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ऐसा कदम उठाने वाले संघ के पहले प्रचारक थे दीनदयाल उपाध्याय

पंडित दीनदयाल उपाध्याय को अपना आदर्श मानने वाली भारतीय जनता पार्टी आज उनकी जयंती पर मध्य प्रदेश के भोपाल में कार्यकर्ता महाकुंभ आयोजित कर रही है. संघ प्रचारक पं. दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर जानिए उनके जीवन से जुड़ी कुछ खास बातें.

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Deen Dayal Upadhyay
  • September 25, 2018 2:56 pm Asia/KolkataIST, Updated 6 years ago

नई दिल्लीः हाल ही में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने ‘भविष्य का भारत’ लेक्चर सीरीज में संघ से जुड़े तमाम सवालों के जवाब दिए. उन्हीं में से एक बेहद चुभता हुआ सवाल था, ऐसा सवाल जो संघ के इस दावे पर कड़ा प्रश्नचिन्ह लगाता है कि संघ एक सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन है, राजनीतिक नहीं. सवाल था कि जब संघ राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेता तो बीजेपी में संगठन मंत्री संघ के प्रचारक क्यों बनते हैं? हालांकि मोहन भागवत ने इसका जवाब हलके फुलके मूड में दिया कि कोई और राजनीतिक दल हमसे संगठन मंत्री मांगता ही नहीं है, कोई और मांगेगा और संगठन अच्छा होगा तो  जरूर विचार करेंगे. लेकिन ये सच नहीं है कि संघ ने केवल बीजेपी को ही अपने प्रचारक दिए हैं, किसी और पार्टी को भी दिए हैं और संघ में ऐसा पहले प्रचारक दीनदयाल उपाध्याय थे.

बीजेपी से पहले राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने अपने प्रचारक जनसंघ को दिए थे. दरअसल आजादी के बाद भी संघ का राजनीतिक पार्टी बनाने का कोई इरादा नहीं था. लेकिन महात्मा गांधी की हत्या के बाद जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिंदू महासभा छोड़ दी और संघ पर गांधी हत्या के आरोप में प्रतिबंध लगा, कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न हुआ. तो मुखर्जी ने संघ की मदद लेकर नई पार्टी जनसंघ शुरू की, तब संघ प्रमुख गोलवलकर ने दीनदयाल उपाध्याय को संघ से मुखर्जी की मदद के लिए भेजा, जिन्हें जनसंघ का महासचिव बनाया गया. 
संघ के अंदर भी ये महसूस किया जाने लगा था कि बिना राजनीतिक सहयोग के उनके कार्यकर्ताओं को पर कोई भी हाथ डाल सकता है और राजनीति में उतरना भी नहीं था, तो ये जरुरी लगा कि कोई ना कोर् पार्टी तो ऐसी हो जहां उनके अपने स्वंयसेवक हों, प्रचारक हों, जो संघ के खिलाफ दुष्प्रचार या माहौल बनाने से सत्ता पक्ष को रोकें. मुखर्जी के अगुवाई में जनसंघ ऐसी पहली पार्टी थी. लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी जब दो विधान, दो प्रधान, दो निशान का विरोध करने कश्मीर गए, तो शेख अब्दुल्ला की नजरबंदी में उनकी मौत हो गई. 
अब सारी जिम्मेदारी दीनदयाल उपाध्याय के ही सर आ गई, उन्होंने धीरे धीरे अटल बिहारी बाजेपेयी को भी खड़ा किया, लोकसभा चुनाव लड़ाया, हार गए तो दोबारा तीन सीटों से लड़ाया. लेकिन खुद संगठनकर्ता ही रहे. मुखर्जी के बाद दूसरे कद्दावर नेता होने के बावजूद उन्होंने मुखर्जी की मौत के 14-15 साल तक जनसंघ के अध्यक्ष का पद नहीं लिया. मौलीचंद शर्मा, प्रेमनाथ डोगरा, आचार्य डीपी घोष, पीताम्बर दास, रामाराव, रघुवीरा, बछराज व्यास और बलराज मधोक तक को अध्यक्ष बनाया. तब जाकर दवाब में उन्होंने 1967 में जनसंघ के अध्यक्ष का पद स्वीकार किया, कालीकट के अधिवेशन में। 1951 में तीन सीटें मिली थीं जनसंघ को 1967 में ये 35 लोकसभा सीटों तक पहुंच गया था.
लेकिन 43 दिन ही हुए थे उन्हें जनसंघ का अध्यक्ष बने हुए और 10 फरवरी 1968 के दिन वो स्यालदाह एक्सप्रेस में लखनऊ स्टेशन से शाम को पटना के लिए निकले और रात को 2 बजकर 10 मिनट पर ट्रेन मुगलसराय पहुंची. उसमें कार्यकर्ताओं को दीनदयाल नहीं मिले, बाद में उनकी लाश वहीं पटरियों पर पड़ी पाई गई. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की तरह जनसंघ ने अपना दूसरा बड़ा चेहरा रहस्मयी तरीके से खो दिया था. 2018 में मुगल सराय स्टेशन का नाम दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर रख दिया गया. वो पहला संघ प्रचारक जिसे राजनीतिक पार्टी में भेजा गया, लेकिन वो राजनीति की दलदल से दूर रहकर सादगी से जीता रहा और उनके शिष्य अटल बिहारी बाजपेयी बाद में देश के प्रधानमंत्री के पद तक जा पहुंचे.

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