देश-प्रदेश

जब तजिया देख हम अदब से सिर झुका लेते हैं तो उन्हें क्या तिरंगा देख गोली चलानी चाहिए ?

नई दिल्लीः शाम को रोजाना के शो के लिए जब आखिरी तैयारी कर रहा था तभी न्यूज़रुम में एक वरिष्ठ एंकर साहब ने कासगंज में लगी ‘मन-आग’ की चर्चा छेड़ दी . ‘तुमने डीएम की बातें सुनी सत्या…नहीं, क्या ? अरे वही यात्रा रोकने के बाद लड़के मौके पर हंगामा करने आए थे..तब गोली चली “ मैने कहा…आपने वो फीड नहीं देखी क्या…जिसमें यात्रा के दौरान ही एक ख़ास वर्ग के लोग तने खड़े हुए हैं और कह रहे हैं कि इधर से यात्रा नहीं जाएगी.‘ सवाल हुआ…क्यों नहीं जाएगी?

जवाब…क्योंकि पहले कभी ऐसा नहीं हुआ. हद है…पहले तो बहुत कुछ नहीं हुआ. या कह लें पहले से तो बहुत कुछ होता आ रहा है. तो क्या वो होता ही रहेगा. हमलोगों को पब्लिक स्कूल में पढ़ने का मौका नहीं मिला. सरकारी स्कूल में तब 26 जनवरी और 15 अगस्त वाले दिन की बड़ी वैल्यू होती थी. सुबह नहा-धोकर प्रभात फेरी के लिए जाना…और गर्दन फाड़-फाड़ के गांधीजी और नेताजी की जय के नारे लगाना. इन नारों के बीच तब भी तनातनी और मिनी पाकिस्तान, सेमी पाकिस्तान वाली चर्चा होती थी. लेकिन तब समाज में इतनी कड़वाहट, इतना दिखावापन नहीं था.आज हर क्षेत्र में एग्रेसन बढ़ा है, खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने से लेकर हर तरफ.

जाहिर है राष्ट्रप्रेम में भी होगा. क्योंकि ये भी एक लाइफस्टाइल का पार्ट ही तो है. वैसे तब ये फर्क नहीं पड़ता था या कह लें कि ये समझ नहीं थी कि प्रभात फेरी की टोली में अकरम और खालिद क्यों नहीं आते. अब फर्क पड़ता है. ये फर्क इसलिए भी पड़ने लगा और समझ में आने लगा जब हमलोग क्रिकेट मैच में हिन्दुस्तान की हार पर मायूस हो घर लौटते. तो सामने के मुहल्ले में पटाखे फूटते रहते.

पाकिस्तान की जीत पर पटाखे फूटे इसे तो थोड़ी देर के लिए जस्टिफाई किया भी जा सकता है. लेकिन हम जिस देश में रह रहे हों वो देश कहीं हार जाए, उस पर हम खुश हों, निर्लज्जता और ढीठता से उसका दिखावा भी करें…ये समझ से पड़े है. और इसे चुपचाप देखकर इग्नोर कर देना…आपके सेक्यूलर होने की निशानी. विरोध करना कट्टर होने का सबूत. ख़ैर…हम जिस इलाके से आते हैं वहां का सबसे बड़ा कस्बाई शहर है जन्दाहा( बिहार). मुस्लिम नाम है, और बड़ी पवित्रता से पूरा इलाका इस नाम को प्रेम करता है, दिल में संजोता है. कहीं किसी को शायद ही आपत्ति हो. तजिया के समय बड़ा हुजूम निकलता रहा है यहां. आस-पास के कस्बाई शहरों से लोग आते रहते हैं इस पवित्र यात्रा को देखने. सिर झुकाने.

मुझे याद है एक साथ कई तजिया यात्राएं बैंड-बाजे के साथ जिन-जिन हिंदू गांवों से होकर निकलती…पूरा गांव सड़क पर उतर आता. तीनों पीढ़ी दलान की आहत मेंं खड़े हो जाते. ज्यादातर लोग श्रद्धा से सिर नवाजते. हाथ जोड़े रहते. एक मान्यता ये भी थी हमारे इलाके में कि किसी को कोई बीमारी है तो इस तजिया दर्शन मात्र से वो चंगा हो जाएगा. शायद ये भी बड़ी वजह थी…दर्शन की. खैर जो भी लेकिन मैने श्रद्धा वैसी ही देखी जब दुर्गा माई की जय के साथ काली स्थान से मूर्ति विसर्जन के लिए निकलती. वैसे मुझे लगता है 10 में से 8 हिंदू कहीं भी मस्जिद देखकर सिर झुका लेते हैं. लेकिन ऐसी ही हालत दूसरी तरफ क्यों नहीं. जब पटना के सब्जी बाग से हमलोगों को सरस्वती पूजा की मूर्ति लेकर विसर्जन के लिए गुजरना होता तो RAF की टुकड़िया साथ होती. फिर भी, कहीं न कहीं किसी न किसी छत से ईंट-पत्थर, कई बार तो बम चल जाते. क्योंकि सब्जी बाग पटना का मिनी-सेमी पाकिस्तान था.और प्रशासन हमलोगों से कहता फिरता कि रूट बदल लीजिए। अंदर ही अंदर चले जाइए. अरे भाई क्यों चले जाएं ? कब तक आप ऐसे जाते रहेंगे ? और इस मिनी-सेमी कल्चर को परंपरा बना देंगे. क्योंकि यही तो कासगंज में हुआ. आज तक यात्रा उस मिनी इलाके से नहीं गई तो नहीं जाएगी.

वैसे..जब मीडिया में आया तो डिक्शनरी में एकाध शब्द और जुड़ा. उसी में से एक शब्द है गंगा-जमुनी तहजीब. कोई रामलाला के कपड़े सिलता है तो उसकी कहानी, कोई टिकरापाड़ा का हैदर दुर्गा जी का श्रृंगार करता है उसकी कहानी…ऐसी सारी कहानियां इस सो कॉल्ड तहजीब के फर्मे में फिट हो जाती है. हम मीडिया वाले चासनी लगाकर दिखाते रहते हैं. लोगों को गंगा-जमुनी तहजीब की कसमें खिलाते रहते हैं. लेकिन उस सवाल का प्रहार नहीं करते..जिसमें देश के अंदर मिनी-सेमी पाकिस्तान की अदृश्य दीवारें खींच रखी हैं.सवाल तो खड़े होने चाहिए न !.और सीधे सपाट तरीके से होने चाहिए कि हिन्दुस्तान के अंदर ये मिनी और सेमी पाकिस्तान क्या है और क्यों है.

ये हर जिला, तहसील, ब्लॉक…हर तरफ है. और इस मिनी पाकिस्तान को अब हिन्दुस्तान की तिरंगा यात्रा से भी परहेज होने लगा. खैर…एंकर महोदय का तर्क था जो स्थापित परंपरा के मुताबिक था कि…ऐसे सवालों से तो कासगंज जैसी आग भड़क सकती है…उसे जस्टिफिकेशन मिलेगा. मेरा तर्क है…अख़लाक के समय ऐसे तर्क कहां चले गए. मैने भी पुरजोर विरोध किया था उस शर्मनाक-घिनौने कांड का. और उतने ही पुरजोर तरीके से चंदन की हत्या और हत्या के पीछे मिनी-सेमी वाली सोच का विरोध करता हूं. बरेली के डीएम ने कहा है कि एक खास संपद्राय की बस्ती में जाकर ही पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे क्यों लगते हैं. मैं पूछता हूं क्यों न लगेंगे. विषधर के खिलाफ मुर्दाबाद के नारे नहीं लगेंगे तो क्या लोग हारा-बिसा, हारा-बिसा कहकर ताली पीटेंगे. समस्या से भागिए नहीं, जागिए. तहजीब की कसमें नहीं खिलाइए…सवाल उठाइए. हिंदू-मुसलमान से इतर…देश के लिए. जागते रहो, पढ़ते रहो.

डिस्कलेमरः लेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं और उनसे इनखबर ना तो सहमति है और ना ही असहमति.

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Aanchal Pandey

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