नई दिल्लीः मधुमेह के रोगियों में रोग की पहचान होने के पांच वर्ष बाद पैर और आंखों की जांच अनिवार्य होगी। स्वास्थ्य महानिदेशालय ने देश भर के डॉक्टरों के साथ टाइप 1 मधुमेह के रोगियों के लिए उपचार प्रोटोकॉल साझा किया है। यह नए और पुराने मधुमेह रोगियों में बीमारी के इलाज के बारे में जानकारी प्रदान करता है।
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के वैज्ञानिकों ने एक मानक उपचार वर्कफ़्लो (एसटीडब्ल्यू) बनाया है और इसे डॉक्टरों को भेजा है। मधुमेह रोगियों को उच्च स्तरीय अस्पतालों में रेफर करने के भी मानक हैं। अनियंत्रित हाइपोग्लाइसीमिया के मामले में मरीजों को वहां रेफर किया जा सकता है। ऐसा तब होता है जब रोगी के रक्त में बहुत अधिक शर्करा (ग्लूकोज) हो जाती है। इसके अतिरिक्त, रोगियों या परिवारों को इंसुलिनलेने का प्रशिक्षण देने, पुरानी मधुमेह, घरेलू निगरानी के तरीके और गंभीर मधुमेह केटोएसिडोसिस (डीकेए) के लिए रेफरल की पेशकश की जा सकती है।
नए निर्देशों के मुताबिक, मधुमेह का पता चलने के पांच साल बाद जब मरीज चिकित्सकीय सलाह लेने आए तो उसकी फंडोस्कोपी (रेटिना की जांच), न्यूरोपैथी (पैरों की जांच), यूरिन, क्रिएटिनिन अनुपात, थायराइड की टीएसएच जांच और लिपिड प्रोफाइल (रक्त जांच) कंपल्सरी होगा। इन जांचों के जरिये यह पता लगाना आसान है कि मधुमेह ने 5 साल में मरीज को कितना और क्या नुकसान पहुंचाया है।
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