नई दिल्ली: भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ‘रुपए के अवमूल्यन’ फैसले पर उनकी ही कांग्रेस पार्टी उनके खिलाफ में खड़ी हो गई थी. दरअसल 1966 में जब इंदिरा गांधी पहली बार देश की पीएम बनीं तो भारत सूखे से जूझ रहा था. पहले 1965 में औऱ फिर 1966 में, दोनों साल मॉनसून कमजोर था. इसी बीच अचानक अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉन्सन से इंदिरा को बुलावा मिला. अमेरिका ने भारत को गेहूं तो देने का वायदा किया लेकिन दो शर्तें रख दीं, शर्तें इतनी आसान ना थीं लेकिन संकट भी तो कोई छोटा मोटा नहीं था.
इन दो शर्तों में से एक तो थी रुपए का अवमूल्यन, और दूसरी वियतनाम में अमेरिकी नरसंहार के खिलाफ भारत आवाज ना उठाए. तब सरकार ही डॉलर की कीमत तय करती थी, आजादी के बाद से 1966 तक डॉलर की कीमत ना बढ़ाई गई और ना घटाई गई थी. इंदिरा पशोपेश में थीं, अनाज ना मिलता तो लाखों लोग भूखे मर जाते. ऐसे में 6 जून 1966 को इंदिरा ने रुपए के अवमूल्यन का फैसला किया. मतलब 4 रुपए 79 पैसे का डॉलर 7 रुपए 57 पैसे का हो गया. यानी अब जो गेहूं भारत अमेरिका को देता, उसका पैसा भारत को ना केवल डेढ़ गुना मूलधन बल्कि ब्याज भी ज्यादा देने पड़ते. कामराज ने फौरन कांग्रेस वर्किंग कमेटी की मीटिंग बुलाई.
बैठक में कांग्रेसी नेताओं ने इंदिरा गांधी की सारी दलीलों को खारिज कर दिया. एक बार तो इंदिरा ने मन बनाया कि ऐलान वापस ले लें, लेकिन तब तक वो अमेरिका से वायदा कर चुकी थीं और को उन्होंने आकाशवाणी से ऐलान कर दिया कि कड़वी दवाई तो पीनी होगी. इंदिरा ने रुपए के अवमूल्यन का ऐलान करने के लिए एक खास तारीख चुनी थीं, क्या खास था उस तारीख में जानने के लिए देखिए हमारा ये वीडियो शो.
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