नई दिल्ली. बातचीत में बड़ों के मुंह से सुनते आ रहे हैं कि आजकल के गानों में वो बात नहीं रही जो हमारे जमाने में थी. हम इस बात को जनरेशन गैप कहकर भूल जाते हैं लेकिन मौजूदा हालातों को देखें तो इस बात में सच्चाई दिखाई पड़ रही है. बॉलीवुड फिल्मों की जान कहे जाने वाले हिंदी गाने दशकों से लोगों की जुबान पर रहे हैं. भले ही हम भारतीय कितने ही पश्चिमी क्यों न हो जाएं लेकिन आज भी हमारे पांव तब ही जमकर थिरकते हैं जब गाना बॉलीवुड हो. यकीन मानिए फिल्मों के कुछ दिवाने बॉलीवुड को इस हद तक फॉलो करते हैं कि उन्हें सैकड़ों गाने बकायदा रटे हुए हैं. लेकिन अब जब रीमिक्स का दौर चल पड़ा है तो ऐसे में ये दिवाने भला क्यों न हताश हों. यानि हम घूमफिरकर वही गाने सुन रहे हैं जिन्हें पहले किसी और धुन के साथ सुना जा चुका है? तो क्या हमारे पास गीतकार खत्म हो गए हैं?
ये सवाल मैं किसी और से नहीं बल्कि बॉलीवुड इंडस्ट्री के उन दिग्गजों से पूछ रही हूं जो इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि भारत में गुल्जार, जावेद अख्तर, और ए. आर. रहमान जैसे न जाने कितने ही हीरे सरीखे गीतकार हैं जिनके लिखे गाने अमर हो गए. जाने कितने ही राष्ट्रीय पुरस्कार पा चुके इन गीतकारों की कलम में आज भी वो जादू बरकरार है फिर क्यों बार-बार हमारे सामने पुराने गानों को ताजा बनाकर परोस दिया जाता है? इस सवाल का ये जवाब अस्वीकार्य है कि नई पीढ़ी की पसंद ही ऐसी है क्योंकि गानों को लेकर जनरेशन का जायका बिगाड़ने में इन जबरदस्ती तैयार किए जा रहे रिमिक्स गानों का बड़ा हाथ है.
बॉलीवुड बताए कि क्या वजह है जो हिंदी फिल्मी गानों में कभी किसी पंजाबी गाने के लिरिक्स डाल दिए जाते हैं तो किसी बंगाली गाने की धुन? क्यों कभी किसी नए गाने में पुराने गाने का मुखड़ा उठाकर जोड़ दिया जाता है तो कभी अंतरा? ऐसे में इन क्षेत्रीय भाषा या पुराने गानों से अंजान युवा इसे नया मानकर जस के तस स्वीकार कर लेता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे गीतकारों ने आज के युवा के अनुसार गाने लिखने से इंकार कर दिया है? या फिर बड़े गीतकारों की बड़ी फीस देने से बचने के लिए रिमिक्स का रास्ता चुना जा रहा है? मसला जो भी हो इससे न सिर्फ देश की अद्भुत प्रतिभाएं व्यर्थ रह जा रही है बल्कि बॉलीवुड में संगीत का स्तर भी गिरता जा रहा है.
साल 1988 में आई फिल्म ‘कयामत से कयामत’ तक के गाने ‘ए मेरे हमसफर’ को उदित नारायण और अलका याज्ञनिक ने गाया था, गाना सूपरहिट था. इसके सालों बाद 2012 में रिलीज हुई फिल्म ‘आल इज वेल’ में इसे नए अंदाज में मिथुन और तुलसी ने गा दिया. इस बात में कोई शक नहीं कि मिथुन और तुलसी बेहद ही शानदार गायक हैं लेकिन क्या लिरिक्स नए नहीं होने चाहिए थे? क्या हमारे सिनेमा में नए गानों का अकाल पड़ गया है.
1980 की फिल्म ‘कुर्बानी’ में अमित कुमार और कंचन ने ‘लैला मैं लैला’ गाना गाया था. जीनत अमान पर फिल्माए गया ये गाना आज भी लोगों की जहन में है. लेकिन कुछ समय पहले आई ‘रईस’ में इस गाने को पव्नी पांडे ने दोबारा गाया. इसके अलावा साल 1990 में ‘थानेदार’ फिल्म रिलीज हुई थी. उस समय फिल्म के गाने ‘तम्मा तम्मा’ ने खूब धूम मचाई थी. लेकिन हाल ही में आलिया भट्ट और वरुण धवन की फिल्म ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ में थोड़े से बदलाव के साथ गाने को फिर पेशकर काम निबटा दिया गया.
गानों के बिगड़ते स्तर को लेकर कई गीतकारों में भी नाराजगी नजर आती है. बीते 3 मार्च को मुंबई में देर रात 63 वें जिओ फिल्मफेयर अवार्ड का आयोजन किया गया. इस बेहरीन शाम में फिल्म ‘जग्गा जासूस’ का गाना ‘उल्लू का पट्ठा’ के लिए अमिताभ भट्टाचार्य को यह अवार्ड दिया गया. अमिताभ को अवॉर्ड मिलने पर जाने-माने गीतकार नीलेश मिसरा भड़क गए. उन्होंने अपने एक ट्वीट में लिखा ‘प्रिय अमिताभ भट्टाचार्य… आप एक बेहतरीन कलाकार हैं, और आपके नाम बहुत अच्छे गाने भी हैं. लेकिन आपका गाना ‘उल्लू का पट्टा’ के लिए फिल्मफेयर दिया गया इस बात पर आपको खुश नहीं, बल्कि ऐतराज होना चाहिए था, क्योंकि आपके दूसरे गानों और बाकि अन्य गीतकारों के गानों को इससे न्याय नहीं मिला.’
हॉलीवुड जैसी अन्य फिल्म इंडस्ट्रियों की तुलना में बॉलीवुड इसलिए अलग और बेहद खास है क्योंकि यहां फिल्मों में गानों का होना दाल में किसी तड़के की तरह जरूरी होता है. यहां तक कि कई ऐसी फिल्में हैं जो अपने बेहतरीन गानों के कारण खूब चलीं. ऐसे में अगर बॉलीवुड में गानों को ही दरकिनार कर दिया जाएगा तो क्या इंडस्ट्री अपनी पहचान नहीं खो देगी?
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