नई दिल्लीः अक्सर लोग बापू और भगत सिंह की फांसी की सजा की सजा से जुड़ी बहस पर बहस करते नजर आते है। अधिकांश लोगों में यह में यह धारणा बनी हुई है कि बापू ने इसके लिए अपनी तरफ से कोई पहल नहीं की। अगर वह समुचित प्रयास करते तो उस समय भगत सिंह की फांसी की सजा माफ हो सकती थी। आज पूरा देश गांधी जयंती मना रहा है। तो हमने इस घटना से जुड़े तथ्यों को आपके सामने ला रहे हैं ताकि आप इन तथ्यों से वास्तविकता को जान आप खुद सही निर्णय ले सकें।
घटना 8 अप्रैल, 1929 की है, जिस दिन भगत सिंह अपने साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ दिल्ली में केंद्रीय असेंबली में दो बम फेंके थे। बम से किसी प्रकार की हिंसा नहीं हुई। और भगत सिंह ने बिना किसी प्रतिरोध के मौके पर गिफ्तारी भी दी। बम फेंकने का अर्थ भारतीय मसलों पर अंग्रेजी सरकार की चुप्पी को तोड़ने के साथ-साथ पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट से जनमानस की नाराजगी को बताना था। मामले में अंग्रेजों की अदालत ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 7 अक्टूबर 1930 को फांसी की सजा मुकरर की। और अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे इस अन्याय से जनमानस में विरोध की लहर पूरी तरह फैलती। अदालत द्वारा तय तारीख से एक दिन पहले ही भगत सिंह को 23 मार्च 1931 के दिन लाहौर जेल में फांसी दे दी गई।
भगत सिंह की फांसी से 17 दिन पहले यानी 5 मार्च 1931 को वायसराय लॉर्ड इरविन और महात्मा गांधी के बीच एक समझौता पर हस्ताक्षर हुआ, जो सामन्य रूप में गांधी इरविन पैक्ट से प्रचलित हैं। इस समझौते में हिंसा के आरोपियों को छोड़कर जेल में बंद अन्य सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने की बात थी। जिसके बदले में कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन को समाप्त करने के साथ ही दूसरे गोलमेज सम्मेलन में अपने प्रतिनिधि को भेजने राजी हो गई।
इतिहासकार एजी नूरानी अपनी किताब The Trial of Bhagat Singh के 14वें चैप्टर Gandhi’s Truth में लिखते हैं कि भगत सिंह का जीवन बचाने में गांधी ने आधे-अधूरे प्रयास किए। उन्होंने भगत सिंह की मौत की सजा को उम्र कैद में बदलने के लिए वायसराय से जोरदार अपील नहीं की थी।वहीं एक अन्य इतिहासकार अनिल नौरिया का मत है कि गांधी ने भगत सिंह की फांसी को कम कराने के लिए अपने प्रतिनिधि के रूप में तेज बहादुर सप्रू, एमआर जयकर और श्रीनिवास शास्त्री को वायसराय के पास भेजा था। अप्रैल 1930 से अप्रैल 1933 के बीच ब्रिटिश सरकार में गृह सचिव रहे हर्बर्ट विलियम इमर्सन लिखते है कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए गांधी ने ईमानदारी से प्रयासरत थे और उस पर सवाल उठाना शांति के दूत का अपमान है।
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