HDFC VP मर्डर केस: युवाओं को खोखला कर हत्यारा बना रही ख्वाहिशों और मजबूरी की दीमक

हाल ही में 20 साल के सरफराज शेख के हाथों एचडीएफसी बैंक के वाइस प्रेसिडेंट सिद्धार्थ संघवी की हत्या ने लोगों को झकझोर कर रख दिया लेकिन जब सरफराज ने अपने खूनी बन जाने की वजह बताई तो मानों यूं लगा के वो अकेला नहीं हैं बल्कि हमारे आपके जैसे जाने कितने लोग ऐसी मानसिक स्थिति से रोज गुजरते हैं. शायद 20 साल के सरफराज के लिए ये बोझ संभाल पाना आसान नहीं था और उसने बदतर आर्थिक हालातों में हत्या और लूटपाट का रास्ता चुन लिया.

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HDFC VP मर्डर केस: युवाओं को खोखला कर हत्यारा बना रही ख्वाहिशों और मजबूरी की दीमक

Aanchal Pandey

  • September 11, 2018 11:46 am Asia/KolkataIST, Updated 6 years ago

मरता क्या न करता, जरूरत और मजबूरी की तलवार किसी भी भले शख्स को हत्यारा बना देती है. अपने या अपने परिवार का आजीविका चला पाने का दबाव आज 20-25 साल के युवाओं की मानसिक स्थिति को भी बदतर कर देता है. ऐसा ही कुछ हुआ मुंबई के कैब ड्राइवर सरफ़राज शेख के साथ जिसने बाइक की ईएमआई भरने के लिए एचडीएफसी वाइस प्रेसिडेंट सिद्धार्थ सांघवी के साथ लूटपाट कर उसकी हत्या कर दी. शेख सिर्फ 20 साल का है, उसके हाथ आज खून से रंगे हैं और परिवार में मातम का माहौल है. इस जरा सी उम्र में ईएमआई भरने के बोझ को संभाल पाना शायद उसके लिए आसान नहीं रहा होगा.

दरअसल, इंसान किसी भी तबके से आता हो उसकी जरूरतें और ख्वाहिश कभी खत्म नहीं होतीं. कोई खुश रहने के लिए औकात से बेहतर जिंदगी जीने की कोशिश करता है तो कोई समाज में सम्मान से जी पाने के बोझ के लिए अठन्नी की कमाई पर रुपैया खर्च करता है और जब ये संभव नहीं हो पाता तो वो खीझकर हालातों और किस्मत को दोष देता है. यहां तक तो ठीक है लेकिन इसके आगे मजबूरी का भूचाल इस कदर होता है कि वो कुछ भी कर गुजरने के नहीं चूकता.

बढ़ती आबादी पर रोजगार की कमी और जिनके पास रोजगार है उनकी कमाई मानो ऊंट के मुंह में जीरा बराबर. कहीं अचानक खबर आती है कि फलां कंपनी ने मंदी के कारण इतने हजार कर्मचारियों की छंटनी की. इसके आगे कितने घरों में मुसीबत का पहाड़ टूटा इस बात को शायद ही किसी अखबार में छोटा सा कोना मिलता हो. ऐसे में मध्यम और निचले तबके की जनता जिंदगी घिसटकर जीती है या यूं कहें काटती है. इस तरह के हालातों के डर से युवा सालों साल सरकारी नौकरी की तैयारी में जुटे रहते हैं और फिर भी कुछ हाथ न लगने की निराशा उन्हें दीमक की तरह खाए जाती है जिसका नतीजा कभी खुदखुशी होता है तो कभी एक और सरफ़राज शेख को जन्म देता है.  

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