किसी इंसान के मजहब को देखकर उसे शिक्षा देने से रोक देना, संविधान के साथ-साथ मानवीय रूप से भी पूरी तरह गलत है. संस्कृत भाषा किसी विशेष वर्ग के लोगों की बपौती नहीं है, ऐसे ही उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी भी नहीं है. मतलब कोई कह भी कैसे सकता है कि आप एक मुसलमान हैं इसलिए आप संस्कृत नहीं पढ़ा सकते.
अपना दर्द डॉ़क्टर फिरोज ने भी बताया है. उन्होंने बताया है कि कैसे उनके पिता और दादा ने संस्कृत के लिए जीवन लगा दिया जिसके बाद खुद उन्होंने भी संस्कृत को सबसे ज्यादा प्राथमिकता दी.
भाषा के इस पुजारी को भी अगर मजहब से तौल रहे हैं तो फिर दुनियाभर में न जाने कितने उर्दू पढ़ाने वाले हिंदू शिक्षकों को भी छोड़ देना चाहिए. उन्हें ही क्यों भाषाओं को पढ़ाना ही छोड़ देना चाहिए. जब लोग इतना नहीं समझ पा रहे कि एक प्राचीन भाषा और धर्म में कितना अंतर है तो क्या ही फायदा उस शिक्षा का.