नई दिल्ली। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर(Karpoori Thakur) को भारत रत्न देने का निर्णय किया गया है। उन्हें बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और पिछड़े वर्गों के हितों की वकालत करने के लिए याद किया जाता है। कर्पूरी बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री दो बार मुख्यमंत्री और वर्षों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। दरअसल, जिस प्रदेश की राजनीति का मूल आधार कैश, कास्ट और क्रिमिनल रहा, ऐसी धरती पर कर्पूरी ठाकुर की राजनीति ताउम्र अपने विशेष गुणों के कारण ही चलती रही। वह वर्ष 1952 से लगातार विधायक पद पर जीतते रहे, वो केवल 1984 का लोकसभा चुनाव हारे।
पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर(Karpoori Thakur) को लेकर वर्तमान राज्यसभा उपाध्यक्ष हरिवंश नरायण सिंह का कहना है कि कर्पूरी जी ने अपने लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने घर तक नहीं बनाया। एक बार जब उनका घर बनवाने के लिए 50 हजार ईंट भेजी गई, तो उन्होंने घर न बनाकर उस ईंट से स्कूल बनवा दिया। कर्पूरी जी की इसी खासियत ने उन्हें कास्ट और क्रिमिनल वाले राज्य में एक वर्ग का पुरोधा बना कर रखा। हरिवंश नरायण सिंह अपने पत्रकारीय जीवन को याद करते हुए लिखा है कि राज्य में जहां कहीं भी बड़ी घटना होती थी, वहां सबसे पहले पहुंचने वाले नेताओं में कर्पूरी जी शामिल थे। यही कारण है कि उन्हें जीते जी जननायक की उपाधि मिली।
कर्पूरीग्राम के एक-एक कण में पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की यादें बसी हैं। स्वतंत्रता सेनानी और शिक्षक के रूप में सार्वजनिक जीवन की शुरुआत करने वाले जननायक का जन्म समस्तीपुर के पितौंझिया में 24 जनवरी, 1924 को हुआ था। वर्तमान में ये गांव कर्पूरीग्राम के नाम से चर्चित है। बताया जाता है कि कर्पूरी ठाकुर महज 14 वर्ष की उम्र में अपने गांव में नवयुवक संघ की स्थापना की। साथ ही वो गांव में होम विलेज लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन बने। 1942 में पटना विश्वविद्यालय पहुंचने के बाद वे स्वतंत्रता आंदोलन और बाद में समाजवादी पार्टी तथा आंदोलन के प्रमुख नेता के रूप में सामने आए।
वहीं सन् 1952 में भारतीय गणतंत्र के प्रथम आम चुनाव में ही वे समस्तीपुर के ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुए। उस समय उनकी आयु 31 वर्ष थी। उन्होंने संसदीय कार्यकलापों में तो दक्षता दिखाई ही, साथ ही समाजवादी आंदोलन को जमीं पर उतारने का भी भरसक प्रयास किया। कर्पूरी ठाकुर(Karpoori Thakur) के पुत्र सह राज्यसभा सदस्य रामनाथ ठाकुर के अनुसार, कर्पूरी जी आचार्य नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण के दबाव पर ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने को तैयार हुए, लेकिन उनके पास पैसे नहीं थे। तब कार्यकर्ताओं ने चंदा जुटाया था। उस समय कर्पूरी जी ने ये तय किया कि चवन्नी-अठन्नी तथा दो रुपये से ज्यादा सहयोग नहीं लेना है।
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उन्होंने जयप्रकाश नारायण की धर्मपत्नी प्रभावती देवी के आग्रह पर उनसे पांच रुपया चंदा स्वीकार किया था। समाजवादी नेता दुर्गा प्रसाद सिंह के मुताबिक, वो हर बार चंदे के पैसे से ही चुनाव लड़ते थे। वो एक-एक पैसे का हिसाब खुद रखते थे। उन्होंने उसका एक पाई भी निजी काम में नहीं लगाया। उनका यह स्व-अनुशासन, नैतिक आग्रह व प्रतिबद्धता 17 फरवरी, 1988 को उनके विदा होने तक जारी रहा।
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