देश-प्रदेश

International Women’s Day: भारत में रोहिंग्या महिला ने इस तरह अपने सपनों को किया पूरा, देश बदला लेकिन अपने लक्ष्य नहीं

नई दिल्ली: मनुष्य में अगर कुछ कर दिखाने की और सीखने की ललक हो तो वह ज़िंदगी में कुछ भी हासिल कर सकता है. इसी बात को सच कर दिखाया है 24 साल की तस्मिदा जौहर ने जिनका संघर्ष एक मिसाल है. आइए जानते है इनकी पूरी कहानी.

तस्मिदा जौहर (Tasmida Johar) का नाम शायद ही आपने पहले सुना होगा. यह नाम है भारत के विश्वविद्यालय में एडमिशन लेकर ग्रेजुएशन पूरी करने वाली एक रोहिंग्या युवती का. आपको बता दें, तस्मिदा ने डीयू (DU) से राजनीति विज्ञान में ग्रेजुएशन की पढ़ाई की है. वह पिछले साल 2022 दिसंबर में भारत की पहली रोहिंग्या ग्रेजुएट महिला बनीं. अब तस्मिदा आगे विल्फ्रिड लॉयर यूनिवर्सिटी टोरंटो से एक कन्फर्मेशन लेटर का बेसब्री से इंतजार कर रही हैं.

शरणार्थियों (Refugees) की शिक्षा तक पहुंच कर यूएनएचसीआर (UNHCR) की जानकारी के मुताबिक वैश्विक स्तर पर केवल 3 फीसदी युवा शरणार्थी हायर एजुकेशन हासिल कर सके हैं. वहीं तस्मिदा भी उन्हीं में से एक हैं. केवल यही नहीं दिल्ली से ग्रेजुएशन करके अब वह अगस्त एक महीने में कनाडा जाने की तैयारी कर रही हैं. बता दें कि, उनके लिए यह सफर काफी मुश्किल रहा है.

पढ़ाई के लिए सबकुछ त्यागा

इस सफलता के सफर में तस्मिदा को अपनी पढ़ाई के लिए अपना नाम तक बदलना पड़ा, अपना घर बदलना पड़ा और यहां तक अपना देश तक बदलना पड़ा. तस्मिदा ने नई संस्कृतियां और नई भाषा भी सीखी. इसके बाद ही उनका सपना साकार हो पाया है. दरअसल वह अपने देश में उत्पीड़न से बचने के लिए भारत आई थीं.

बदलना पड़ा था नाम और उम्र

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, तस्मिदा ने बताया कि वह असल में 24 साल की हैं, लेकिन यूएनएचसीआर कार्ड के हिसाब से उनकी उम्र 26 साल है. जहां रोहिंग्या माता-पिता आमतौर पर लड़की की उम्र को दो साल बढ़ा देते हैं, ताकि उनकी जल्दी शादी हो सके. तस्मिदा ने कहा उनका असली नाम तस्मीन फातिमा है, लेकिन म्यांमार में पढ़ने के लिए आपके पास रोहिंग्या नाम नहीं हो सकता है इसके लिए एक बौद्ध नाम रखना अनिवार्य है.

जानिए रोहिंग्याओं की आपबीती

तस्मिदा जौहर ने बताया कि म्यांमार के लोगों के लिए रोहिंग्या का अस्तित्व ही नहीं है. विद्यालयों में उन सब के लिए अलग क्लास होती हैं. यहां तक की एग्जाम हॉल में भी उन्हें सबसे पीछे वाले बेंच पर बैठाया जाता है. साथ ही उन्होंने कहा कि अगर कोई रोहिंग्या कॉलेज जाना चाहता है तो आपको यांगून (देश की पूर्व राजधानी) जाना पड़ता है इसी वजह से शायद ही कभी कोई रोहिंग्या ग्रेजुएट हो पाता है. सरकारी कार्यालयों में नौकरी नहीं दी जाती है और हम मतदान भी नहीं कर सकते हैं.

 

 

Noreen Ahmed

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