देश-प्रदेश

PM मोदी कर सकते हैं संसद भवन का उद्घाटन, नेहरू ने शुरू की थी ये परंपरा

नई दिल्ली : संसद भवन के उद्घाटन को लेकर कई दिनों से एक अशोभनीय विवाद छिड़ गया है. कांग्रेस समेत 19 विपक्षी दलों के नेता एकजुट होकर इस आयोजन का लगातार बहिष्कार करने पर लगे हुए हैं. इस आयोजन का बहिष्कार करते हुए उन्होंने तर्क दी है कि PM मोदी द्वारा ये उद्घाटन समारोह राष्ट्रपति के पद और गरिमा का अपमान करने जैसा है. और साथ ही ये भी कहा है कि ये उद्घाटन संवैधानिक मूल्यों और परंपराओं का उल्लंघन करता है. बता दें कि सरकार की योजना के मुताबिक संसद भवन का उद्घाटन PM मोदी करने जा रहे हैं. वहीं निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार राष्ट्रपति की कोई अहम भूमिका नहीं है. और वो इस कार्यक्रम में उपस्थित भी नहीं रहेंगी.

गौर से देखें तो इस विवाद में तीन अलग-अलग पहलु हैं:

(संसद भवन उद्घाटन को लेकर विवाद तो छिड़ गया है इसे गौर से देखें तो तीन अलग-अलग पहलु दिखाई देंगे)

पहला पक्ष नीति और नैतिकता का है

ये पक्ष यह सवाल खड़ा करता है कि राष्ट्रीय महत्व जैसे आयोजन में राष्ट्रपति को बुलाना कितना आवश्यक है? हालांकि ये एक राष्ट्र से जुड़ा बड़ा आयोजन है, जिसमें अगर राष्ट्रपति महोदया शामिल होती और आमंत्रित किया जाता तो न सिर्फ इससे राष्ट्रपति पद की गरिमा की रक्षा होती. बल्कि इस आयोजन की शोभा और महत्व भी बढ़ जाता. राष्ट्रपति पद को भारतीय गणराज्य में प्रतीकात्मक मुखिया सेना के तीनों अंगों की सुप्रीम कमांडर के रूप में देखा जाता है. और मोटे तौर पर राजकाज की चीजें उनके नाम से ही चलती हैं.

संविधान और कानून व्यवस्था

भारतीय संविधान में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की भूमिका और जिम्मेदारियों के बारे में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है. दोनों के बीच अंतर भी साफ़ तौर पर स्पष्ट किया गया है. संविधान में यह साफ़ तौर पर स्पष्ट किया गया है कि राष्ट्रपति की भूमिका मुख्य रूप से प्रतीकात्मक और समारोहों के मुख्य अतिथि के रूप में है. वहीं विशेष आयोजनों और मौकों पर प्रतिमानों की रक्षा कर सकती हैं या करती हैं. एक राष्ट्रपति की जिम्मेदारी संसद में पारित विधेयकों को अंतिम मंजूरी देने की भी होती है. साथ ही अंतरराष्ट्रीय मंचों पर राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करना है.

सवाल अगर भारतीय संविधान का है तो, भारत के संविधान में इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि राष्ट्रीय महत्व रखने वाले इमारतों का उद्घाटन कौन करेगा. संविधान में कार्य विभाजन उल्लेख में ऐसी चीजों की बारीकियों को संवैधानिक संस्थाओं और सरकारों पर छोड़ दिया गया है. तब इमारतों के उद्घाटन को इतना महत्वपूर्ण नहीं माना गया था की संविधान में उसके लिए किसी निर्देश का उल्लेख किया जाए.
ऐसे में देखा जाए तो विपक्ष का ये बहिष्कार करने का दावा नैतिक तौर पर तो सही है पर वहीं वैधानिक या संवैधानिक तौर पर इसका कोई आधार नहीं है.

क्या कहती हैं ऐतिहासिक परम्पराएं

किसी देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं के संचालन में परंपराओं और पहले के हुए घटनाक्रम का महत्व तब और भी बढ़ जाता है जब संविधान से किसी बात को लेकर कोई स्पष्ट दृष्टि न मिल रही हो या फिर किसी तरह का कोई भ्रम पैदा हो रहा हो, कुछ ऐतिहासिक परम्पराएं दिशासूचक का काम करते है.

मिसाल और उद्धरण के तौर पर देश के आजादी के समय यानी 14-15 अगस्त, 1947 की रात, जब आज़ादी की घोषणा होने जा रही थी तब उस भाषण को “नियति से साक्षात्कार” प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पढ़ा था. अगर ये भाषण स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे बड़े नेता को पढ़ना होता, तो ये जिम्मेदारी मोहनदास करमचंद गाँधी के हिस्से में आती. उस वक़्त संसद का सारा काम संविधान सभा ही कर रही थी. और तब डॉ. राजेंद्र प्रसाद एक महत्वपूर्ण पद पर थे जो की 1960 में राष्ट्रपति बने थे. लेकिन आजादी की घोषणा की ज़िम्मेदारी नेहरू ने संभाली. इससे ये साफ़ जाहिर होता है कि किसी भी समारोह में राष्ट्र का नेतृत्व प्रधानमंत्री भी कर सकते हैं, और करते भी रहे हैं.

 

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Anamika Singh

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