किसान आंदोलन के मामले में केंद्र सरकार के आश्वासन के बाद किसान थोड़ा नरम पड़े हैं. हालांकि सरकार ने किसानों को कर्ज माफी, पेंशन, मुफ्त बिजली, चीनी की न्यूनतम कीमत 40 रुपये करने तथा स्वामीनाथन कमेटी की पूरी रिपोर्ट तत्काल लागू करने पर कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया है और देती भी कैसे क्योंकि चुनावी साल में सरकार की सबसे बड़ी चुनौती है अपनी परियोजनाओं को पूरा करना.
केंद्र सरकार के आश्वासन के बाद फिलहाल किसान आंदोलन थोड़ा नरम पड़ गया है. सरकार ने किसानों की कुछ मांगें मसलन कृषि उपकरणों को 5 फीसद जीएसटी के दायरे में रखने, डीजल से चलने वाले पुराने ट्रैक्टरों पर से एनजीटी का प्रतिबंध हटाने, किसानों के उत्पाद को कम कीमत या गलत तरीके से बेचने पर रोक के लिए कानून बनाने व फसल बीमा को किसान केंद्रित करने जैसी मांगे शामिल है लेकिन कर्ज माफी, पेंशन, मुफ्त बिजली, चीनी की न्यूनतम कीमत 40 रुपये करने तथा स्वामीनाथन कमेटी की पूरी रिपोर्ट तत्काल लागू करने पर वो कोई ठोस आश्वासन नहीं दे पाई.
देती भी कैसे चुनावी साल में सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती बड़ी परियोजनओं को पूरा करने, आयुष्मान योजना लागू करने, उज्जवला का दायरा बढ़ाने और सौभाग्य सरीखी योजनओं के जरिये जहां एक तरफ वोट बैंक को सहेजने की चुनौती है तो दूसरी तरफ राजकोषीय घाटा 3.5 फीसद रखने की. रुपया रोज गोते लगा रहा है और डीजल-पेट्रोल की बढ़ती कीमतें रुकने का नाम नहीं ले रही. चहुंओर हाहाकार मचने के बावजूद नौ बार एक्साइज टैक्स बढ़ाने वाली सरकार उसे इसलिए नहीं घटा पा रही है कि चालू परियोजाओ के लिए पैसा कहां से आएगा. बैंकों का बढ़ता एनपीए खतरे का निशान कब का पार कर चुका है और वह 10.5 लाख करोड़ तक जा पहुंचा है.
अपने देश में 13.78 करोड़ कृषि भूमि धारकों में से लगभग 11.71 करोड़ छोटे और मझोले हैं जिनमें से अधिकांश बैंकों और साहूकारों के कर्ज तले बुरी तरह दबे पड़े है. पिछले दस सालों में जिन तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है उसमें से ज्यादातर इसी श्रेणी के हैं. देश की आजादी के समय जीडीपी में जिस कृषि को योगदान 52 फीसद था वो अब घटकर महज 16-17 फीसद रह गया है. 7 फरवरी 2017 को कृषि मंत्रालय ने लोकसभा में नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन की रिपोर्ट के हवाले से बताया था कि देश में में 9.02 करोड़ किसान परिवार हैं.
इसी क्रम में राज्यसभा में 11 अगस्त 2017 को अतारांकित प्रश्न 2897 जवाब में बताया गया कि एनएसएसओ के मुताबिक 31 मार्च 2017 को किसानों पर 58.4 प्रतिशत संस्थागत ऋण है जबकि 41.6 प्रतिशत ऋण गैर-संस्थागत. इस तरह किसानों पर कुल 18.25 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है जिसमें से संस्थागत ऋण 10.657 लाख करोड़ और 7.6 लाख करोड़ रुपये गैर संस्थागत. भारत सरकार का कुल बजट लगभग 25 लाख करोड़ है लिहाजा उसके सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वह इतनी बड़ी रकम कैसे माफ करे.
मौजूदा मोदी सरकार ही नहीं किसी भी सरकार के बूते की बात नहीं है कि वह इस रकम को माफ कर दे। इसमें कोई दो राय नहीं कि केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें प्रकारांतर से ऐसा करती रही है, वीपी सिंह व मनमोहन सरकार ने ऐसा किया था. 2009 के आम चुनाव में यूपीए सरकार को इसका लाभ भी मिला लेकिन कर्जमाफी करते समय मनमोहन सरकार ने सीमाओं का ध्यान रखा था और 67 हजार करोड़ का ही ऋण माफ किया था. अपने देश में तीन मुद्दे नये राज्यों का गठन, विशेष राज्य का दर्जा और कर्जमाफी, ऐसे हैं जिस पर निर्णय लेना बर्रे के छते में हाथ डालने जैसा है.
गोरखपुर, फूलपूर के बाद कैराना व नूरपुर उपचुनाव में मात खाने के बाद केंद्र व प्रदेश सरकार कोई जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं है लिहाजा वह किसानों का मान मनौव्वल कर रही है और यथासंभव मदद का भरोसा दे रही है. गन्ना किसानों के लिए उसने पैकेज भी जारी किया था और योगी सरकार ने भी कई रियायतें दी थी लेकिन किसान उसे ऊंट के मुंह में जीरा मान रहे हैं. इस आंदोलन का राजनीतिक पहलू भी है, किसानों की नाराजगी विपक्ष को सूट कर रहा है इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, रालोद प्रमुख चौधरी अजित सिंह, सपा प्रमुख अखिलेख यादव तथा बसपा सुप्रीमो मायावती इसे हवा दे रही हैं.
चौधरी अजित सिंह तो धरनास्थल पर किसानों से मिलने भी पहुंचे थे, यह बात अलग है कि वहां जाकर उनकी तबियत खराब को गयी थी. जब ये सत्तानशीं थे तब ये भी किसानों की मांगें पूरी नहीं कर पाए थे. दूसरे यह कि पच्चीस सालों तक किसानों की रहनुमाई करने वाले चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे नरेश टिकैत की अगुआई में यह पहला बड़ा आंदोलन है और किसानों को संदेश देने का मौका भी जिसे वह हरगिज गंवाना नहीं चाहेंगें, बेशक सरकार फंसती है तो फंसे.