चंद्रशेखर आजाद को बायोग्राफी लिखने का मौका नहीं मिला, लेकिन कहते हैं कि चंद्रशेखर आजाद अपने संगठन के सबसे समझदार, सबसे तेज, राजनीतिक माहौल के सबसे ठीक ढंग से समझने वाले और मुसीबत में सबसे तेज और बेहतर फैसला लेने वाले माने जाते थे। अंग्रेजी सरकार के रिकॉर्ड्स में भले ही उनको अशिक्षित लिखा जाता हो, लेकिन भगत सिंह जैसा लिखने पढ़ने वाला व्यक्ति अगर किसी को अपना नेता मानता था, तो वो व्यक्ति कोई आम नहीं रहा होगा। कहा तो ये भी जाता है कि आजाद बलराज के उपनाम से अखबारों में भी लिखा करते थे.
नई दिल्ली. आजादी की जंग में जब क्रांतिकारी एक के बाद एक घटनाओं को अंजाम देने लगे तो ब्रिटिश पुलिस के गुप्तचर विभाग ने उनका प्रोफाइल बनाकर जितनी भी जानकारी हो सकती थी, वो एक फाइल में रखना शुरु कर दिया था। ‘कटिंग फोलियो’ में क्रांतिकारियों से जुड़ी अखबार की कतरनें, उनको फोटो, उनकी सारी व्यक्तिगत जानकारियां, उनसे जुड़ी घटनाओं की जानकारियां, हुलिया, लुक आउट नोटिस, सरकार द्वारा घोषित धनराशि, क्रांतिकारियों के परचे आदि रखे जाते थे। उनको सब थानों में भेजा जाता था, कभी कभी विज्ञापनों को छापने के लिए भी इन फाइल्स की मदद ली जाती थी। ऐसी ही एक फाइल में एक क्रांतिकारी की डिटेल्स लिखी थी, उपनाम लिखे क्विक सिल्वर (पारा) और बलराज)।
इन नामों से आप शायद उसे पहचान नहीं पाएंगे। इस क्रांतिकारी की फाइल में बस एक ही फोटो था, बाकी कोई मिला भी नहीं होगा। हरे मोटे पट्ठे की फाइल में सबसे ऊपर लिखा था क्रिमिनल इन्वेस्टीगेशन डिपार्टमेंट ऑफ द यूनाइटेड प्रॉविंसेज, यानी यूपी का सीआईडी डिपार्टमेंट, जिसे आज उत्तर प्रदेश के तौर पर जाना जाता है। अंदर उस क्रांतिकारी की पूरी डिटेल थी, आप भी पढ़िए-
नाम- चंद्रशेखर ‘आजाद’ उर्फ बलराज उर्फ पंडितजी उर्फ भैया, उर्फ क्विक सिल्वर (पारा)
वल्दियत—सीताराम
कौम- ब्राह्मण (धूमिल)
साकिन- मौजा बदरका (धूमिल), जिला उन्नाव, यूपी, तारीख पैदाइश- सोमावार दिनांक 23 जुलाई 1906, (धूमिल), शिक्षा—अशिक्षित
हुलिया- लम्बाई लगभग पांच फुट साढ़े छह इंच, सांवला रंग, तगड़ा जिस्म, गोरा चेहरा, लम्बी नाक, मुंह पर हलके चेचक के दाग, काले बाल, काली बड़ी बड़ी आंखें, ऊंचा माथा, बायीं ओर मांग निकालते हैं, अधिकतर धोती कमीज ही पहनते हैं
कैफियत: ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ का नेता, जिसे हासिल करने के संदिग्ध स्थान हैं- कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, शाहजहांपुर, लखनऊ, हरदोई, दिल्ली और झांसी।
दरअसल आजाद थोड़े गरम मिजाज थे, जल्दी गुस्सा आता था, जल्द फैसला लेते थे, इसलिए उनके मिलने वाले उन्हें क्विक सिल्वर भी बोलते थे। जबकि बलराज नाम उनके दुश्मनों के लिए था। वो जो भी नोटिस या सार्वजनिक परचा जारी करते थे, उसको बलराज के नाम से किया जाता था। हालांकि चंद्रशेखर आजाद को बायोग्राफी लिखने का मौका नहीं मिला, लेकिन कहते हैं कि चंद्रशेखर आजाद अपने संगठन के सबसे समझदार, सबसे तेज, राजनीतिक माहौल के सबसे ठीक ढंग से समझने वाले और मुसीबत में सबसे तेज और बेहतर फैसला लेने वाले माने जाते थे। अंग्रेजी सरकार के रिकॉर्ड्स में भले ही उनको अशिक्षित लिखा जाता हो, लेकिन भगत सिंह जैसा लिखने पढ़ने वाला व्यक्ति अगर किसी को अपना नेता मानता था, तो वो व्यक्ति कोई आम नहीं रहा होगा। कहा तो ये भी जाता है कि आजाद बलराज के उपनाम से अखबारों में भी लिखा करते थे.
आजाद को काफी दूरदर्शी भी माना जाता था, असेम्बली में बम फेंकने वाली योजना बटुकेश्वर दत्त ने बनाई थी और भगत सिंह को रूस जाकर वहां के क्रांतिकारियों से मदद लेने का फैसला हो चुका था, लेकिन भगत सिंह ने इरादा बदल दिया और आजाद से जिद की कि उनको असेम्बली में बम फेंकने का मौका दिया जाए। दरअसल आजाद नहीं चाहते थे कि भगत सिंह को वहां भेजा जाए, क्योंकि वहां गिरफ्तारी तय थी और जो गिरफ्तार होगा, वो उससे पहले अपनी बात परचों और बम के जरिए असेम्बली के सदस्यों, अंग्रेजी सरकार और फिर मीडिया के जरिए जनता तक पहुंचा ही देगा। बाद में कुछ साल की सजा के बाद उसका छूटना तय था, या शायद भागने का मौका मिल जाए।
लेकिन भगत सिंह की गिरफ्तारी का मतलब फिर वापस आने का सवाल ही नहीं था क्योंकि भगत सिंह को सांडर्स हत्याकांड में पहचाना जा चुका था। ऐसे में उनका जिंदा बच पाना मुश्किल था, लेकिन भगत सिंह नहीं माने लेकिन हुआ वही जिसकी आंशका आजाद ने जताई थी। भगत सिंह पर इस केस के अलावा सांडर्स की हत्या का केस भी चला और फांसी की सजा हो गई। उसके बाद अंग्रेजी सरकार भी सख्त हो गई और अगले दो साल के अंदर या तो ज्यादातर क्रांतिकारी गिरफ्तार हो गए, या आजाद समेत कइयों को जान से हाथ धोना पड़ा।
ऐसे में दो मौकों पर आजाद ने एचआरएसए के चीफ के नाते दो पैम्फेलेट अपने उपनाम बलराज के नाम से छपवाए। 17 दिसम्बर 1928 को स्कॉट के धोखे में सांडर्स को तो भगत सिंह ने मार दिया, लेकिन फिर मुश्किल हो गई। दुर्गा भाभी की मदद से किसी तदह भगत सिंह बच निकल पाए तो आजाद एक भजन मंडली में सवार होकर ट्रेन से निकल भागे। लेकिन जैसे ही थोड़ा मामला थमा, 11 दिन बाद बलराज के नाम से आजाद के हस्ताक्षर वाला एक पोस्टर जारी किया गया और सांडर्स की हत्या पर सॉरी लिखते हुए भी, उसको मारने की जिम्मेदारी तो ली ही, उसका औचित्य भी बताया कि कैसे जो अंग्रेज भारतीयों पर इतने अत्याचार कर रहे हैं, उनके लिए काम कर रहे किसी भी व्यक्ति को मारना उनके लिए गलत नहीं है.
बलराज के उपनाम से ही दूसरा पैम्फलेट वो था, जिसे 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने सेंट्रल असेम्बली में बम फेंकने के बाद फेंका था। इस पेम्फेलेट में उनकी मांगें तो लिखी हुई थीं, जिन बिलों के विरोध में ये बम फेंके थे, उनके बारे में लिखा था। साथ ही लिखा कि बहरों को आवाज सुनाने के लिए ये बम फेंके गए हैं। पहली ही लाइन थी, ‘’बहरों को सुनाने के लिए महाघोष चाहिए’’। लाला लाजपत राय की मौत के बदले के बात भी की गई और आखिरी लाइनें थीं, क्रांति अमर रहे। आखिर में लिखा थास हस्ताक्षर- बलराज, कमांडर इन चीफ, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी। आप बलराज के हस्ताक्षर लिखे पत्रों के इस स्टोरी के साथ भी पढ़ सकते हैं.
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