नई दिल्लीः इंग्लैंड और ब्रिटिश भारत की महारानी क्वीन विक्टोरिया का अंतिम संस्कार 1901 में फरवरी के ही महीने में हुआ था. अब 117 साल बाद फरवरी के ही महीने में बॉलीवुड की क्वीन श्रीदेवी भी चलीं गईं. दिलचस्प बात है कि क्वीन विक्टोरिया अपनी मौत से 4 साल पहले ही अपने अंतिम संस्कार के लिए सारी ख्वाहिशें लिखकर चली गई थीं कि वो कैसे होगा. इसी तरह बॉलीवुड क्वीन श्रीदेवी भी परिवार को बताकर गई हैं एक खास शर्त कि उनके अंतिम संस्कार के वक्त सब कुछ सफेद होना चाहिए. श्रीदेवी के चाहने वालों के लिए ये जानकर हैरत होगी कि सफेद रंग की ही ख्वाहिश क्वीन विक्टोरिया ने भी की थी, क्योंकि वहां काले रंग के कपड़ों की परम्परा थी.
श्रीदेवी की ख्वाहिश के मुताबिक ही घर के परदे सफेद परदों से बदल दिए गए हैं. मुंबई के वरसोवा में बोनी कपूर का बंगला है. वहां से जुहू के मुक्तिधाम तक अंतिम यात्रा निकाली जाएगी, जिसके लिए स्वर्ग वाहन जो तैयार हो रहा है, वो भी पूरी तरह सफेद रंग के कपड़े और फूलों से सजा होगा. पूरे घर में सफेद रंग के मोगरे के फूल ही लगाए जा रहे हैं. यूं तो ऐसे वक्त सभी लोग सफेद कपड़े ही पहनते हैं, फिर भी घर-परिवार और मित्रों से गुजारिश की जा रही है कि श्रीदेवी की आखिरी ख्वाहिश का ख्याल रखते हुए सफेद कपड़े ही पहनें. अंतिम संस्कार में इस्तेमाल करने वाली हर चीज को सफेद रेशमी कपड़ें से बांधा या ढका जा रहा है. चांदनी की विदाई चांदनी जैसे धवल चमकते रंगों के बीच ही होगी.
कुछ इसी तरह की बात लिख गई थीं क्वीन विक्टोरिया 1897 में, उनके यहां काले रंगे के कपड़े अंतिम वक्त में पहनाने की परम्परा थी, लेकिन उनकी ख्वाहिश के मुताबिक उनकी देह को सफेद कपड़े ही पहनाए गए. यहां तक कि उनको दुल्हन वाला घूंघट या वेल भी ओढ़ाया गया. उन्होंने तो कई सारे निर्देश लिख कर दिए थे. उनके पति प्रिंस अलबर्ट का गाउन भी कॉफिन में रखा गया, साथ में उसका प्लास्टर कास्टेड हाथ का पंजा भी. उनके एक पुराने और काफी करीबी सेवक स्वर्गीय जॉन ब्राउन के बालों का एक गुच्छा भी कॉफिन में रखा गया, साथ में जॉन ब्राउन की एक तस्वीर भी. उसके ऊपर फूल रखकर ऐसे छुपा दिया गया ताकि बाकी रिश्तेदार या आम पब्लिक ना देख पाए. 1883 में उन्हें जॉन ब्राउन ने अपनी मां की अंगूठी भी दी थी, उसे भी क्वीन विक्टोरिया की ज्वैलरी में शामिल किया गया था.
क्वीन को ब्लैक करन पसंद नहीं था, इसलिए सब कुछ व्हाइट रखा गया था. वैसे भी राज परिवार में पिछले 64 साल से किसी का अंतिम संस्कार नहीं हुआ था. इसलिए परम्पराओं को निभाने की किसी की जिद भी नहीं थी, क्योंकि ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं थी. क्वीन ये भी चाहती थीं कि उनका अंतिम संस्कार एक फौजी की बेटी की तरह हो, चूंकि उनकी मौत लंदन से काफी दूर हुई थी. इसलिए ट्रेन और शिप के लिए उनकी डैडबॉडी को लाया गया तो एक तोपगाड़ी हमेशा साथ थी. इस तरह उनकी फौजी की बेटी की तरह अंतिम संस्कार वाली ख्वाहिश को पूरा किया गया था.
सबसे दिलचस्प था कि एक व्यक्ति को उनके कॉफिन के पास लाया गया और खास तौर पर क्वीन का चेहरा दिखाने के लिए कॉफिन खोला गया, इतना ही नहीं उसको क्वीन के परिवार और करीबी लोगों के साथ ही पूरे वक्त रहने की इजाजत दी गई. लेकिन वो व्यक्ति उस वक्त बिलकुल सहज नहीं था. तमाम अंग्रेजों के बीच ये अकेला भारतीय था. अगर आपको ये पता चले कि उनका सबसे करीब का व्यक्ति जिसे वो अपने बच्चों से भी ज्यादा पसंद करती थीं वो भारतीय था तो आप चौंक जाएंगे. इतनी ज्यादा करीबी थी दोनों के बीच कि जब क्वीन विक्टोरिया की मौत हुई तो उनके बेटे ने अंतिम संस्कार के बाद जो आदेश दिया वो ये था कि क्वीन ने जितने लैटर्स उसे लिखे हैं, वो सब अभी जला दे और परिवार समेत तुरंत भारत वापस चला जाए। 2017 में हॉलीवुड में क्वीन विक्टोरिया और इस भारतीय के रिश्तों पर एक मूवी भी बनी, ‘विक्टोरिया एंड अब्दुल’.
उसका नाम था अब्दुल करीम, और क्वीन विक्टोरिया से उसकी करीबी वाकई इस कदर थी कि एक बार जब वो थोड़े वक्त के लिए इंडिया वापस गया तो क्वीन विक्टोरिया उसे रोज एक लैटर लिखा करती थी. अब्दुल करीम आगरा का रहने वाला था, और क्वीन की तिहाई से भी कम उम्र का था. अब्दुल का जन्म झांसी के पास ललितपुर में हुआ था, पिता ब्रिटिश सेवा में हॉस्पिटल असिस्टेंट थे, जिन्हें बाद में आगरा जेल ट्रांसफर कर दिया गया, बाद में अब्दुल भी उसी जेल में क्लर्क बन गया. लंदन में भारतीय कालीनों और हैडलूम की एक एक्जीबीशन होनी थी, क्वीन को उसमें आना था. जेल अधीक्षक जॉन टाइलर ने जेल के कैदियों से ढेर सारे कालीन बनवाए, 34 कैदियों के साथ कालीनों को लंदन भिजवाया, क्वीन के लिए दो गोल्ड ब्रेसलेट भी तोहफे में भिजवाए। इसकी सारी जिम्मेदारी अब्दुल के कंधों पर थी. अंग्रेज अधिकारी अब्दुल से काफी खुश थे. अब्दुल भी अंग्रेजी तौरतरीकों और भाषा में पारंगत हो चला था.
1887 में क्वीन अपने शासन की गोल्डन जुबली मनाने जा रही थीं, भारत से भी तमाम रजवाडों से राजाओं को बुलाया गया था. लेकिन महारानी भारतीयों और भारतीय तौरतरीकों के बारे में ज्यादा जानती नहीं थी. वो और जानना चाहती थी. उसने जॉन टेलर से ही दो भारतीय सहायकों को भेजने को कहा. अब्दुल करीम के साथ साथ मोहम्मद बख्श की भी लॉटरी लग गई. भेजने से पहले दोनों को अच्छे से शाही तौरतरीकों और अंग्रेजी तहजीब की ट्रेनिंग दी गई. महारानी से उनकी पहली मुलाकात 23 जून 1887 को हुई, महारानी ने अपनी डायरी में लिखा है, ‘’The other, much younger, is much lighter [than Buksh], tall, and with a fine serious countenance. His father is a native doctor at Agra. They both kissed my feet’’।
क्वीन की डायरी से पता चलता है कि करीम उन्हें उर्दू और हिंदुस्तानी सिखाने लगा, एक दिन उसने बहुत अच्छी करी भी बनाकर खिलाई. जब बड़ोदा से महारानी चिमना बाई मिलने आईं तो क्वीन ने कुछ उर्दू के शब्दों का भी पहली बार इस्तेमाल किया. महारानी को धीरे धीरे करीम पसंद आने लगा, करीम के लिए अलग से एक इंगलिश ट्यूटर लगाया गया. उसे वेटर या सहायक जैसे ओहदे से बढ़ाकर क्लर्क या मुंशी की पोस्ट दे दी गई, क्वीन उसे डीयरेस्ट मुंशी कहकर बुलाती थी. उसे सारे इंडियन कर्मचारियों का इंचार्ज बना दिया गया. क्वीन ने अपने बेटे की बहू लुइस को एक लैटर में अब्दुल के बारे में लिखा था, ‘’ ‘I am so very fond of him. He is so good and gentle and understanding… and is a real comfort to me.’’।
क्वीन उससे हर तरह की राय लेने लगी, पारिवारिक, राजनीतिक, महल के मामले, भारतीय मामले और यहां तक कि दार्शनिक भी. भारत के वायसराय के विरोध के वाबजूद करीम ने अपने पिता की पेंशन बंधवा ली और आगरा के जेलर जॉन टाइलर का प्रमोशन करवा दिया. इतना ही नहीं जब प्रिंस एडवर्ड के एक कार्यक्रम में करीम को बाकी भारतीय नौकरों के साथ बैठाया गया तो वो नाराज होकर अपने कमरे में चला गया, बाद में क्वीन ने उसे बुलाकर परिवार के साथ बैठाया. वो उसे फैमिली फ्रेंड की तरह परिचय करवाने लगी थीं. क्वीन ने अलग अलग मौकों पर लंदन के तीन जाने माने पेंटर्स को आदेश देकर मुंशी अब्दुल करीम की तीन बड़ी आदमकद पेंटिंग्स भी बनवाईं, इतना लगाव देखकर क्वीन के बच्चे भी नाराज रहने लगे थे.
करीम के बाकी परिवार को भी लंदन बुलाकर एक घऱ उसे दे दिया गया था. यहां तक कि उसका भतीजा, उसकी सास सब आकर वहां रहने लगे, कई और रिश्तेदार भी. क्वीन की मौत के बाद प्रिंस एडवर्ड ने करीम और उसके परिवार को फौरन शाही सेवा से हटाने का आदेश देकर भारत भेजने के इंतजाम करवाए. जिसने भी खत क्वीन ने करीम को लिखे थे, उन्हें फौरन जलाने का आदेश दिया. इतना जरूर है कि क्वीन के अंतिम संस्कार के वक्त पूरे समय अब्दुल करीम को क्वीन की बॉडी के साथ परिवार के सदस्य की तरह ही रहने की इजाजत दी गई.
हालांकि करीम को शायद ये पता था कि क्वीन विक्टोरिया ने अपने अंतिम संस्कार के लिए जो निर्देश दिए हं, वो क्या क्या थे. माना ये जाता था कि अब्दुल से सलाह लेकर ही रानी ने वो तैयार किया था, ऐसे में अब्दुल के लिए एक लाइन भी उसमें ना होना अब्दुल के लिए चौंकाने वाला था. अब्दुल खामोश ही रहा लेकिन उसे अंदाज हो गया था कि शाही परिवार के किसी व्यक्ति ने रानी की अंतिम ख्वाहिश की बातों में उससे जुड़ी बातें हटा दी हैं, या सबको नहीं बताईं.
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