नई दिल्ली. बेशक यह इत्तेफाक रहा हो कि मिजोरम की चुनावी तिथि को लेकर चुनाव आयोग में माथापच्ची चल रही हो और उसकी वजह से प्रेस कांफ्रेंस का समय आगे बढ़ाना पड़ा हो लेकिन गुजरात चुनाव के ऐलान में देरी से लेकर आप विधायकों के मामले में दिये गये फैसले तक ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिससे लगता है कि चुनाव आयोग सत्ताधारी पाले की तरफ झुका हुआ है. पांच राज्यों में चुनाव घोषित करने के लिए जैसे ही आयोग ने ढाई घंटे का समय आगे बढ़ाया, मौके की ताक में बैठी कांग्रेस ने आरोपजड़ दिया कि पीएम नरेंद्र मोदी की अजमेर में होने वाली सभा की वजह से चुनाव आयोग ने ऐसा किया ताकि पीएम मनमानी घोषणाएं कर सके.
कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने व्यंगात्मक लहजे में सवाल किया कि क्या चुनाव आयोग स्वतंत्र है? इसके पहले पिछले साल हुए पांच राज्यों के चुनाव और दिल्ली नगर निगम चुनाव में शिकस्त खाने के बाद भी कांग्रेस ने चुनाव आयोग पर हमला बोला था और सपा-बसपा समेत तमाम दलों ने ईवीएम को लेकर आयोग की घेराबंदी कर दी थी. आम आदमी पार्टी ने तो बाकायदा विधानसभा में ईवीएम में छेड़छाड़ करके दिखाया था और यह साबित करने की कोशिश की थी कि ईवीएम फूलप्रूफ नहीं है.
इसके जवाब में चुनाव आयोग ने सभी दलों को आमंत्रित कर ईवीएम में छेड़छाड़ की चुनौती दी थी. जब साबित करने की बात आई तो सीपीएम और एनसीपी को छोड़कर सभी दल पीछे हट गये थे. यहां तक कि विधान सभा में चुनौती देने वाली आप ने भी उस कार्यक्रम में शिरकत नहीं किया. अभी कांग्रेस ने जब आरोप जड़े तो मुख्य चुनाव आयुक्त ओ पी रावत तिलमिला गये और उन्होंने जवाब देने में देर नहीं लगाई और कहा कि राजनेता और राजनैतिक पार्टियों को हर चीज में राजनीति दिखाई देती है. ऐसा उनके जन्मजात स्वभाव की वजह से है. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि चुनाव आयोग राजनीतिक पार्टियों के इस व्यवहार से खिन्न है और उसने पिछले साल मई में कानून मंत्रालय को पत्र लिखकर कोर्ट के अवमानना अधिनियम 1971 में संसोधन की मांग की थी. पड़ोसी देश पाकिस्तान का हवाला दिया था कि वहां पर आयोग को हर उस आदमी के खिलाफ अवमानना नोटिस करने का अधिकार है जो उसकी छवि को धूमिल करता है या अनर्गल आरोप लगाता है. तहरीक-ए-इंसाफ के नेता इमरान खान ने जब विदेशी फंड को लेकर आरोप लगाया था तो वहां के चुनाव आयोग ने उन्हें नोटिस थमा दिया था.
संविधान के अनुच्छेद 341 (1) में आयोग को चुनाव कराने की बाबत असीमित शक्तियां मिली हुई है और वह कार्यपालिका से नियंत्रित नहीं होती. सुप्रीम कोर्ट ने भी समय समय पर इसे स्पष्ट किया है अलबत्ता उसके फैसले न्यायिक पुनरीक्षण के अधीन जरूर आते हैं लेकिन बीच चुनाव में कोर्ट भी उसके फैसलों में दखल नही दे सकता. लॉ ऑफ इक्विटी कहता है कि न्याय होना ही नहीं चाहिए, समय पर होना चाहिए और दिखना भी चाहिए. चुनाव आयोग अर्द्धन्यायिक व संवैधानिक संस्था है लिहाजा उसकी जिम्मेदारी है कि उसके फैसले संदेह से परे हों. जितनी जिम्मेदारी आयोग की है, उतनी है जिम्मेदारी संसदीय प्रणाली में राजनैतिक दलों की भी है कि वो छोटी-छोटी बातों में संवैधानिक संस्था को विवाद में न घसीटे . यही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और उसके तीनों स्तंभों के हित में है.
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