नई दिल्ली : इस साल देश आज़ादी की 75वीं सालगिरह मना रहा है. पूरा देश इस उपलक्ष में आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है. 75 वर्षों के बाद देश में काफी कुछ बदला है. आज़ादी से अब तक कई क्षेत्रों में देश ने तरक्की की है. आज हम आपको भारतीय सिनेमा में आए बदलावों के बारे में बताने जा रहे हैं. तो चलिए जानते हैं 75 सालों में कैसा रहा हिंदी सिनेमा का सफर.
फिल्मों को समाज का आइना कहा जाता है और इस आइने में सबकुछ साफ नजर आए इसलिए समय-समय पर फिल्मों को लेकर कई एक्सीपेरिमेंट भी हुए हैं. समाज को बदल देने वाली फिल्मों में आज़ादी से लेकर आज तक कई तरह के रचनात्मक और व्यावसायिक उतार-चढ़ाव देखे गए जहां अब पर्दा टीवी पर और टीवी फ़ोन पर पहुँच गया. सिनेमा ने पैन इंडियन फिल्म्स से लेकर ओटीटी तक का भी सफर तय किया. इसी बीच सिनेमा में कई तरह की धारणाएं बदली और दशकों बाद भी कुछ चीज़ें समान रहीं. आइये एक नज़र दशकों तक दर्शकों के पसंदीदा हिंदी सिनेमा के सफर पर.
ये बात अलग है कि आजादी से पहले ही भारत में फिल्मों का निर्माण शुरू हो गया था लेकिन इसका असल विकास तो आज़ादी के बाद ही शुरु हुआ. दादा साहेब फाल्के ने भारत को पहली फिल्म दी थी. यह फिल्म साल 1913 में आई जिसका नाम राजा हरिश्चंद्र था. यह बेरंग और मूक फिल्म थी जिसने भारत में हिंदी सिनेमा की नींव रखी. हालांकि इसके बाद भी करीब एक हजार से अधिक फिल्में बनीं लेकिन उनका कोई निशान बाकी नहीं है. बोलती फिल्मों की शुरुआत आज़ादी से कुछ समय पहले ही 1931 से हुई.
जब भारत को उसकी पहली बोलने वाले फिल्म ‘आलम आरा’ मिली. उस दौरान में भी हिंदी सिनेमा की कुछ यादगार फिल्में जैसे जिंदा लाश, अछूत कन्या, दुनिया ना माने, पुकार, किस्मत और रतन हैं. आज सिनेमा को 100 से अधिक वर्ष हो चुके हैं और आज़ादी के बाद से 75 आज़ादी से पहले और बाद के कुछ समय तक फिल्मों का उद्देश्य सामाजिक, और धार्मिक धारणाओं पर ही केंद्रित रहा. विमल रॉय, वी शांताराम, महबूब, गुरु दत्त, सत्यजीत रे वो नाम हैं जिन्होंने सिनेमा की दिशा को बदलाव की रफ़्तार दी.
फिल्म की कहानी, गीत, संगीत, पटकथा से लेकर लेटेस्ट तकनीक तक आज अगर सिनेमा को देखें तो सब कुछ बेहतर हुआ है. सिनेमा डिजिटल कैमरा और आधुनिक तकनीक की बदौलत भी काफी विकसित हुआ है. भारतीय सिनेमा में क्लासिक और आर्ट फिल्मों का बनना 70 के दशक तक चलता रहा जब व्यवसायीकरण का भी इसके साथ जुड़ाव था. 2000 के शुरुआती दौर की बात करें तो ये समय ही मसाला मूवीज़ का असल दौर है. 2000 का शुरूआती दौर और 1990 का अंत सिनेमा में महत्वपूर्ण पड़ाव है. यहां सिनेमा आज के सिनेमा से अलग था. उस समय लोगों को जो कुछ भी परोस दिया जाता था उसके पीछे सामाजिक दायित्व और असलियत दिखाने पर को जोर नहीं होता था.
अगर बीते दस सालों की बात करे तों सिनेमा ने एक बार फिर करवट ली है. भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में बायोपिक का दौर चल पड़ा है. लेखनी अभिनय और निर्देशन के स्तर पर बड़े बदलाव हुए हैं. ऑडियंस का स्वाद भी काफी बदला है. अब क्षेत्रीय सिनेमा का योगदान भी ज्यादा है हालाँकि ये उस समय भी था लेकिन ऑडियंस के बीच इसे वो प्यार नहीं मिला जो कभी मिलना चाहिए था. अब के सफर में बॉलीवुड बनाम साउथ इंडस्ट्री की दौड़ भी शुरू हो चुकी है.
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री खराब कंटेंट के कारण दर्शकों की नाराजगी झेल रही है. ’83’, ‘जयेशभाई ज़ोरदार’, ‘सम्राट पृथ्वीराज’, ‘बच्चन पांडे’ और ‘धाकड़’ और ऐसी ही कई फिल्मों ने हाल के दिनों में दर्शकों को हिंदी सिनेमा को लेकर नाराज़ किया है. कमजोर कंटेंट का होना इसका सबसे बड़ा कारण है. कभी सलमान शाहरुख और अक्षय पर मरने वाले सिनेप्रेमी अब महेश बाबू, रामचरण और यश के दीवाने हैं.
ये बात सच नहीं है कि कोरोना काल में डिजिटल प्लेटफॉर्म का उदय हुआ हालांकि ओटीटी फिल्मों को असल लोकप्रियता उस दौर में ही मिली. सिनेमा घरों के अचानक बंद हो जाने से भारतीय दर्शकों में नेटफ्लिक्स एंड चिल का प्रचलन अधिक हुआ. कई सारे ओटीटी प्लेटफॉर्म भी आ गए. इससे ऑप्शन भी बढ़ा और आज ओटीटी हिंदी सिनेमा के बाद सबसे बड़ा विकल्प है.
आज़ादी के बाद से अब तक अगर देखें तो फिल्मों पर हमेशा से ही कॉपी का आरोप लगता आया है. फिल्मों को लेकर ये भी आलोचना की जाती है कि वह सच से दर्शकों को अनजान रखने का काम भी करती आई हैं. अगर पिछले एक दशक की ही फिल्मों को उठा कर देखा जाए तो आधे से अधिक फिल्में किसी ना किसी कहानी की कॉपी रही हैं. हाल ही के दशकों में ये इलज़ाम सिर्फ फिल्म पर ही सीमित नहीं रहे हैं बल्कि फिल्म के गानों पर भी चोरी का इलज़ाम लगता आया है. आज़ादी के इतने समय बाद अब अधिकांश मेकर्स अपनी ओरिजिनालिटी खो रहे हैं.
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