नई दिल्ली: आप सभी इन-दिनों एक फ़िल्म KGF से तो वाकिफ होंगे ही। इस फ़िल्म ने बॉक्स आफिस पर रिलीज होने के बाद से अब तक 1000 करोड़ से ज़्यादा की कमाई कर ली है। सोशल मीडिया पर यह फ़िल्म छाई हुई है। इस फ़िल्म को 4 भाषाओं में रिलीज किया गया था, जिसे हर […]
नई दिल्ली: आप सभी इन-दिनों एक फ़िल्म KGF से तो वाकिफ होंगे ही। इस फ़िल्म ने बॉक्स आफिस पर रिलीज होने के बाद से अब तक 1000 करोड़ से ज़्यादा की कमाई कर ली है। सोशल मीडिया पर यह फ़िल्म छाई हुई है। इस फ़िल्म को 4 भाषाओं में रिलीज किया गया था, जिसे हर भाषा में जबरदस्त रिस्पांस मिल रहा है। KGF चैप्टर 2 का एक डायलॉग सुर्खियों में है-
‘कह देना उनको मैं आ रहा हूं अपनी केजीएफ़ लेने-“ यह डायलॉग फ़िल्म में अभिनेता सजंय दत्त ने बोला है, जो लोगों की जुबान पर छाया हुआ है।
इस फ़िल्म में मुख्य रोल कन्नड़ सुपरस्टार यश, संजय दत्त, रवीना टंडन और प्रकाश राज जैसे बड़े अभिनेता निभा रहे है।
कन्नड़ सुपरस्टार यश का लुक फ़िल्म में सबसे हटकर दिखाया गया है, हालांकि चैप्टर 2 में संजय दत्त ने भी अपने rowdy अंदाज से सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया । यह फ़िल्म अब तक कि बनी सभी फिल्मों से अलग है, क्योंकि इसकी प्लाटिंग, किरदार, डायरेक्शन, स्टोरी अलग तरह से लिखी गई है। सोशल मीडिया पर यूजर्स भी इस फ़िल्म के डायरेक्टर (प्रशांत नील) की वाहवाही कर रहे है।
बता दें यह फ़िल्म मूल रूप से कन्नड़ भाषा में ही बनाई गई थी। जिसका पहला पार्ट 21 दिसंबर 2018 को हिंदी, तेलुगू, कन्नड़ और तमिल में रिलीज किया गया था। इस चैप्टर 1 की उस समय खूब तारीफ हुई थी और लोग इसके दूसरे पार्ट के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहे थे।
केजीएफ का मतलब है कोलार गोल्ड फ़ील्ड्स, जो कि कर्नाटक के दक्षिण पूर्व में स्थित है। दक्षिण कोलार ज़िले से करीब 30 किलोमीटर दूर पर एक रोबर्ट्सनपेट तहसील है, जहाँ पर यह खदान मौजूद है।
इस खदान के बारे में एक डिजिटल प्लेटफार्म ने इसका शानदार इतिहास लिखा है।
एक रिपोर्ट के अनुसार साल 1871 में जब अंग्रेज न्यूजीलैंड से भारत आए तो ब्रिटिश सैनिक मिकाल माइकल फिट्ज़गेराल्ड लेवेली ने अपना घर बेंगलुरु में बना लिया। ये ब्रिटिश सैनिक अपना ज़्यादातर समय पढ़ने-लिखने में ही बिताते थे। इसी बीच साल 1871 में न्यूज़ीलैंड से भारत आए ब्रिटिश सैनिक माइकल फिट्ज़गेराल्ड लेवेली ने बेंगलुरू में अपना घर बना लिया था. उस वक़्त वो अपना ज़्यादातर समय पढ़ने में ही गुज़ारते थे. इसी बीच उनके हाथ एक पुराना एशियाटिक जर्नल में छपे चार पन्नों लेख लगा, जो वर्ष 1804 में छापा गया था। इस लेख में कोलार में पाए जाने वाले सोने के बारे में बताया गया था। लेख को पढ़कर ब्रिटिश सैनिक माइकल फिट्ज़गेराल्ड लेवेली की कोलार में दिलचस्पी बढ़ गई और वे इसके बारे में दिन-रात रिसर्च और पढ़ने लगें।
कई दिन बीत गए लेकिन लेवेली ने अपनी रिसर्च जारी रखी। कोलार के बारे में पढ़ते-पढ़ते उनके हाथ ब्रिटिश सरकार के लेफ़्टिनेंट जॉन वॉरेन का एक लेख लगा। उस लेख में लेवेली को पता लगा कि 1799 की श्रीरंगपट्टनम की लड़ाई में अंग्रेज़ों ने टीपू सुल्तान को मारने के बाद कोलार के आस-पास के इलाके में अपना कब्जा कर लिया और वहाँ बस गए। आस-पास जो भी गतिविधि होती वे अंग्रेजो के आदेश के बाद ही संभव थी। कुछ समय तक यहाँ रहने के बाद अंग्रेजो ने यह जमीन मैसूर राज्य को दे दी। लेकिन कोलार की जमीन को अंग्रेजो ने सर्वे के लिए अपने पास रखा।
उस समय चोल सम्राज्य के लोग हाथ से ही जमीन को खोदते थे और सोना निकालते थे। ब्रिटिश लेफ्टिनेंट वॉरेन ने सोने के बारे में बताने वाले के लिए इनाम की घोषणा की। यह खबर सब तरह फैल गई। इसके कुछ दिन बाद कुछ ग्रामीण एक बैलगाड़ी में सवार होकर लेफ्टिनेंट वॉरेन के पास आए। उस बैलगाड़ी में कोलार की मिट्टी के कण लगे हुए थे। गावँ वालों ने वॉरेन के सामने मिट्टी को पानी से धोया, तो उसमें सोने के छोटे-छोटे अंश दिखाई देने लगे। इसके बाद लेफ्टिनेंट ने इसके बारे में जांच पड़ताल शुरू की और पाया कि जिस तरह गावँ के लोग हाथ से खोदकर सोना निकालते हैं, उसमे 56 किलो मिट्टी से गुंजभर सोना निकाला जा सकता था.
लेफ्टिनेंट ने कहा कि, लोगों की कुशलता और तकनीक की मदद से और भी सोना निकाला जा सकता है। इसके बाद लेफ्टिनेंट कि रिपोर्ट के आधार पर वहाँ 1804 से 1860 के बीच सेकड़ों बार रिसर्च और सर्वे किये गए, लेकिन ब्रिटिशर्स को कुछ हाथ नही लगा। कोई फायदा होने के बजाय इस रिसर्च में कई लोगों की जान भी चली गई। जब कुछ हाथ नही लगा तो अंग्रेजो ने वहाँ खुदाई पर बैन लगा दिया।
जब ये रिपोर्ट ब्रिटिश सैनिक लेवेली के हाथ लगी तो उनके मन मे भी कोलार को लेकर दिलचस्पी बड़ी। वे खुद बैलगाड़ी में सवार होकर बेंगलुरू से कोलार की तरफ निकल पड़े। करीब 2 साल तक रात-दिन शोध करने के बाद उन्होंने 1873 में मैसूर के महाराजा से उस जगह पर खुदाई करने की इजाजत मांगी। ब्रिटिश सैनिक लेवेली ने कोलार क्षेत्र में खुदाई करने के लिए 20 साल का लाइसेंस प्राप्त किया और साल 1875 से साइट पर खुदाई का काम चालू किया।
पहले कुछ सालों तक ब्रिटिश सैनिक लेवेली का ज्यादातर समय पैसा जुटाने और लोगों को काम करने के लिए तैयार करने में गुजर गया। कड़ी मशक्कत के बाद केजीएफ में सोना निकालने का काम आखिरकार शुरू किया गया।
केजीएफ में दिन में काम सूरज की रोशनी में किया जाता है तो वही रात को मसालों और मिट्टी के तेल से जलने वाले लालटेन से रोशनी का इंतजाम किया जाता था। लेकिन यह प्रयास नाकाफी था इसलिए वहां बिजली का उपयोग करने का निर्णय लिया गया। कोलार गोल्ड फील्ड की बिजली की आपूर्ति पूरी करने के लिए वहां से 130 किलोमीटर दूर कावेरी बिजली केंद्र बनाया गया। जापान के बाद एशिया का है यह दूसरा सबसे बड़ा प्लांट है। इसका निर्माण कर्नाटक के मांड्या जिले के शिवनसमुद्र में किया गया।
केजीएफ भारत का सबसे पहला ऐसा शहर बन गया जहां बिजली पूरी तरह से पहुंच गई। पानी से बिजली बनने के बाद वहां 24 घंटे रोशनी रहने लगी। सोने की खान होने के चलते बेंगलुरु और मैसूर के बजाय केजीएफ को प्राथमिकता मिलने लगी। केजीएफ़ में 24 घंटे बिजली पहुंचने के बाद सोने की खुदाई को बढ़ा दिया गया। वहां तेजी से खुदाई बढ़ाने के लिए प्रकाश का बंदोबस्त करके नई मशीनों और आधुनिक तकनीकों के जरिए खुदाई का काम बड़ा दिया गया।
इसका नतीजा यह हुआ कि 1902 आते-आते केजीएफ़ भारत का 95 फ़ीसदी सोना निकालने लगा। हाल यह हुआ कि 1905 में भारत सोने की खुदाई के मामले में दुनिया भर में छठे स्थान पर पहुंच गया।
केजीएफ में सोना मिलने के बाद वहां की सूरत दिन प्रतिदिन बदलने लगी। ब्रिटिश सरकार के वरिष्ठ अधिकारी और इंजीनियर वहां अपने घर बसाने लगे। आसपास के लोगों को वहां का माहौल बेहद पसंद आने लगा क्योंकि वह जगह ठंडी थी। जिस तरह वहां ब्रिटिश सैनिकों ने और ब्रिटिश सरकार के आला अधिकारियों ने अपने घरों का निर्माण किया उससे लगता था कि वह मानो एक मिनी इंग्लैंड है।
डेक्कन हेराल्ड के अनुसार इसी के चलते केजीएफ को छोटा इंग्लैंड कहा जाता था।
केजीएफ़ में जैसे-जैसे सोने का काम बढ़ता गया वैसे-वैसे आसपास लोग बसने लगे। केजीएफ की पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए ब्रिटेन सरकार ने पास में ही एक तालाब का निर्माण किया। वहीं से केजीएफ़ तक पानी को पाइप लाइन के जरिए पहुंचाया जाता था। आगे चलकर वही तालाब वहां के आकर्षण का मुख्य केंद्र बन गया। ब्रिटिश अधिकारी और स्थानीय नागरिक पर्यटन के लिए वहां रोज जाने लगे। दूसरी तरफ सोने की खान होने की वजह से अन्य राज्यों से वहां मजदूरों की संख्या बढ़ने लगी। रिपोर्ट के मुताबिक साल 1930 के बाद इस जगह करीब 30,000 मजदूर काम करते थे और उन सभी मजदूरों के परिवार आस-पास ही केजीएफ के रहते थे।
जैसे ही भारत को आजादी मिली तो भारत सरकार ने केजीएफ़ को अपने कब्जे में ले लिया। इसके करीब एक दशक बाद 1956 में खदान का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। 1970 में भारत सरकार की भारत गोल्ड माइन्स लिमिटेड कंपनी ने वहां काम करना शुरू किया। शुरुआत में बेशक कंपनी को फायदा हुआ लेकिन धीरे-धीरे कंपनी दिनों-दिन नुकसान में जाने लगी। 1979 के बाद तो एक ऐसी स्थिति हो गई कि कंपनी के पास अपने मजदूरों को पैसे देने तक के रुपए नहीं बचे। जिस केजीएफ से भारत की 90 फीसदी की सोने की खुदाई होती थी उसका प्रदर्शन 80 के दशक तक आते-आते खराब होता चला गया।
नुकसान होने की वजह से कई कर्मचारियों को उस वक्त बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। एक ऐसा समय आया जब वहां से सोना निकालने में जितना पैसा कंपनी का लगता था वो हासिल सोने की कीमत से भी ज्यादा हो गया था। नुकसान के चलते साल 2001 में भारत गोल्ड माइन्स लिमिटेड कंपनी ने वहाँ सोने की खुदाई बंद करने का निर्णय लिया उसके बाद से वह जगह एक खंडहर बन गई।
केजीएफ़ खनन का काम 121 सालों से भी अधिक समय तक चला। साल 2001 तक वहां खुदाई होती रही और वहां से करीब 900 टन से ज्यादा सोना निकाला गया। खुदाई का काम बंद होने के बाद करीब 15 सालों तक केजीएफ़ में सब कुछ ठप पड़ा रहा। हालांकि साल 2016 में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने उस जगह पर फिर से काम शुरू करने के संकेत दिए थे। कहा जाता है कि केजीएफ की खानों में अभी भी काफी सोना पड़ा है।
मोदी सरकार ने साल 2016 में केजीएफ़ को फिर से शुरू करने के लिए नीलामी की प्रक्रिया का ऐलान किया था। हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि घोषणा के आगे क्या होने जा रहा है.