नई दिल्ली. नोटबंदी का साल पूरा हुआ. इस विवाद और बहस का भी एक साल पूरा हुआ कि नोटबंदी का मकसद क्या था? वो मकसद कितना सफल रहा? ये सवाल और बहस आज भी जारी है. शायद आने वाले कई साल तक जारी रहेगी. नोटबंदी यानी 500 और 100 रुपये के नोटों को रद्दी बनाने की पहली बरसी को सत्ता पक्ष और विपक्ष ने अपने-अपने नज़रिए से नाम दिया है. विपक्ष के लिए ये काला दिन है, तो सत्ता पक्ष की नज़र में कालाधन विरोधी दिवस, जिसके फायदे गिनाने के लिए केंद्र सरकार के मंत्रियों की फौज दो मीडिया के सामने है. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अखबारों में भर पेज विज्ञापन छपवा कर बताया है कि ‘125 करोड़ भारतीयों ने कालेधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक जंग लड़ा और जीता’. मामला अर्थशास्त्र से जुड़ा है और अर्थशास्त्र में सांख्यिकी ही मायन रखती है, इसलिए अर्थव्यवस्था से जुड़े किसी भी निर्णय का विश्लेषण सांख्यिकीय आधार पर ही होना चाहिए, ऐसा मेरा मानना है. अब नोटबंदी पर राजनीति की जुबान क्या है, इस पर बात करना बेमानी है. मैं पहले की स्पष्ट कर दूं कि मैं अर्थशास्त्री नहीं हूं. मामूली समझ रखने वाला देश का आम इंसान हूं, इसलिए मेरी बात को आम इंसान का सवाल ही समझा जाए.
मेरा पहला सवाल है कि नोटबंदी का उद्देश्य क्या था? प्रधानमंत्री ने 8 नवंबर 2016 को 3320 शब्दों में राष्ट्र के नाम संबोधन में कहा था कि कालाधन और भ्रष्टाचार 500 और 1000 के नोटों की वजह से है. मैंने मान लिया था. प्रधानमंत्री ने एक साल बाद इश्तहारिया एलान किया कि देश में कुल जमा नकद का 33 फीसदी हिस्सा सिर्फ 0.00011 फीसदी आबादी ने जमा कराया. 17 लाख 73 हज़ार मामले ऐसे पकड़े गए, जिनमें कैश ट्रांजैक्शन करने वालों की टैक्स प्रोफाइल मेल नहीं खाई. 23 लाख 22 हज़ार खातों में 3 लाख 68 हज़ार करोड़ रुपये का डिपॉजिट संदिग्ध मिला. सरकार ! ये तो आपने बड़ा आंकड़ा बताया लेकिन आपने ये क्यों नहीं बताया कि भारत की 58 फीसदी समृद्धि पर सिर्फ 1 फीसदी आबादी का कब्ज़ा है. फिर इस बात में आश्चर्य कैसा कि नोटबंदी के बाद कुल जमा रकम का 33 फीसदी हिस्सा 0.00011 फीसदी ने जमा कराया? आपने ये भी नहीं बताया कि इन 0.00011 फीसदी लोगों ने जो पैसा जमा कराया, क्या वो सारा का सारा कालाधन था? टैक्स प्रोफाइल मेल ना खाने वाले जो 17 लाख 73 हज़ार मामले सरकार ने पकड़े हैं, उनके खिलाफ क्या कार्रवाई हुई, उनसे कितना दंड वसूला गया, इस सवाल का जवाब भी इश्तहार में होना चाहिए था, जो नहीं है.
ये बात भी समझ में नहीं आ रही कि 3 लाख 68 हज़ार करोड़ का संदिग्ध डिपॉजिट क्या है? क्या वो बेनामी पैसा है? क्या वो काला पैसा है? संदिग्ध है, तो इसका मतलब तो यही हुआ कि एक साल बाद भी आपकी एजेंसियों के पास कोई सबूत नहीं है, सिर्फ शक है. वो शक गलत भी तो हो सकता है? क्या सरकार की आर्थिक एजेंसियों को इतना भी नहीं पता कि अर्थव्यवस्था अनुमान के आधार पर तो चल सकती है लेकिन उसे शक के आधार पर नहीं चलाया जा सकता. सरकार का दूसरा दावा है कि नोटबंदी के बाद कैश सर्कुलेशन कम हुआ है. बड़े मूल्य के नोटों की संख्या जो करीब 18 लाख करोड़ के बराबर थी, उसमें 6 लाख करोड़ की कमी आई है. लेस कैश इकोनॉमी की तरफ देश को ले जाने का उद्देश्य तो पूरा हुआ, लेकिन क्या इसी अनुपात में कैशलेस इकोनॉमी आगे बढ़ी है? रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के आंकड़ों के मुताबिक तो अक्टूबर 2016 में एटीएम से डेबिट कार्ड के जरिए जितनी नकद निकासी हो रही थी, अगस्त 2017 में भी कमोबेश उतना ही डेबिट कार्ड कैश ट्रांजैक्शन हुआ. अब मैं इस दावे से कन्फ्यूज़ हूं कि इससे अर्थव्यवस्था का भला हुआ है या अनर्थ ? इसका मतलब तो यही समझ में आता है कि देश के पूंजी बाज़ार से 6 लाख करोड़ की नकदी एक झटके में बाहर हो चुकी है.
एक बात और. जब रद्दी हुए नोटों का 99 फीसदी हिस्सा बैंकों में जमा हो गया और उसमें से 6 लाख करोड़ रिजर्व बैंक के छापेखाने से छप कर बाज़ार में आया नहीं, तो इसका मतलब क्या हुआ? यही ना कि वो पैसा बैंकों में जमा है. अब वो पैसा बैंकों के लिए तो बोझ बन गया ना सरकार ! रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने अगस्त में कहा था कि नोटबंदी के बाद जो पैसा बैंकों में जमा हुआ और निकला नहीं, उस पर अब बैंकों को ब्याज़ देना होगा. अगर 6 लाख करोड़ पर 4 फीसदी का साधारण ब्याज़ भी लगा तो बैंकों को 24 हज़ार करोड़ की सालाना चपत तो लग ही गई. अर्थव्यवस्था वही बेहतर, जो रोज़गार के मौके देती है. रोज़गार के मौकों से उत्पादन बढ़ता है. उत्पादन बढ़ता है तो राजस्व बढ़ता है. राजस्व बढ़ता है तो देश के बुनियादी ढांचे और जनहित की योजनाओं के लिए धन पैदा होता है. मेरी मामूली समझ तो यही समझती है. अब सरकार खुद कह रही है कि 6 लाख करोड़ की पूंजी बाज़ार से गायब कर दी गई है. इस पूंजी के गायब होने से पहले ही नोटबंदी ने रोज़गार गायब कर दिए. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी से अप्रैल 2017 के बीच यानी सिर्फ 4 महीने में 15 लाख नौकरियों की बलि चढ़ गई.
इस सच्चाई से सरकार भी मुंह नहीं मोड़ पा रही कि नोटबंदी की वजह से सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में करीब डेढ़ फीसदी की गिरावट आई है. बैंकों के सामने संकट बढ़ा है कि उनके पास जो पैसा बैंक खातों में पड़ा है, उसका क्या करें? ब्याज़ दरें कम होने के बावजूद बाज़ार में डिमांड नहीं है, क्योंकि होम लोन, कार लोन, पर्सनल लोन के लेनदार कम हो गए हैं. मुझे ये भी समझ में नहीं आ रहा कि अगर अर्थव्यवस्था की बुनियाद बहुत मजबूत है और बैंकों के पास नोटबंदी के बाद भरपूर पैसा जमा हो गया है, तो फिर बैंकिंग सेक्टर की सेहत सुधारने के लिए सरकार को ये एलान क्यों करना पड़ा कि सरकार अगले 2 साल में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 1 लाख 11 हज़ार करोड़ रुपये इन्फ्यूज़ करेगी? सरकार तो बैंकों से पैसे लेती है, फिर बैंकों को पैसा देने की उलटबांसी क्यों? ऐसा तो तब होता है, जब बैंक डूबने की कगार पर हों?
सरकार कह रही है कि नोटबंदी के बाद कालाधन और भ्रष्टाचार में भारी कमी आई है, जिससे दुनिया भर में भारत की छवि सुधरी है. ये बात तो ठीक है.
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने 2016 के करप्शन परसेप्शन इंडेक्स में भारत को 176 देशों में 79वें नंबर पर रखा है और ये भी बताया है कि यूपीए के टाइम में 2012 में जब भ्रष्टाचार का शोर चरम पर था, तब भारत को 100 में से 36 नंबर मिला था और 2016 में मिला 100 में 40 नंबर. बेलारूस, ब्राज़ील और चीन के बराबर. ये स्थिति और भी सुधर सकती थी, अगर नोटबंदी को भ्रष्टाचार और कालाधन के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक बताने वाली सरकार पनामा पेपर और स्विस बैंक खातों में जिनके नाम का खुलासा हुआ था, उनके खिलाफ कुछ करके दिखाती. ज्यादा नहीं तो पड़ोसी पाकिस्तान की तरह कुछ कर देती, जहां पनामा पेपर के चक्कर में नवाज़ शरीफ की कुर्सी चली गई. इतना भी नहीं तो कम से कम उन भ्रष्टाचारियों और कालाधन के मालिकों का नाम ही सार्वजनिक कर देती, जिन्होंने नोटबंदी के दौरान कालाधन को सफेद बनाने की चाल चली और पकड़े गए.
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