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आम आदमी पार्टी में संसद जाने की महाभारत: कुमार विश्वास को राज्यसभा क्यों नहीं भेजना चाहते हैं अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ?

नई दिल्ली. आम आदमी पार्टी में राज्यसभा की सीट और कुमार विश्वास के बीच की दूरी अब पार्टी में दरार के रूप में दिख रही है. कुमार विश्वास के समर्थक आहत भी हैं और आंदोलित भी. दूसरी ओर अरविंद केजरीवाल सुलह का रास्ता निकालने की बजाय सलाह दे रहे हैं कि जिन्हें पद और टिकट का लोभ है, वो खुद पार्टी से बाहर का रास्ता देख लें. राजनीतिक गलियारों में ये सवाल बड़ा दिलचस्प हो गया है कि आखिर क्या वजह है कि अरविंद केजरीवाल और उनके डिप्टी मनीष सिसोदिया राज्यसभा की सीट के लिए कुमार विश्वास के नाम पर चर्चा करने की हामी तक नहीं भर रहे?

राज्यसभा की कल्पना जैसे सदस्यों को लेकर की गई, उसमें कुमार विश्वास पूरी तरह फिट बैठते हैं. वो पढ़े-लिखे हैं. महाविद्यालय में प्राध्यापक रह चुके हैं. कवि के रूप में प्रसिद्ध और लोकप्रिय हैं. साहित्यकार के तौर पर प्रतिष्ठित हैं. बेहतरीन वक्ता हैं, जो राष्ट्रवाद से लेकर सामाजिक सवालों पर बेबाकी से अपनी राय रखते हैं, चाहे उनकी राय पार्टी लाइन के खिलाफ ही क्यों ना हो. इतनी योग्यता के बावजूद आम आदमी पार्टी को कुमार विश्वास राज्यसभा जाने के लायक क्यों नहीं लग रहे? इस सवाल का जवाब प्रत्यक्ष तौर पर किसी के पास नहीं है.

राजनीति में सब कुछ प्रत्यक्ष नहीं होता. जितना सामने दिखता है, परदे के पीछे उससे कहीं ज्यादा चल रहा होता है. कुमार विश्वास आज आम आदमी पार्टी में जिस हाल में हैं, उसे समझने के लिए थोड़ा पीछे चलना होगा. जिस वक्त केजरीवाल भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी थे और राशन माफिया के खिलाफ और आरटीआई के समर्थन में आंदोलन कर रहे थे, तब उनके बेहद करीबी लोगों में दो लोग ही थे. पहले नंबर पर नाम था मनीष सिसोदिया का, जो पत्रकारिता कर रहे थे. दूसरे नंबर पर थे गाज़ियाबाद के कॉलेज में हिंदी के लेक्चरर डॉ कुमार विश्वास.

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केजरीवाल के आंदोलनों में मनीष सिसोदिया और कुमार विश्वास का अपना-अपना योगदान था. दोनों केजरीवाल के पारिवारिक मित्र थे. मनीष सिसोदिया का योगदान प्रत्यक्ष था. भौतिक था. वो केजरीवाल के साथ कबीर नाम का गैर सरकारी सामाजिक संगठन भी चला रहे थे. वहीं कुमार विश्वास और केजरीवाल के रिश्ते भावनात्मक थे. केजरीवाल का आंदोलन अन्ना हजारे के जरिए व्यापक हुआ और बाद में कई मोड़ से गुजरता हुआ राजनीतिक दल में तब्दील हुआ, तब शुरुआत में पार्टी के पांच स्तंभ थे. खुद केजरीवाल, जो पार्टी के केंद्र बिंदु थे. मनीष सिसोदिया, जो संगठन की रणनीति संभाल रहे थे. योगेंद्र यादव जो पार्टी के विस्तार के लिए थिंक टैंक थे. प्रशांत भूषण, जिनके माध्यम से पार्टी चलाने के लिए फंड के स्रोत मिल रहे थे और कुमार विश्वास, जो केजरीवाल के बाद पार्टी में सबसे लोकप्रिय और परिचित चेहरे थे.

आज दिल्ली में राज्यसभा की जिन 3 सीटों के लिए आम आदमी पार्टी में घमासान मचा है, उन तीन सीटों पर काबिज होने की ताकत 2015 के विधानसभा चुनाव से मिली. प्रचंड बहुमत के बाद सत्ता में हिस्सेदारी का संघर्ष शुरू हुआ, जिसका नतीजा योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की पार्टी से रुखसती के रूप में सामने आया. पार्टी के पांच में दो स्तंभ धराशायी हो गए.

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अब बची थी केजरीवाल, कुमार विश्वास और मनीष सिसोदिया की त्रिमूर्ति. केजरीवाल ने खुद ही मनीष सिसोदिया को नंबर दो का रुतबा दे दिया था. कुमार विश्वास पार्टी के नीति-निर्धारकों में थे और खुद केजरीवाल ने कई मौकों पर ये बात कही थी कि कुमार उनके भाई हैं. यहां तक कि अमानतुल्लाह खान बनाम कुमार विश्वास प्रकरण में भी केजरीवाल ने अमानतुल्लाह को सस्पेंड करके यही संदेश दिया था. फिर ऐसा क्या हो गया कि अब योग्य ‘भाई’ को भी केजरीवाल राज्यसभा भेजने के लिए राज़ी नहीं हैं?

इतिहास गवाह है कि सत्ता में हिस्सेदारी का संघर्ष अक्सर दो भाइयों के बीच ही होता है. तो क्या आम आदमी पार्टी में भी दो भाइयों के बीच संघर्ष चल रहा है? हो सकता है कि आकलन गलत हो लेकिन दिल्ली में आम आदमी पार्टी के राजनीतिक भाग्योदय और कुमार विश्वास के बीच छत्तीस का आंकड़ा सामान्य नहीं दिखता. 2014 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के दो ही उम्मीदवारों की सबसे ज्यादा चर्चा हुई. पहले खुद केजरीवाल, जो वाराणसी में नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़े थे. दूसरे कुमार विश्वास, जो राहुल गांधी को चुनौती देने उनके गढ़ अमेठी चले गए थे.

कुमार विश्वास जब अमेठी गए थे, तब तक आम आदमी पार्टी ने उन्हें उम्मीदवार तक घोषित नहीं किया था. उम्मीदवारी की घोषणा बाद में हुई. उसके बाद से ही कुमार विश्वास जनता के बीच जितने लोकप्रिय होते गए, पार्टी में अंदरूनी माहौल उनके खिलाफ होता गया. शुरुआत इस गंदे आरोप से हुई कि कुमार विश्वास ने अमेठी में चुनाव के दौरान महिला का यौन शोषण किया. चरित्र हनन के इस वार से कुमार विश्वास उबरे तो उनकी वो तमाम पुरानी कविताएं सामने आने लगीं, जिनमें उन्होंने नरेंद्र मोदी की तारीफ की थी. कपिल मिश्रा ने केजरीवाल सरकार पर सवाल उठाने शुरू किए, तो कुमार विश्वास एक बार फिर निशाने पर आए. अमानतुल्लाह खान ने खुला आरोप लगाया कि कुमार विश्वास बीजेपी के इशारे पर पार्टी के विधायकों को तोड़ने की साज़िश रच रहे हैं.

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केजरीवाल की पार्टी में उनके ‘भाई’ कुमार विश्वास पर एक के बाद एक इतने संगीन आरोप लगते रहे, इसे राजनीति में सामान्य नहीं माना जा सकता. पहली बार ही अगर आरोप लगाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की गई होती तो ऐसे आरोपों की पुनरावृत्ति नहीं होती लेकिन केजरीवाल या उनकी पार्टी ने कुमार विश्वास के मामले में ऐसा नहीं किया. राजनीति में इसे मौन संदेश देना भी माना जाता है. इसकी वजह क्या थी, ये केजरीवाल ही बेहतर बता सकते हैं.

जाने क्यों, मुझे आम आदमी पार्टी और कुमार विश्वास के बीच चल रही खट-पट के दौरान ही सहारा इंडिया परिवार के मुखिया सुब्रत रॉय का दर्शन याद आ रहा है. सहारा इंडिया परिवार के हर सदस्य के लिए ‘शांति, सुख, संतुष्टि’ नाम की वो किताब पढ़ना अनिवार्य है, जिसके लेखक सुब्रत रॉय हैं. इस किताब में सुब्रत रॉय सहारा ने लिखा है- भावनात्मक रिश्ते अस्थायी होते हैं, जबकि भौतिक रिश्ते दीर्घजीवी. जब दो लोगों में भौतिक स्वार्थ का बंधन होता है तो रिश्ता ज्यादा लंबा चलता है.

अरविंद केजरीवाल, कुमार विश्वास और मनीष सिसोदिया की बात करें तो पार्टी में ये तीनों टॉप थ्री में माने जाते रहे हैं. पहले तीन पायदानों पर. राजनीति हो या प्रतिस्पर्धा का कोई भी प्लेटफॉर्म, चोटी पर पहुंचने वालों के बीच अपनी जगह सुरक्षित रखने और आगे बढ़ने की होड़ स्वाभाविक तौर पर शुरू हो जाती है. सबसे ऊंचे पायदान पर खड़े शख्स को दूसरे नंबर वाले से भय लगता है कि कहीं उसके ठीक पीछे खड़ा शख्स उसे पदच्युत ना कर दे. दूसरे नंबर के पीछे खड़ा शख्स आतुर होता है कि दूसरा अपनी जगह से खिसके तो उसे आगे बढ़ने का ठौर मिले. कहीं ऐसा तो नहीं कि कुमार विश्वास पार्टी में दूसरी पायदान पर जा पहुंचे हैं?

Aanchal Pandey

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