नई दिल्ली। वर्तमान के चुनावी आंकड़े बहुत कुछ बयान करते हैं, इस दौरान हुए चुनावों में यही देखने को मिला कि, ग्रामीण मतदाता चुनाव मे बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते रहे हैं जबकि शहरी वोटर चुनावी प्रक्रिया से पीछे हट रहा है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि, किसी पार्टी को जिताने मे ग्रामीण मतदाताओं का जितना हाथ है उतना शहरी मतदाताओं का नहीं है वही सरकारे बना रहे हैं और बदल रहे हैं। हिमाचल और गुजरात के विधानसभा चुनावों से यह स्पष्ट हो गया कि, शहरी मतदाता लगातार चुनावी प्रक्रिया से बाहर जा रहे हैं।

सूरत और शिमला में हुआ ऐसा

बीते दिनों हिमाचल प्रदेश और गुजरात के विधानसभा चुनावों मे शहरी मतदाताओं नें 2017 के मुकाबले 10 फीसदी कम मतदान किया है। वहीं दूसरी ओर दिल्ली के नगर निगम चुनावों में भी यही आंकड़ा देखने को मिला है। दिल्ली नगर निगम चुनावों में शहरी और धनी क्षेत्रों की आबादी ने वोट डालने में किसी भी प्रकार की रूचि नहीं दिखाई है। बल्कि स्ल क्लस्टरों और पुनर्वास कालोनियों में इन क्षेत्रों के मुकाबले मतदान ज्यादा देखा गया।
चुनाव के दिन शहरी मतदाताओं को मतदान बूथ तक पहुंचाने के लिए निर्वाचन आयोग की सभी कवायदें असफल नज़र आ रही हैं, सके तमाम प्रयास भी विफल होते ही दिख रहे हैं। 50,60 और 70 के दशक में ग्रामीण मतदाताओं के मुकाबले शहरों में निवास करने वाले लोग अधिक से अधिक मतदान करते थे। लेकिन अब ग्रामीण मतदाताओं नें शहरी मतदाताओं को पछाड़ दिया है।

क्या है इसकी वजह?

शहरी वोटरों के मतदान केंद्र तक न पहुंचने के पीछे कई अहम कारण हैं यदि जानकारों की मानें तो संपन्न शहरी लोक चुनाव के बारे में ज्यादा चिंता नहीं करते हैं। वहीं दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्र जहाँ 70 फीसदी आबादी निवास करती है। वहां पर मतदान करना एक सामूहिक गतिविधि बन गया है और वह लोग बदलाव लाने या सरकार को बनाए रखने के लिए वोट करते हैं।