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Narendra Modi Government Decision On RCEP: आरसीईपी पर नरेंद्र मोदी सरकार का फैसला राष्ट्रीय हित में, शामिल होने पर अर्थव्यवस्था को हो सकता था नुकसान

Narendra Modi Government Decision On RCEP: रीजनल कॉम्प्रहेंसिव इकनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) के प्रस्तावित समझौते से भारत को बाहर रखने का मोदी सरकार का फैसला राष्ट्र के हित में है वो भी तब जब सरकार ने 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का लक्ष्य तय कर रखा हो. और ये सब तभी संभव है जब बागवानी, डेयरी फार्मिंग, दुग्ध प्रसंस्करण, कृषि वानिकी, मधुमक्खी पालन, मत्स्य पालन से किसानों की आय में वृद्धि करने की तरकीब पर अमल किया जाएगा. इस सबके बीच अगर हम ‘आरसीईपी समझौता’ के चक्र में फंस जाते तो देश के ऊपर मुश्किलों का पहाड़ टूट जाता. इस लिहाज से भारत सरकार का यह फैसला काफी अहम है.

एशिया के 16 प्रमुख देशों के साथ दुनिया के सबसे बड़े व्यापारिक समझौते के बारे में पीएम मोदी ने कहा भी कि आरसीईपी करार का मौजूदा स्वरूप पूरी तरह इसकी मूल भावना और इसके मार्गदर्शी सिद्धान्तों को परिलक्षित नहीं करता है. इसमें भारत द्वारा उठाए गए मुद्दों और चिंताओं का संतोषजनक समाधान नहीं किया गया है. ऐसे में भारत के लिए आरसीईपी समझौते में शामिल होना संभव नहीं है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इसको लेकर मोदी सरकार पर काफी आक्रामक रूख पहले ही दिखा चुकी थी. उन्होंने कहा था कि सरकार इसके जरिए पहले ही बुरी स्थिति का सामना कर रही भारतीय अर्थव्यवस्था को बड़ा नुकसान पहुंचाने की तैयारी में है. अगर सरकार इस समझौते पर दस्तखत करती है तो इसका हमारे किसानों, दुकानदारों, छोटे और मझोले इकाइयों पर गंभीर दुष्परिणाम होंगे.

दरअसल, भारत ने इस समझौते से पहले कई मुद्दे और चिंताएं सामने रखी थीं पर उसका ठोस समाधान नहीं निकला. भारत की पहली और सबसे बड़ी चिंता तो यही थी कि चीन समेत इन देशों के साथ पहले से ही बड़ा व्यापार घाटा है. इस समझौते के बाद आयात और ज्यादा बढ़ने की स्थिति में भारतीय उद्योगों और किसानों के हित प्रभावित हो सकते थे. मालूम हो कि आरसीईपी में आसियान के 10 सदस्य देशों के अलावा चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, भारत और न्यू जीलैंड शामिल हैं. इन देशों में दुनिया की आधी आबादी रहती है और ग्लोबल जीडीपी की बात करें तो इसमें इनका 30 प्रतिशत का योगदान है. आरसीईपी (रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकनॉमिक पार्टनरशिप) की बात करें तो यह दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार ब्लॉक स्थापित करने की एक कोशिश है जिसमें 16 देश शामिल हैं.

भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और आसियान देशों के अलावा ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड 2012 से इस मसले पर लगातार बातचीत करते आ रहे हैं। इसके तहत मुख्य बिंदुओं में 90 प्रतिशत सामानों पर आयात शुल्क घटाया जाना या खत्म किया जाना है. चीन के मामले में भारत 80 प्रतिशत सामान पर आयात शुल्क शून्य करने के पक्ष में था. इसके अलावा सर्विस, ट्रेड, निवेश बढ़ाना और वीजा नियमों को आसान बनाने के संबंध में भी भारत ने अपने विचार रखे थे. लेकिन ऐसा क्या हुआ कि भारत को इस समझौते से पीछे हटना पड़ा?

असल में भारत का चीन समेत इन तमाम देशों से आयात पहले ही काफी ज्यादा है और निर्यात काफी कम है. इस समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद इस बात की आशंका प्रबल हो जाती कि चीन से आयात काफी बढ़ जाएगा और इससे भारत के हितों की रक्षा करना संभव नहीं रह जाएगा. अगर आप आंकड़ों पर गौर करें तो सिर्फ 2019 में भारत का आरसीईपी देशों के साथ व्यापार घाटा 105 अरब डॉलर का है. इसमें 54 अरब डॉलर का घाटा सिर्फ चीन के साथ है. दूसरी तरफ इस समझौते का भारत में राजनीतिक विरोध भी काफी हो रहा था. डेयरी उद्योग से जुड़े किसान इस व्यापार समझौते का अत्यधिक विरोध कर रहे थे. भाजपा और आरएसएस से जुड़ी संस्था स्वदेशी जागरण मंच भी इसके खिलाफ लगातार आवाजें उठा रही थी. निश्चित रूप से समझौते में भारत के शामिल होने से चीन से मैन्युफैक्चर्ड गुड्स और न्यूजीलैंड से डेयरी प्रॉडक्ट्स की भारत में डंपिंग होगी, जिससे घरेलू उत्पाद व उत्पादकों को सीधे तौर पर नुकसान पहुंचेगा. अगर यह समझौता होता तो मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी ‘मेक इन इंडिया’ अभियान को भी गहरा धक्का लगता.

इसके अलावा नॉन-टैरिफ बैरियर्स की बात करें तो इसको लेकर भी समझौते में कोई विश्वसनीय प्रतिबद्धता नहीं है. भारत ने आयात शुल्क बढ़ने की स्थिति में सुरक्षा की गारंटी मांगी थी जिसपर ध्यान नहीं दिया गया. बाजार की पहुंच को लेकर कोई मजबूत भरोसा नहीं मिलना भी भारत के इस समझौते में शामिल नहीं होना बड़ी वजह है. इस समझौते में सेवाओं को लेकर भी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया जबकि भारत ने इसपर काफी जोर दिया था. इन तमाम तथ्यों पर गौर करने के बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बैंकॉक में आरसीईपी सम्मेलन में अपने वक्तव्य में साफ तौर पर कह दिया, चूंकि इस समझौते में भारत की चिंताओं और उसकी तरफ से उठाए गए मुद्दों का संतोषजनक समाधान पेश नहीं किया गया है. लिहाजा भारत का आरसीईपी में शामिल होना संभव नहीं है.

क्या है आरसीईपी और भारत इसमें शामिल होता तो क्या होता?

आरसीईपी एक व्यापारिक समझौता (ट्रेड एग्रीमेंट) है जो सदस्य देशों को एक दूसरे के साथ व्यापार में सहूलियत प्रदान करता है. समझौते के तहत सदस्य देशों को आयात और निर्यात पर लगने वाला टैक्स नहीं भरना पड़ता है या बहुत कम भरना पड़ता है. इस एग्रीमेंट पर आसियान के 10 देशों के साथ-साथ छह अन्य देश, जिसमें भारत भी शामिल है, दस्तखत करेंगे. यह एग्रीमेंट अगर अमल में आया तो यह दुनिया के 3.4 अरब लोगों के बीच एक व्यापारिक समझौता होगा जो विश्व का सबसे बड़ा फ्री ट्रेड पैक्ट होगा. भारत का व्यापार घाटा आरसीईपी के ज्यादातर सदस्य देशों के साथ है और समझौते के बाद भारत पर बहुत ज्यादा बोझ बढ़ जाएगा. किसी देश के साथ व्यापार घाटे का मतलब यह है कि हम उस देश से आयात ज्यादा करते हैं और निर्यात कम. ऐसे में यदि आयात टैक्स घटता है तो यह व्यापार घाटा और बढ़ सकता है.

भारतीय उद्योग जगत ने भी आरसीईपी समूह में चीन की मौजूदगी को लेकर चिंता जताई थी. डेयरी, धातु, इलेक्ट्रॉनिक्स और रसायन समेत विभिन्न सेक्टर्स ने सरकार से इन क्षेत्रों में शुल्क कटौती नहीं करने का आग्रह किया था. उद्योग जगत को इस बात की आशंका है कि आयात शुल्क कम या खत्म होने की स्थिति में विदेशों से अधिक मात्रा में माल भारत आएगा और स्थानीय उद्योगों पर इसका बुरा असर होगा. अमूल ने भी डेयरी उद्योग को लेकर चिंता जाहिर की थी. योजना के मुताबिक, भारत प्रस्तावित समझौते के तहत चीन से आने वाले करीब 80 प्रतिशत उत्पादों पर शुल्क घटा या पूरी तरह से हटा सकता है. भारत इसी प्रकार ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से आयातित 86 प्रतिशत उत्पादों और आसियान, जापान और दक्षिण कोरिया से आयात होने वाले 90 प्रतिशत उत्पादों पर सीमा शुल्क में कटौती कर सकता है. आयात होने वाले सामानों पर शुल्क कटौती को 5, 10, 15, 20 और 25 साल की अवधि में अमल में लाया जाना है. भारत का 2018-19 में आरसीईपी के सदस्य देशों में से चीन, दक्षिण कोरिया और आस्ट्रेलिया सहित 11 देशों के साथ व्यापार में घाटा रहा है.

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Aanchal Pandey

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