मशहूर शायर मिर्जा गालिब की आज 220वीं जयंती पर गूगल ने डूडल बनाकर किया सम्मानित

27 दिसंबर 1796 आगरा में जन्‍मे गालिब के पूर्वज तुर्की से भारत आए थे। गालिब के दादा के दो बेटे व तीन बेटियां थी। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान व मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग खान उनके बेटों का नाम था

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मशहूर शायर मिर्जा गालिब की आज 220वीं जयंती पर गूगल ने डूडल बनाकर किया सम्मानित

Aanchal Pandey

  • December 27, 2017 7:51 am Asia/KolkataIST, Updated 7 years ago

नई दिल्ली. गूगल ने जाने माने शायर मिर्जा गालिब की आज 220वीं जयंती पर उनको डूडल बनाकर सम्मानित किया है. मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को मुगल शासक बहादुर शाह के शासनकाल में आगरा में हुआ था. एक सैन्य परिवार में जन्मे मिर्जा गालिब ने फारसी, उर्दू और अरबी भाषा की पढाई की थी. गूगल ने जो डूडल बनाया है उसमें उनको हाथ में पेन और पेपर लिए दिखाया गया है. और डूडल के बैकग्राउंड में मुगलकालीन ईमारत जैसी फोटो है. 13 साल की उम्र में मुस्लिम रिवाजों के अनुसार शादी होने के बाद वे दिल्ली में आकर बस गए. गालिब को बचपन से ही शेर-ओ-शायरी का शौक था. ‘इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया वरना हम भी आदमी थे काम के’ दोस्तों गालिब का ये शेर तो आपने भी कई बार बोला और सुना होगा.

उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग खान अहमद शाह के शासन काल में समरकंद से भारत आए थे. जोकि दिल्ली, लाहौर, जयपुर के बाद अन्त में आगरा में बस गए. ग़ालिब ने 11 वर्ष की अवस्था से ही उर्दू एवं फ़ारसी में गद्य तथा पद्य लिखने आरम्भ कर दिया था. इनको उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है. 13 साल की उम्र मे उनका विवाह नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से हो गया था. ग़ालिब विवाह के बाद वह दिल्ली आ गये और आख़िरी वक्त तक दिल्ली में रहे. विवाह के बाद ‘ग़ालिब’ की आर्थिक कठिनाइयां बढ़ती ही गईं.

1850 में बहादुर शाह जफर द्वितीय के दरबार में उनको दबीर-उल-मुल्क की उपाधि दी गयी. 1854 में खुद बहादुर शाह जफर ने उनको अपना कविता शिक्षक चुना. मुगलों के पतन के दौरान उन्होंने मुगलों के साथ काफी वक़्त बिताया. दिल्ली में उन्हें बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा. गालिब के पास खाने तक के पैसे नहीं हुआ करते थे. उन्होंने लोगों के मनोरंजन के लिए शायरी सुनाने लगे. मिर्जा ने दिल्ली में ‘असद’ नाम से शायरी शुरू की. लोगों ने उनकी शायरी को सराहा और गालिब शायरी की दुनिया के महान शायर बन गए.

15 फरवरी 1869 को गालिब ने आखिरी सांस ली. उन्हें दिल्ली के निजामुद्दीन बस्ती में दफनाया गया. उनकी कब्रगाह को मजार-ए-गालिब के नाम से जाना जाता है. ग़ालिब पुरानी दिल्ली के जिस मकान में रहते थे, उसे गालिब की हवेली के नाम से जाना जाता है.

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