Weekly Analysis Pulse by Ajay Shukla: आंधी से कोई कह दे कि औकात में रहें!

Weekly Analysis Pulse by Ajay Shukla: हम लंबे समय से यह चुनावी जुमला सुनते आ रहे हैं कि 70 साल में क्या हुआ? सच तो यह है कि उस काल में जो हुआ, उस संपत्ति और उससे होने वाली आय ने ही हमारी अर्थव्यवस्था को अभी तक बचाया हुआ है। वही संपत्ति गंवाकर हम राजसी खर्च करने में जुटे हैं। एक गंवई कहावत है कि पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय। अंग्रेजी हुकूमत से जब हमें देश मिला था, तो न धन था और न संसाधन, समस्यायें हजारों थीं। तत्कालीन सरकारों ने सार्थक प्रयास किये नकारात्मकता, नफरत से दूरी बनाई, जिससे देश न सिर्फ आर्थिक बल्कि सभी मोर्चों पर मजबूत हुआ। आज लोगों का बैंकिंग व्यवस्था से विश्वास उठ रहा है। वह में मजबूरी में नकदी बैंकों में रख रहे हैं। अधिकतर की सोच यह है कि बैंकों में रुपये क्यों रखें, लाभ कम हानि ज्यादा है। दूसरी तरफ संकट यह है कि कहीं हमारी सीमाओं पर चीन जमकर बैठ गया है, तो कहीं नेपाल दावेदारी कर रहा है।

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Weekly Analysis Pulse by Ajay Shukla: आंधी से कोई कह दे कि औकात में रहें!

Aanchal Pandey

  • August 1, 2020 4:06 pm Asia/KolkataIST, Updated 4 years ago

राहत इंदौरी की यह पंक्ति दरबारी नहीं बल्कि जिंदा होने का सबूत है मगर आज इसे पसंद नहीं किया जाता है। देश की आजादी का महीना है, तो निश्चित रूप से बात देशहित पर होनी चाहिए। विश्वबैंक और भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे नामचीन अर्थशास्त्री प्रो. कौशिक बासु ने भारत के आर्थिक हालात पर एक टिप्पणी की है, जो हमें विचार के लिए बाध्य करती है। उन्होंने कहा “भारत ने पिछले 70 साल में जो कमाया था, अब वो गंवा रहा है”। वह कहते हैं कि निःसंदेह कोविड-19 ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर गहरा असर डाला है मगर आबादी, जलवायु और अन्य भौगोलिक स्थितियों के लिहाज से भारत में कोविड-19 वायरस बहुत प्रभावशाली नहीं है। कारगर नीतियों के अभाव में यह वायरस देश भर में फैल गया।

इस कठिन वक्त में अर्थव्यवस्था का संतुलन बनाने के लिए वाजिब कदम भी नहीं उठाये गये। नतीजतन भारत की अर्थव्यवस्था नकारात्मक दिशा में चल पड़ी है। उन्होंने कहा कि हमें 1958 के एशियाई फ्लू, 1968 के हॉगकॉग फ्लू और 1980 के स्पेशिन फ्लू से सीखना चाहिए। उस वक्त इन फ्लू से कई लाख लोग मरे थे मगर तत्कालीन सरकारों ने व्यवस्था को संभाला था। सावधानियों और विशेषज्ञों की राय को अपनाकर हम उस संकट से जीतकर सुदृढ़ हुए थे। इस वक्त उतने बुरे हालात नहीं हैं मगर अर्थव्यवस्था बरबादी की तरफ जा रही है। वजह, हम नफरत की राजनीति और चाटुकार में व्यस्त हैं। रचनात्मक सुझाव हमें आलोचना लगते हैं। जो अविश्वास पैदा करते हैं। विश्व के तमाम प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. बासु की राय से सहमति जताते हैं।

हमने प्रोफेसर कौशिक बासु की समीक्षा को सरकारी आंकड़ों में परखा, तो वही दिखा जो उन्होंने कहा। बीते वित्तीय वर्ष (2019-20) में देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर 4.2 फीसदी रही, जो मोदी सरकार आने के एक साल बाद भी 8.2 फीसदी थी। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की मानें तो मौजूदा वित्त वर्ष में हमारी विकास दर -5.8 फीसदी से भी कम रहने की आशंका है। पिछले वित्तीय वर्ष में जीडीपी गिरने की दो बड़ी वजह सामने आई थीं। पहली, सरकारी खर्च का 15.6 फीसदी तक बढ़ना और आम जन के पास नकदी का अभाव। सरकार की नीतियां जहां कारपोरेट की सहायक थीं, वहीं आमजन के लिए दुश्वारियों जैसी। अर्थशास्त्र का नियम है कि जब लोगों को सरकारी नीतियों पर भरोसा कम हो। मन में खौफ, तो तय है कि लोग कम खर्च करने लगेंगे।

वहीं हुआ, एक बड़ा उपभोक्ता वर्ग उस खौफ में कम खर्च करने लगा, जिससे आय में कमी आई। इससे जो चक्र बना, वह अर्थव्यवस्था को नकारात्मकता की दिशा में ले गया। सरकार ने विश्वास पैदा करने के बजाय उलट किया। इसका नतीजा बदतर वित्तीय वर्ष के रूप में सामने आया। जब कोरोना का संकट बढ़ा तो हालात काबू से बाहर हो गये। सरकार के जिम्मेदार अपनी ही ब्रांडिंग में मस्त रहे। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जब नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी से इसमें सुधार के लिए बात की, तो उन्होंने कहा कि हमारी सरकार को ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जिससे आमजन की खरीद क्षमता बनी रहे। ऐसा होगा तो मांग बढ़ेगी और फिर उत्पादन। इससे रोजगार भी बढ़ेंगे और अर्थव्यवस्था भी मजबूत होगी।

इस वक्त बैंकिंग सेक्टर बुरे दौर से गुजर रहा है। कई सार्वजनिक बैंके दूसरी बैंकों में मर्ज हो चुके हैं। कुछ बीमार हैं तो कुछ मरणासन्न। इस बारे में नोबल विजेता अर्थशास्त्री मोहम्मद युनुस ने भी राहुल गांधी से स्पष्ट किया कि सरकार गरीब और कम आय वर्ग पर खर्च करे। निम्न मध्यम वर्ग को सशक्त बनाये तो अर्थव्यवस्था को संभाला जा सकता है। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे अर्थशास्त्री रघुरमन राजन ने भी यही कहा था कि सरकार गरीब और निम्न मध्यमवर्ग की प्रत्यक्ष मदद करे, जिससे उनकी क्षमता में सुधार हो। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की मुख्य सलाहकार प्रो. गीता गोपीनाथन ने भी कमोबेश यही सलाह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पिछले साल दी थी। उन्होंने चेताया था कि अगर सार्थक प्रयास नहीं हुए तो भारत की अर्थव्यवस्था नकारात्मक दिशा में चलेगी।

बावजूद इसके, सार्थक कदम नहीं उठाये गये। अब चूंकि देश कोरोना संकट से जूझ रहा है, तो ऐसे में इसे अधिक मदद की जरूरत है। आमजन को महंगाई और भ्रष्टाचार से बचाने और आर्थिक रूप से संभलने में प्रत्यक्ष मदद की नीति की आवश्यकता है। उन्होंने बताया था कि इसका मुख्य कारण गैर-बैंकिंग वित्तीय क्षेत्र में बढ़ती दिक्कतें और ग्रामीणों की आय में कमी आना है। उनका मानना था कि सामाजिक असंतोष और नफरत की राजनीति भी अर्थव्यवस्था में गिरावट का बड़ा कारण है। हमारी सरकार की समस्या यह है कि वह रोग का इलाज नहीं बल्कि उसे छिपाने पर यकीन करती है। उसके लिए वह इवेंट्स पर अधिक खर्च करती है। अब हालात यह हैं कि कोरोना जान भी ले रहा और अर्थव्यवस्था भी बिगाड़ रहा है। 

हम लंबे समय से यह चुनावी जुमला सुनते आ रहे हैं कि 70 साल में क्या हुआ? सच तो यह है कि उस काल में जो हुआ, उस संपत्ति और उससे होने वाली आय ने ही हमारी अर्थव्यवस्था को अभी तक बचाया हुआ है। वही संपत्ति गंवाकर हम राजसी खर्च करने में जुटे हैं। एक गंवई कहावत है कि पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय। अंग्रेजी हुकूमत से जब हमें देश मिला था, तो न धन था और न संसाधन, समस्यायें हजारों थीं। तत्कालीन सरकारों ने सार्थक प्रयास किये नकारात्मकता, नफरत से दूरी बनाई, जिससे देश न सिर्फ आर्थिक बल्कि सभी मोर्चों पर मजबूत हुआ। आज लोगों का बैंकिंग व्यवस्था से विश्वास उठ रहा है। वह में मजबूरी में नकदी बैंकों में रख रहे हैं। अधिकतर की सोच यह है कि बैंकों में रुपये क्यों रखें, लाभ कम हानि ज्यादा है। दूसरी तरफ संकट यह है कि कहीं हमारी सीमाओं पर चीन जमकर बैठ गया है, तो कहीं नेपाल दावेदारी कर रहा है।

पड़ोसी मित्र बांग्ला देश हो या फिर श्रीलंका दोनों ही हमसे दूरी बना रहे हैं। भूटान का भारत से यकीन कम हो रहा है। पाकिस्तान से हम संबंध सुधारने में नाकाम रहे हैं। इन कूटनीतिक मोर्चों पर असफलता के बाद देश के भीतर प्रेम, सौहार्द और विश्वास कायम खत्म हुआ है। घृणा की राजनीति को बढ़ावा मिला है। तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने जब युवाओं के स्किल को विकसित कर उन्हें वैश्विक बाजार के लिए तैयार करने का कार्यक्रम चलाया था, तब शिक्षा मंत्रालय का नाम बदलकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय रखा गया था। अब फिर से इसे बदल दिया गया, हालांकि शिक्षा के सुधार के लिए कुछ ऐसा नहीं हो सका, जिससे हम कोई बड़ी उम्मीद करें।

समय की मांग है कि देश में प्रेम-सौहार्द और विश्वास कायम किया जाये। जिनके पास धन है, वह खर्च करने को आगे आयें। शिक्षा वैश्विक गुणवत्ता से युक्त हो न कि किसी एजेंडे पर आधारित। अर्थशास्त्रियों और बुद्धिजीवियों की सलाह और आलोचनाओं को रचनात्मक ढंग से देखा जाये। गलतियों को सुधारें। सभी की समृद्धि में ही देश की उन्नति है। देश को धार्मिक कट्टरता नहीं सहिष्णुता और समानता की दरकार है। जब ऐसा होगा तभी भरोसा जागेगा, हम आगे बढ़ेंगे। आंधियां हमारा रास्ता नहीं रोक पाएंगी।

जयहिंद!  

ajay.shukla@itvnetwork.com

(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)

https://www.youtube.com/watch?v=ThyPVQA3lD4&feature=youtu.be

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