नई दिल्ली. हर कोई हैरत जता रहा है कि प्रणब मुखर्जी संघ प्रमुख के बुलाने पर आरएसएस के नागपुर के कार्यक्रम में क्यों जा रहे हैं? वो भी ऐसे कार्यक्रम में जिसे संघ का एक तरह से सालाना सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम माना जाता है, दशहरा रैली जैसा ही. इस दिन आरएसएस के तृतीय वर्ष के वर्ग को पूरा करने वाले कार्यकर्ता एक तरह से प्रचारक में तब्दील होकर देश के अलग अलग कोनों में भेजे जाने से पहले आखिरी दिन प्रशिक्षण वर्ग के समापन पर मिलते हैं. पहले और दूसरे साल के प्रशिक्षण वर्ग दो पडोसी जिलों या प्रांतों में हो जाते हैं, लेकिन तीसरा वर्ग नागपुर के संघ मुख्यालय में ही करना जरूरी होता है.
तो देश भर में हर संघ शुभचिंतक के मन में सवाल भी है कि अगर ऐसे मौके पर जन्मजात कांग्रेसी रहे प्रणव मुखर्जी संघ को लेकर कुछ उलटा सीधा बोल गए तो कितनी किरकिरी हो सकती है, वहीं कांग्रेस समर्थक या बीजेपी विरोधियों को लगता है कि प्रणब मुखर्जी के संघ के शिविर मे जाने से संघ की विरोधियों और आम जनता के बीच स्वीकार्यता बढ़ेगी.
ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर इतनी हैरत क्यों? जबकि गांधीजी संघ शिविर मे जा चुके हैं, नेहरूजी संघ को 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में बुला चुके हैं? लेकिन अगर आप प्रणव मुखर्जी के बारे में कुछ और बातें जान लेंगे तो आपकी हैरत शर्तिया तौर पर कम हो जाएगी.
आपको ये जानकर हैरत होगी कि कांग्रेस को लेकर प्रणब मुखर्जी के मन में ऐसा कोई लगाव नहीं रहा, जैसे बाजपेयी या आडवाणी के मन में जनसंघ या बीजेपी के लिए रहा कि किसी और पार्टी में जाएंगे ही नहीं. आपको जानकर ताज्जुब होगा कि प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के अलावा और दो राजनीतिक पार्टियों से जुड़े रह चुके हैं.
जबकि एक पार्टी तो खुद उन्होंने अपने कंधों पर खड़ी हुई थी, जब राजीव गांधी के पीएम बनने के चलते उनको किनारा कर दिया गया था. हालांकि वो बाद में कांग्रेस में आ गए, लेकिन पीएम ना बन पाने की टीस उनके मन में ही रही. उनके राजनीतिक कैरियर को थोड़ा जान लीजिए, प्रणब मुखर्जी के पिता 1920 से ही कांग्रेस से जुड़े हुए थे. काफी बार जेल भी गए.
प्रणव छात्र जीवन में ही लॉ कॉलेज की स्टूडेंट यूनियन के चेयरमेन चुने गए. लेकिन वो कांग्रेस के बजाय पूर्व कांग्रेस नेता अजय मुखर्जी की नई पार्टी बांग्ला कांग्रेस से जुड़ गए. अजय मुखर्जी ने कामराज योजना के तहत अपने मंत्रीपद से इस्तीफा देकर पश्चिम बंगाल कांग्रेस अध्यक्ष तो संभाल लिया था, लेकिन सिंडिकेट के नेता अतुल्य घोष के ही हाथ में ताकत थी. अजय मुखर्जी ने नाराज होकर 1966 में नई पार्टी बांग्ला कांग्रेस बना ली और प्रणव मुखर्जी भी उससे जुड़ गए, उसी साल उनके पिता ने कांग्रेस की सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया.
इस तरह कांग्रेस के विरोधी के तौर पर प्रणब मुखर्जी की पहली ही पारी शुरू हुई थी, दिलचस्प बात है कि संयुक्त मोर्चा का सुझाव भी प्रणव दा ने ही पहली बार अजय मुखर्जी को दिया था. प्रणब मुखर्जी ने अपना वो सुझाव अपनी बायोग्राफी में लिखा है, ‘’अजय दा, अगर हम कांग्रेस को पराजित करना चाहते हैं तो हमें सभी दलों को एक करना होगा. यदि हम एक संयुक्त मंच से चुनाव लडेंगे तो कांग्रेस को परास्त कर सकते हैं’’.
तब 1967 में अजय मुखर्जी और ज्योति बासु के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल मे पहली बार संयुक्त मोर्चा सरकार का गठन किया गया. ये दोनों अलग अलग मोर्चों की अगुवाई कर रहे थे. ज्योति बसु की अगुवाई वाले मोर्चे यूएलएफ में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी), सीपीआईएम, रेवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, द रेवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी औस सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर नाम की पार्टियां शामिल थीं.
तो अजय मुखर्जी वाले मोर्चे पीयूएलएफ में बांग्ला कांग्रेस, फॉरवर्ड ब्लॉक, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) शामिल थे. पीयूएलएफ को 63 सीटें मिलीं जबकि यूएलएफ को 68 सीटें मिलीं दोनों ने मिलकर एक 18 सूत्रीय कार्यक्रम बनाया, एक तरह से सरकार चलाने के लिए कॉमन मिनिमम प्रोग्राम.
लेकिन अजय मुखर्जी साथी दलों से परेशान रहे, कांग्रेस ने उनको चारा फेंका. लेकिन वो राजी नहीं हुए तो उनकी ही पार्टी के प्रफुल्ल घोष को कांग्रेस ने कई विधायकों के साथ तोड़ लिया और प्रफुल्ल को रातों रात सीएम पद की शपथ दिलवा दी. हालांकि बवाल के बाद राष्ट्रपति शासन लगा और दोबारा चुनाव में फिर से अजय मुखर्जी की संयुक्त मोर्चा सरकार सत्ता में आई.
प्रणव मुखर्जी उनके दाएं हाध बने रहे. जब 1962 की हार के बाद केन्द्रीय रक्षा मंत्री रहे वीके कृष्णा मेनन ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर मिदनापुर से लोकसभा का चुनाव लड़ा तो बांग्ला कांग्रेस का दामन थामा और उनके इलेक्शन एजेंट थे प्रणव मुखर्जी और उन्हें शानदार जीत दिलाने के बाद वो इंदिरा गांधी की नजरों में भी आ गए.
नतीजा ये हुआ कि इंदिरा ने उनके बारे में पूरी जानकारी करवाई, पिताजी के कांग्रेस कनेक्शंस के बारे में जाना और फौरन प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस में शामिल होने का न्यौता दिया और राज्यसभा की टिकट दे दी. फिर तो जब तक इंदिरा जीवित रहीं, प्रणब मुख्रर्जी ने उनका दामन नहीं छोड़ा.
उसके बाद वो लगातार पांच बार राज्यसभा से कांग्रेस सदस्य चुने गए. धीरे धीरे वो इंदिरा के इतने ज्यादा करीबी हो गए कि इंदिरा की गैरमौजूदगी में उन्हें केबिनेट की अध्यक्षता करने का भी अधिकार मिल गया था. उन्हें इंडस्ट्रियल प्लानिंग का जूनियर मिनिस्टर बना दिया गया था. फायनेंस के मामलों में मुखर्जी को महारथ हासिल थी.
मुखर्जी ने अपने विभाग के मंत्री के साथ उन दिनों से ही ऑपरेशन फॉरवर्ड शुरू कर दिया था, जो भारत को लिबराइजेशन की तरफ ले जाने की प्रक्रिया थी. मनमोहन सिंह को रिजर्व बैंक का गर्वनर बनाना, आईएमएफ से भारत के सबसे बड़े लोन को सैटल करना, तमाम मुश्किलों से इंदिरा को बाहर निकालना, मुखर्जी लगातार इंदिरा के करीबी होते गए और वो खुद को इंदिरा का उत्तराधिकारी समझने लगे थे.
इंदिरा की मौत के बाद उनके पास अपने समकालीनों में सरकार चलाने का शायद सबसे ज्यादा तजुर्बा था. उन्हें लगा था कि शायद उनको मौका भी मिलेगा, राजीव गांधी से दूरी भी लोगों की नजरों से छुपी ना रह सकी. अलग अलग कई वजहें बनीं, जिसके चलते प्रणव दा साइडलाइन होते गए. उनको बंगाल की प्रांतीय राजनीति को देखने के लिए भी कहा गया.
ऐसे में प्रणब मुखर्जी ने वही फैसला लिया जो 1980 में एके एंटोनी, 1981 में शरद पवार और जगजीवन राम और 1984 में शरत चंद्र सिन्हा ले चुके थे यानी नई पार्टी शुरू करने का, जबकि इलेक्ट्रोरल पॉलिटिक्स का उनको खास तजुर्बा नहीं था. वो अपने जीवन में तब तक कभी लोकसभा के लिए भी नहीं चुने गए थे, पहला लोकसभा चुनाव उन्होंने उसके 18 साल बाद यानी 2004 में जीता था. उन्होंने अपनी एक क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी बंगाल के लिए बनाई, नाम रखा ‘राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस’.
हालांकि उन्हें तीन साल के अंदर ही समझ में आ गया कि जमी जमाई पार्टी की बनी हुई सरकार में मंत्रालय चलाना अलग काम है और नई पार्टी खड़ी करना बिलकुल अलग. उनको लगा कि वो बीस साल पीछे हो गए हैं. 1987 के बंगाल विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी की बुरी तरह हार हुई, उनको समझ आ गया कि मैग्नेटिक लीडर होना भी, भीड़ खींचना भी एक कला है, जो उनके बस की बात फिलहाल तो नहीं, जो बाद में ममता ने उसी पश्चिम बंगाल में कर दिखाया.
इधर राजीव गांधी के नौसिखुआ दोस्तों को भी समझ आ गया था कि जिन कामों में प्रणव मुखर्जी को महारत हासिल थी, उसकी एबीसीडी भी उन्हें नहीं आती. ऐसे में दोनों के बीच सुलह की कोशिशें शुरू हुईं और तीन साल बाद यानी 1989 में प्रणव दा ने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय का ऐलान कर दिया.
राजीव की मौत के बाद कमान जब नरसिम्हा राव के हाथों आई तो राव ने प्रणब मुखर्जी की प्रतिभा का सम्मान करते हुए उन्हें प्लानिंग कमीशन का डिप्टी चेयरमेन बना दिया और बाद में एक्सटर्नल अफेयर मिनिस्टर. प्रणब मुखर्जी की गाड़ी फिर से लाइन पर आ गई, उनकी समझ में आ गया कि गांधी फैमिली के पास मास सपोर्ट है और उनसे बिगाड़ने में कोई फायदा नहीं.
उन्हें इस देश ने प्राइम मिनिसल्टर की पोस्ट छोड़कर सभी दूसरी ताकतवर पोस्ट्स से नवाजा और आडवाणीजी की तरह प्रणव दा भी पीएम की पोस्ट से महरूम ही रहे. ऐसे में जो भी प्रणब मुखर्जी की कांग्रेस के इतर इन दो राजनीतिक पारियों के बारे में नहीं जानते, उनके लिए संघ के कार्यक्रम में प्रणव दा का जाना हैरानी भरा हो सकता है.
वैसे भी प्रणब दा काफी प्रोफेशनल हैं, जिस पार्टी में भी रहे, उसके लिए कभी असहज जैसी स्थिति पैदा नहीं की. यहां तक विरोधी भी उनका सम्मान करते हैं. खुद शिवसेना ने राष्ट्रपति पद पर उनकी उम्मीदवारी को समर्थन किया था. जबकि मोदी तो कई बार उनकी तारीफ कर चुके हैं.
राष्ट्रपति रहते वो मोदी को केवल एक बयान से असहज कर सकते थे, लेकिन राष्ट्रपति रहने के दौरान उन्होंने ऐसी स्थिति कभी पैदा नहीं की. अपनी बायोग्राफी में भी उन्होंने संघ के बारे में ऐसा कुछ नहीं लगा, जिससे लगता हो कि वो संघ से नफरत करते हैं. उससे लगता तो नहीं कि वो संघ को असहज करने वाला कोई बड़ा बयान उनके कार्य़क्रम में देंगे.
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