अहमदाबाद. सोमनाथ मंदिर को अगर सरदार पटेल ने दोबारा बनाने का बीड़ा उठाया, एलके आडवाणी ने सोमनाथ को अपनी ऐतिहासिक यात्रा के लिए चुना, गजनबी से लेकर खिलजी और औरंगजेब तक ने उसे लूटा, मोदी वहां जाने का कोई मौका छोड़ते नहीं और राहुल को भी वहां जाना ही पड़ा, इन सब बातों से आप समझ सकते हैं कि सोमनाथ मंदिर क्यों हर पीढ़ी को, भारतीयों को ही नहीं विदेशियों तक को अगर आकर्षित करता आया है तो कोई तो वजह होगी ही. सोमनाथ मंदिर ही नहीं मंदिर का मुख्य द्वार भी इतिहास के पन्नों में खास अहमियत रखता है, जिनको वापस लाने की दो अहम सेनानायकों ने कसमें खाईं, एक मराठा नायक और दूसरा अंग्रेजी अफसर और दोनों ने ही कसमें पूरी कीं, लेकिन फिर भी उन्हें कामयाब नहीं कहा जाता.
दरअसल सोमनाथ मंदिर पर इतने आक्रमण सदियों में हो चुके थे कि कोई भी ये ठीक से दावा नहीं कर सकता कि उसके मुख्य द्वार को कौन सा हमलावर उखाड़कर ले गया था. मंदिर की मूर्तियां तो गजनबी भी लेकर गया और अलाउद्दीन खिलजी का सिपहसालार उलूग खान भी, दोनों ही मूर्तियां अपने अपने शहरों यानी गजनी और दिल्ली की मस्जिदों की सीढियों में लगवा दी थीं. सोमनाथ मंदिर कैसे इस देश की अस्मिता का प्रतीक बन गया था कि इस पर राज करने वाले कई सेनानायकों के लिए उसका मुख्य द्वार वापस लाना एक प्रतिष्ठा की बात थी, चाहे वो मराठे हों या फिर विदेशी अंग्रेज.
1761 के पानीपत के तीसरे युद्ध के बाद मराठा ताकत कमजोर हो चुकी थी. ऐसे में एक मराठा वीर ने फिर से मराठा ताकत को झकझोरा और धीरे धीरे वो नौबत आई कि उसने अपनी मर्जी के मुगल बादशाह को दिल्ली की गद्दी पर बैठा दिया. उस मराठा वीर का नाम था महादजी शिंदे या सिंधिया. महादजी की वजह से पूरे देश में एक बार फिर मराठों की तूती बोलने लगी थी. ऐसे में महादजी को भी गुजरात दौर में ये लगा कि सोमनाथ मंदिर का मुख्य द्वार मंदिर में दोबारा वापस आना चाहिए. इसी प्रतिज्ञा के साथ महादजी ने लाहौर पर हमला बोल दिया, ये घटना 1782 की है, महमूद शाह से सामना हुआ. दरअसल महादजी को सूचना मिली थी कि सोमनाथ मंदिर के मुख्य द्वार लाहौर के महमूद शाह के पास हैं. जीत के बाद वो चांदी के तीन गेट साथ लाया, लेकिन पुजारियों ने उन्हें लेने से मना कर दिया. हालांकि इस बात की जानकारी नहीं है कि वो असली थे या नहीं या फिर पुजारी ने क्यों वो मुख्य द्वार लेने से मना कर दिया. लेकिन वो दरवाजे बाद में उज्जैन भिजवा दिए गए और महाकालेश्वर ज्योर्तिलिंग और उज्जैन के गोपाल मंदिर में रखे हुए हैं.
इस घटना के करीब 60 साल बाद फिर किसी को सोमनाथ मंदिर के इन दरवाजों की याद आई और इन्हें याद करने वाला था एक ब्रिटिश अफसर. दरअसल तब तक भारत के ज्यादातर हिस्से पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया था, जहां सीधा शासन नहीं था, वहां राजाओं से ऐसी संधियां थीं कि अंग्रेजों की ही हुक्म चलता था. तो ऐसे में अंग्रेज अधिकारी भी खुद को भारतीयों का सर्वेसर्वा समझने लगे थे. उनको भी गुजरात के इस सोमनाथ मंदिर की महत्ता, उसके अतीत के वैभव और होने वाले हमलों की खबर लगी तो उन्हें भी लगा कि सोमनाथ मंदिर के इन ऐतिहासिक दरवाजों को लाकर वो भारतीयों के दिलों में अपनी श्रद्धा और धाक दोनों जमा सकते हैं.
इस अंग्रेज अफसर का नाम था एडवर्ड लॉ जो एलनबरो के नाम से मशहूर था, ये भारत में 1842 से 1844 तक अंग्रेजी गर्वनर जनरल था. पद संभालते ही ही इसने ब्रिटिश आर्मी को फरमान जारी किया कि गजनी से सोमनाथ मंदिर के दरवाजे लेकर आए. उसका ये मानना था कि चूंकि महमूद गनजबी के सोमनाथ मंदिर पर हमले और लूट के कहानी ज्यादा प्रचलित थी, तो वो दरवाजे मूर्तिय़ों और खजाने के साथ वही गजनी लेकर गया होगा. गवर्नर जनरल के आदेश पर अंग्रेजी कमांडर विलियम नॉट ने अफगानिस्तान कूच किया, 43वीं बंगाल नेटिव इनफैंट्री ने नॉट की अगुवाई में 30 अगस्त को गजनी पर हमला किया और 6 सितम्बर तक गजनी के किले को जीत लिया.
गजनी से सोमनाथ मंदिर के दरवाजे लेकर वो 17 सितम्बर को काबुल पहुंचा, जहां कमांडर इन चीफ पॉलक उसका इंतजार कर रहा था. दिसम्बर 1842 में सतलज नदी पार की. गर्वनर जनरल नॉट से इतना खुश हुआ कि फौरन उसको लखनऊ का रेजीडेंट ऑफिसर नियुक्त कर दिया गया और एक स्वोर्ड ऑफ ऑनर से भी नवाजा गया, ऑर्डर ऑफ बाथ की उपाधि भी दी गई. गर्वनर जनरल ने सोमनाथ मंदिर के दरवाजों को लाकर भारत से इंगलैंड तक काफी वाहवाही लूटी, लेकिन फिर गड़बड़ हो गई. सोमनाथ मंदिर के पुजारियों ने उन दरवाजों को सोमनाथ मंदिर का मुख्य द्वार मानने मना कर दिय़ा. जिन दरवाजों को चंदन की लकड़ी का दरवाजा बताया जा रहा था, वो देवदार के निकले, जो अफगानिस्तान में बहुतायत से मिलती थी, दूसरे उनकी डिजाइन भी गुजराती या किसी भारतीय शैली से मिलती जुलती ना लगकर इसलामिक शैली की लग रही थी. उन दरवाजों को उठाकर 1843 में आगरा के लाल किले में रखवा दिया गया जो आज तक वहीं रखे हुए हैं.
जब ये खबर इंग्लैंड में लोगों को पता चली तो इस व्यर्थ अभियान को लेकर ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमंस में इस मुद्दे को जोरशोर से उठाया गया. आखिर इस अभियान में काफी पैसा खर्च हुआ था. विपक्ष ने ब्रिटिश सरकार की नाक में दम कर दिया था. ऐसे में सरकार का गुस्सा गर्वनर जनरल पर उतरा और कई और नाकामियों के चलते अगले साल ही उन्हें उस पद से हटाकर वापस बुला लिया गया. इस तरह आज तक पता नहीं चल पाया कि सोमनाथ मंदिर के असली दरवाजों का क्या हुआ, दो दो बार उन्हें लेकर चढाई हो गई, विजय भी मिली लेकिन फिर भी उन दरवाजों को सोमनाथ मंदिर प्रशासन ने नहीं अपनाया. ऐसे में आज भी सोमनाथ मंदिर के दरवाजों का रहस्य बना हुआ है, लेकिन एक दिन जो दरवाजे मराठों या अंग्रेजों द्वारा लाए गए थे, वो भी किसी ना किसी म्यूजियम का हिस्सा जरूर होंगे और आने वाली पीढ़ियों को ये कहानिय़ां दिलचस्पी से सुनाई जाएगीं.
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