Ram Mandir का इतिहास, आज़ादी के बाद न्यायलय की बड़ी लड़ाई

नई दिल्ली : गुरुवार (5 जनवरी) को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अयोध्या में तैयार हो रहे राम मंदिर को लेकर बड़ा ऐलान कर दिया है. त्रिपुरा में जनता को संबोधित करते हुए उन्होंने अगले साल की शुरुआत तक राम मंदिर के बनकर तैयार होने की बात कही है. उन्होंने कहा कि 1 जनवरी […]

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Ram Mandir का इतिहास, आज़ादी के बाद न्यायलय की बड़ी लड़ाई

Riya Kumari

  • January 5, 2023 10:17 pm Asia/KolkataIST, Updated 2 years ago

नई दिल्ली : गुरुवार (5 जनवरी) को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अयोध्या में तैयार हो रहे राम मंदिर को लेकर बड़ा ऐलान कर दिया है. त्रिपुरा में जनता को संबोधित करते हुए उन्होंने अगले साल की शुरुआत तक राम मंदिर के बनकर तैयार होने की बात कही है. उन्होंने कहा कि 1 जनवरी 2024 को अयोध्या में राम मंदिर तैयार मिलेगा। इस दौरान उन्होंने कांग्रेस पर जमकर निशाना भी साधा और बताया कि जब से देश आज़ाद हुआ तब से ये मामला कोर्ट में ही उलझा रहा था. मोदी जी आए और एक दिन SC का फैसला आया.

कई दशकों बाद बना मंदिर

अमित शाह के ऐलान के बाद राम मंदरी एक बार फिर चर्चा में है. करोड़ों हिंदुओं की आस्था से जुड़े इस मुद्दे पर एक नज़र डालना बेहद जरूरी है. इस मुद्दे ने सैंकड़ों सालों तक पूरे देश को भावनात्मक रूप से अपनी ओर खींचा है. कई राजनीतिक चुनौतियों के बाद अब अयोध्या का राम मंदिर बनकर तैयार होने जा रहा है. बाबरी विवाद, सुप्रीम कोर्ट में लंबी लड़ाई और फिर शीर्ष अदालत का फैसला राम मंदिर का विवाद आज़ादी से भी पुराना है. देश वासियों ने कई दशकों तक इस मंदिर के बनने का इंतज़ार किया है. जो कइयों का बस सपना रहा अगले ही साल यह बकर तैयार होने वाला है. आइए एक नज़र डालते हैं आज़ादी के बाद राम मंदिर के इतिहास पर.

 

न्यायलाय पहुंचा मामला

19 जनवरी 1885 के दिन ये विवाद पहली बार न्यायलय पहुंचा. ढांचे के बाहरी आंगन में स्थित राम चबूतरे पर बने अस्थायी मंदिर को पक्का बनाने और छत डालने के लिए इज़ाज़त मांगी गई. पहली बार निर्मोही अखाड़े के मंहत रघुबर दास ने सब जज फैजाबाद के न्यायालय में अंग्रेजी सरकार के खिलाफ स्वामित्व को लेकर मुकदमा किया। हालांकि उस समय जज ने निर्णय दिया कि वहां हिंदुओं को पूजा-अर्चना का अधिकार देते हैं. इसके अलावा वह जिलाधिकारी के फैसले के खिलाफ मंदिर को पक्का बनाने और छत डालने की अनुमति नहीं देंगे.

आजाद भारत की कहानी

22 दिसंबर 1949: आज़ादी के दो सालों बाद ढांचे के भीतर गुंबद के नीचे मूर्तियों का प्रकटीकरण हुआ. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और मुख्यमंत्री थेगोविंद वल्लक्ष पंत थे. साथ ही जिलाधिकारी थे केके नैय्यर।

16 जनवरी 1950 : फैजाबाद के सिविल जज की अदालत में गोपाल सिंह विशारद ने मुकदमा दायर किया. उन्होंने इस मुक़दमे में ढांचे के मुख्य (बीच वाले) गुंबद के नीचे स्थित भगवान की प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना करने की मांग की.

5 दिसंबर 1950: महंत रामचंद्र परमहंस ने इसी तरह की याचना करते हुए सिविल जज के यहां मुकदमा दायर किया. इस मुकदमे में दूसरे पक्ष को संबंधित स्थल पर पूजा-अर्चना में बाधा ना डालने का आदेश देने की मांग की गई.

3 मार्च 1951: मामले में न्यायालय ने दूसरे पक्ष यानी मुस्लिम पक्ष को पूजा-अर्चना में बाधा न डालने की हिदायत दी थी. ऐसा ही आदेश परमहंस की ओर से दायर मुक़दमे में भी दिया गया था.

17 दिसंबर 1959: निर्मोही अखाड़े के छह व्यक्तियों ने रामानंद संप्रदाय की ओर से मुकदमा दायर कर इस स्थान पर दावा ठोका. इसके अलावा उन्होंने मांग की कि रिसीवर प्रियदत्त राम को हटाकर उन्हें पूजा-अर्चना की अनुमति दी जाए जो की उनका अधिकार है.

18 दिसंबर 1961: उत्तर प्रदेश के केंद्रीय सुन्नी वक्फ बोर्ड ने इस विवादित स्थान को लेकर मुकदमा दायर करवाया. उन्होंने इस मुक़दमे में प्रार्थना की कि यह जगह मुसलमानों की है. ढांचे को हिंदुओं से लेकर मुसलमानों को दे दिया जाए और ढाँचे के अंदर की मूर्तियां निकाल दी जाएं.

 

निर्णायक कारसेवा आंदोलन

24 मई 1990

हरिद्वार में विराट हिंदू सम्मेलन किया गया. इस सम्मलेन में संतों ने देवोत्थान एकादशी (30 अक्तूबर 1990) को मंदिर निर्माण के लिए कारसेवा की घोषणा की।

1 सितंबर 1990

अयोध्या में अरणी मंथन कार्यक्रम किया गया. इस कार्यक्रम से अग्नि प्रज्ज्वलित की गई। विहिप ने इसे ‘राम ज्योति’ का नाम देकर ज्योति को गांव-गांव पहुंचाने के अभियान के सहारे लोगों को कारसेवा में हिस्सेदारी के लिए तैयार करने का काम किया. तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवा पर प्रतिबंध भी लगाया और कहा, ‘अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा।’

25 सितंबर 1990

भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने कारसेवा में हिस्सेदारी की. गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा शुरू हुई लेकिन उन्हें बिहार के समस्तीपुर में तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव ने रोक लिया और गिरफ्तार कर लिया. इसी साल भाजपा ने केंद्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया।

30 अक्तूबर 1990

अयोध्या में कारसेवक जन्मभूमि स्थल की ओर बढ़े जहां सुरक्षा बालों और कारसेवकों के बीच भिड़ंत हुई. अशोक सिंहल समेत कई कारसेवक घायल हुए. कुछ कारसेवकों ने गुंबद पर पहुंचकर भगवा झंडा भी लहराया.

2 नवंबर 1990

कारसेवकों के जन्मभूमि मंदिर कूच की घोषणा की गई. इस दौरान पुलिस ने कारसेवकों पर गोली चलाई थी. कोठारी बंधुओं समेत कई कारसेवकों की मृत्यु भी हुई. इसके विरोध में जेल भरो आंदोलन भी चलाया गया.

4 अप्रैल 1991

दिल्ली में मंदिर निर्माण के संबंध में विराट रैली की गई. उसी दिन मुलायम सिंह यादव सरकार का इस्तीफ़ा भी आया. इसके बाद चुनाव हुए और कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार आई.

अक्तूबर 1991

ढांचे और उसके आसपास की 2.77 एकड़ जमीन कल्याण सिंह सरकार ने अपने अधिकार में ले ली. श्रीराम जन्मभूमि न्यास ने श्री राम कथाकुंज के लिए भूमि मांगी और कल्याण सिंह सरकार ने 42 एकड़ जमीन श्रीराम कथाकुंज के लिए न्यास को पट्टे पर दी थी. इसके बाद न्यास ने भूमि का समतलीकरण करवाया.

6 दिसंबर 1992 :

अयोध्या पहुंचे हजारों कारसेवकों ने विवादित ढाँचे को ढहा दिया. इसी दिन इसकी जगह शाम को अस्थायी मंदिर भी बनाया गया और पूजा अर्चना शुरू कर दी गई. केंद्र की तत्कालीन नरसिंह राव सरकार ने कल्याण सिंह समेत अन्य राज्यों में भाजपा की सरकार को बर्खास्त कर दिया. उत्तर प्रदेश समेत देश में कई जगह सांप्रदायिक हिंसा हुई और सैंकड़ों लोग मारे गए.

6 दिसंबर 1992 : अयोध्या श्रीराम जन्मभूमि थाना में हजारों लोगों पर मुकदमा।

8 दिसंबर 1992 : अयोध्या में कर्फ्यू लगाया गया. वकील हरिशंकर जैन ने उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में गुहार लगाते हुए राम को भोग अर्पित करने की अनुमति मांगी.

16 दिसंबर 1992 : ढांचे ढहाने के लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान करने को लेकर लिब्राहन आयोग गठित किया गया.

1 जनवरी 1993: न्यायाधीश हरिनाथ तिलहरी ने दर्शन-पूजन की अनुमति दे दी। इसी महीने 7 जनवरी को केंद्र सरकार ने ढांचे वाले स्थान और कल्याण सिंह सरकार द्वारा न्यास को दी गई भूमि समेत कुल 67 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया।

अप्रैल 2002: विवादित स्थल का मालिकाना हक उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने तय करने के लिए सुनवाई शुरू की।
5 मार्च 2003: संबंधित स्थल पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को खुदाई का निर्देश दिया।
22 अगस्त 2003 : न्यायालय को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने रिपोर्ट सौंपी। जमीन के नीचे इसमें संबंधित स्थल पर एक विशाल हिंदू धार्मिक ढांचा (मंदिर) के होने की बात कही गई।

5 जुलाई 2005: विवादित स्थल पर छह आतंकियों के आत्मघाती आतंकी दस्ते का हमला हुआ. सभी आतंकियों समेत तीन नागरिक भी मारे गए.

30 जून 2009: तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह को लिब्राहन आयोग ने रिपोर्ट सौंपी। इस आयोग का कार्यालय कुल 48 बार बढ़ाया गया।

30 सितंबर 2010: तीनों पक्षों श्रीराम लला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड में इस स्थल को बराबर-बराबर बांटने का आदेश। बीच वाले गुंबद के नीचे जहां मूर्तियां थीं, उसे जन्मस्थान माना।

21 मार्च 2017 : मध्यस्थता से मामले सुलझाने की पेशकश के साथ सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि दोनों पक्ष राजी हों तो वह भी इसके लिए तैयार है।

आ ही गया फैसला

6 अगस्त 2019 : SC में प्रतिदिन सुनवाई शुरू की।

16 अक्तूबर 2019: सुनवाई पूरी कर इस पूरे विवाद पर फैसला सुरक्षित रखा गया. 40 दिनों तक सुनवाई चली.

9 नवंबर 2019: संबंधित स्थल को सर्वोच्च न्यायालय ने श्रीराम जन्मभूमि माना। 2.77 एकड़ भूमि रामलला के स्वामित्व की मानते हुए निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड के दावों को खारिज किया गया.

इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि मंदिर निर्माण के लिए केंद्र सरकार तीन महीने में ट्रस्ट बनाए। साथ ही इस ट्रस्ट में निर्मोही अखाड़े के एक प्रतिनिधि को शामिल करे। वैकल्पिक रूप से उत्तर प्रदेश की सरकार मुस्लिम पक्ष को मस्जिद बनाने के लिए 5 एकड़ भूमि किसी उपयुक्त स्थान पर उपलब्ध कराए।

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