मुंबई. महाराष्ट्र में दो सौ साल पहले हुई एक एतिहासिक जीत के जश्न में गुजरात के वडनगर से नवनिर्वाचित विधायक जिग्नेश मेवाणी भी शरीक होंगे. जिग्नेश मेवाणी भीमा कोरेगांव की लड़ाई में दलितो की जीत के जश्न के मौके पर भाषण देते नजर आएंगे. जिग्नेश के अलावा सोनी सोरी, रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला, जेएनयू के छात्र उमर खालिद, प्रकाश अंबेडकर आदि लोग बी इस जश्न में शामिल होंगे. महाराष्ट्र के कोरेगांव भीमा में इस लड़ाई को हर साल जश्न के तौर पर मनाया जाता है. यह लड़ाई अंग्रेजी सेना और मराठाओं के बीच हुई थी लेकिन इसकी खास बात है कि इसमें अंग्रेजी सेना की जीत का जश्न मनाया जाता है. हालांकि यह पेशवाओं पर अंग्रेजों की जीत थी लेकिन इसका जश्न हर साल मनाया जाता है. हालांकि अखिल भारतीय ब्राह्मण महासंघ ने पुणे पुलिस से मांग की है कि दलितों को पेशवाओं की ड्योढ़ी ‘शनिवार वाडा’ में प्रदर्शन की अनुमति न दी जाए.
क्या है भीमा कोरेगांव की लड़ाई.
दरअसल भीमा कोरेगांव की लड़ाई को क्रांति के तौर पर मनाया जाता है. 1 जनवरी 1818 को पुणे स्थित कोरेगांव में भीमा नदी के पास उत्तर-पूर्व में यह लड़ाई हुई थी. यह लड़ाई महार और पेशवा सैनिकों के बीच लड़ी गई थी. महारों ने अंग्रेजों की तरफ से यह लड़ाई लड़ी थी जिसमें सिर्फ 500 महार सैनिकों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के 28 हजार सैनिकों को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया था. बाजीराव द्वितीय आठवाँ और अन्तिम पेशवा (1796-1818) थे। बाजीराव द्वितीय के शासनकाल में 1818 में ही मराठा साम्राज्य का पतन हो गया था. (बाजीराव द्वितीय कमजोर शासक थे. जबकि बाजीराव प्रथम ने कोई युद्ध नहीं हारा था. उनके जीवनकाल पर ही बाजीराव मस्तानी फिल्म बनी है. बाजीराव प्रथम की मृत्यु 1740 में हो गई थी.)
महार सैनिकों की वीरता और साहस के लिए उनके सम्मान में भीमा कोरेगांव में स्मारक भी बनवाया गया है. जिसपर युद्ध में शामिल हुए महारों के नाम लिखे हुए हैं. इसके बाद से पिछले कई दशकों से भीमा कोरेगांव की इस लड़ाई का महाराष्ट्र के दलित जश्न मनाते आ रहे हैं. नए साल के मौके पर महाराष्ट्र व अन्य जगहों से हजारों की संख्या में दलित यहां पहुंचते हैं. इस बार 200वां साल होने की वजह से देशभर से लाखों लोगों के पहुंचने की संभावना है. अंबेडकरवादी और लेफ्ट संगठन के लोग इस कार्यक्रम में भारी संख्या में पहुंचेंगे. अंग्रेजी सेना की जीत का यह जश्न मनाने पर इसलिए पाबंदी नहीं लगाई जा सकी क्योंकि महारों की इस जीत को ब्राह्मणों के जातिगत भेदभाव और जन्मजात कुलश्रेष्ठता का दंभ तोड़ने वाली जीत के तौर पर देखा जाता है. पेशवाओं के राज में अंत्योज्य दलितों की स्थिति बहुत ज्यादा दयनीय थी. उन्हें रास्ते में पीछे झाड़ू बांधकर चलना पड़ता था ताकि कोई श्रेष्ठ कुल वाले के पैर दलित के पैरों के निशान पर न पड़ जाएं. वहीं थूकने के लिए गले में हांडी लटकानी पड़ती थी. अमानवीय जीवन से त्रस्त आकर महारों ने पेशवाओं के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए अंग्रेजों की सेना ज्वाइन कर ली थी.
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