देश-प्रदेश

सरदार पटेल के इस प्लान से हुई थी अमूल कंपनी की शुरुआत

नई दिल्ली, ..तो बात 76 साल पुरानी है. तब अंग्रेजों के खिलाफ भारत की आजादी का आंदोलन अपने अंतिम दौर में था और स्वतंत्र भारत की सुगबुगाहट तेज होने लगी थी. लेकिन आजादी की लड़ाई से इतर गुजरात के कैरा जिला के किसान एक बड़ी समस्या का सामना कर रहे थे. गाय और भैंस का दूध बेचकर अपना घर-बार चलाने वाले किसान दलालों के बीच फंस गए थे. उन्हें दूध का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा था और दलाल उनके ही दूध को बेचकर मोटा पैसा कमा रहे थे. दूध का कारोबार ठेकेदारों और दलालों के बीच फंस गया था.

ऐसा बना अमूल

चूंकि किसानों के पास दूध को लंबे समय तक रखने की कोई व्यवस्था नहीं थी, इसलिए इसका फायदा उठाकर दलाल पैसे कमा रहे थे. वे किसानों से औने-पौने दाम पर दूध खरीदकर महंगे दामों पर बेच देते थे, एक समय ऐसा भी आया जब खुद के साथ हो रहे शोषण के खिलाफ कैरा के किसानों के भीतर चिंगारी सुलगनी शुरू हो गई. इस चिंगारी को सरदार वल्लभभाई पटेल ने हवा दी और चिंगारी आग बन गई. किसान एकजुट हुए और दूध को बेचने के लिए एक कॉपरेटिव की नींव पड़ी, इसका नाम रखा गया कैरा जिला कॉपरेटिव दूध उत्पादक संगठन, जिसके दूध और तमाम प्रोडक्ट्स आज अमूल के नाम से दुनिया के कई देशों में बिक रहे हैं.

अमूल के बनने की कहानी

अमूल के बनने की कहानी किसानों के संघर्ष की कहानी है, किसानों के त्याग और विद्रोह की कहानी है और कहानी है ऐसे तीन शख्स की, जिन्होंने किसानों के साथ मिलकर देश में दूध की नई धारा बहा दी. इस कहानी की शुरुआत 1945 में हुई. उस समय कैरा के कम पढ़े-लिखे किसान इस बात को समझ चुके थे कि उनके के साथ अन्याय हो रहा है. लेकिन किसानों का गुस्सा उस वक्त फूट पड़ा, जब गवर्मेंट ऑफ बॉम्बे ने बॉम्बे मिल्क स्कीम की शुरुआत कर दी. दरअसल, इस स्कीम के तहत दूध को गुजरात के आणंद से 427 किलोमीटर दूर बॉम्बे (अब मुंबई) भेजा जाना था, लेकिन इसे आणंद से मुंबई लेकर जाना आसान नहीं था, क्योंकि दूध के खराब होने का खतरा बहुत ज्यादा था. ऐसे में एक ही स्थिति में दूध ट्रांसपोर्ट किया जा सकता थे, जब उसे आणंद में ही स्टोर किया जाता.

इसके बाद गवर्मेंट ऑफ बॉम्बे ने पॉलसन लिमिटेड से एग्रीमेंट किया, इस एग्रीमेंट के तहत उसे आणंद से बॉम्बे रेगुलर बेसिस पर मिल्क सप्लाई करना था. ये एग्रीमेंट किसानों को छोड़कर बाकी सभी के लिए एक मुनाफे का सौदा था. लेकिन किसी ने भी दूध उत्पादकों के लिए कीमत को तय करना ज़रूरी नहीं समझा. लिहाजा इस स्कीम के बाद भी किसानों का हालत खराब ही रही, इसके बाद किसानों के भीतर इस सिस्टम के खिलाफ चिंगारी भड़कने लगी, जिसे आग दी सरदार वल्लबभाई पटेल ने.

सरदार पटेल ने दिया सुझाव

इसी क्रम में एक दिन किसानों का समूह सरदार पटेल से मदद मांगने के लिए पहुंचा, सरदार पटेल 1942 से ही देश में किसानों के कॉपरेटिव को बढ़ावा दे रहे थे. त्रिभुवन दास पटेल के नेतृत्व में कैरा के किसान अपनी परेशानी लेकर सरदार पटेल के पास पहुंचे थे. सरदार पटेल ने उनकी समस्या सुनी और किसानों को खुद की एक कॉपरेटिव सोसाइटी खोलने का सुझाव दिया. उन्होंने कहा कि इस कॉपरेटिव सोसाइटी का खुद का पाश्चुराइजेशन प्लांट होगा, इससे वो सीधे बॉम्बे सप्लाई कर पाएंगे. सरदार पटेल ने किसानों को समझाया कि उन्हें सरकार से कॉपरेटिव बनाने की इजाज़त लेनी चाहिए. अगर अंग्रेजी हुकूमत इसके लिए अनुमति नहीं देती है, तो उन्हें ठेकेदारों को दूध देना ही बंद कर देना चाहिए. साथ ही सरदार पटेल ने किसानों से साफ कर दिया कि हो सकता है इसके लिए उन्हें हड़ताल भी करनी पड़ सकती है. इस वजह से किसानों को कुछ नुकसान भी झेलना पड़ेगा, पटेल ने कहा कि अगर किसान नुकसान को झेलने के लिए तैयार हैं, तो वो उनके साथ खड़े रहेंगे.

किसानों ने की हड़ताल

किसानों ने सरदार पटेल की बात मान ली, और पटेल ने अपने भरोसेमंद सहयोगी मोरारजी देसाई को कैरा भेजा. देसाई को कैरा भेजते हुए एक कॉपरेटिव सोसाइटी तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. इसके लिए उन्होंने 4 जनवरी 1946 को समरिखा गांव में एक बैठक बुलाई, जिसमें तय हुआ कि कैरा जिले के सभी गांव में एक-एक मिल्क सोसाइटी बनाई जाएगी. वो सभी एक यूनियन को अपने दूध की सप्लाई करेंगी और सरकार को इस यूनियन से दूध खरीदने के लिए अनुबंध करना होगा. लेकिन अंग्रेजी हुकूमत ने कॉपरेटिव बनाने की मंजूरी नहीं दी, लिहाजा किसान धरने पर बैठ गए. 15 दिनों तक चली हड़ताल के दौरान कैरा जिला से एक बूँद भी दूध बाहर नहीं गया, जिसकी वजह से आणंद से बॉम्बे तक दूध की सप्लाई ठप हो गई.

कॉपरेटिव की पड़ी नींव

किसानों की हड़ताल के चलते बॉम्बे मिल्क स्कीम खतरे में पड़ गई, ऐसे में जब हालात ज्यादा बिगड़ने लगे, तो बॉम्बे के मिल्क कमिश्नर कैरा पहुंचे. किसानों की मांग को स्वीकार कर लिया और यहीं से शुरुआत हुई कैरा जिला कॉपरेटिव दूध उत्पादक संगठन की. 14 दिसंबर 1946 को इसे आधिकारिक रूप से इसे रजिस्टर किया गया. 1948 से कैरा जिला कॉपरेटिव दूध उत्पादक संगठन ने बॉम्बे स्कीम के लिए दूध की सप्लाई शुरू की, उस समय सिर्फ दो गांव के कुछ किसान हर दिन 250 लीटर दूध इकट्ठा कर रहे थे. बॉम्बे मिल्क मार्केट के होने से किसानों को दूध बेचने के लिए मार्केट मिल गया.

कैसे पड़ा अमूल नाम

साल 1948 तक 400 से अधिक किसान गांवों की कॉपरेटिव सोसाइटी से जुड़ चुके थे, लेकिन किसानों की बढ़ती संख्या की वजह से कॉपरेटिव की मुश्किलें भी बढ़ने लगी थी. दूध ज्यादा जमा होने लगा था जबकि बॉम्बे के दूध मार्केट में दूध की खपत की क्षमता सीमित थी. ऐसे में जमा दूध के खराब होने का खतरा बना रहता. तब इस कॉपरेटिव में एंट्री हुई डॉ. वर्गीज कुरियन की, बता दें कुरियन ने मिशीगन स्टेट यूनिवर्सिटी से 1948 में मेकेनिकल इंजीनियरिंग में मास्टर डिग्री हासिल की थी. इसमें डेयरी इंजीनियरिंग भी एक विषय था, त्रिभुवन दास पटेल ने कुरियन को कॉपरेटिव से जुड़कर किसानों की मदद करने को कहा. इसके बाद कुरियन ने कैरा जिला कॉपरेटिव को अपनी पूरी उम्र ही दे दी, वो डॉ. वर्गीज कुरियन ही थे, जिन्होंने कैरा जिला कॉपरेटिव का नाम बदलकर ‘अमूल’ रखा था.

 

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Aanchal Pandey

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