लखनऊ। बीजेपी ने हैदराबाद में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद उत्तर प्रदेश में पसमांदा मुसलमानों की साधने की तैयारिया शुरु कर दी हैं। जिसके बाद सियासी गलयारों में ये मुद्दा छाया हुआ है. ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि अचानक बीजेपी को पसमांदा मुसलमानों के प्रति इतना प्यार क्यों आ रहा है. […]
लखनऊ। बीजेपी ने हैदराबाद में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद उत्तर प्रदेश में पसमांदा मुसलमानों की साधने की तैयारिया शुरु कर दी हैं। जिसके बाद सियासी गलयारों में ये मुद्दा छाया हुआ है. ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि अचानक बीजेपी को पसमांदा मुसलमानों के प्रति इतना प्यार क्यों आ रहा है. दूसरा सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या बीजेपी पसमांदा मुसलमानों को हक देकर पार्टी की मुख्यधारा में शामिल करेगी या फिर दूसरी पार्टियों की तरह वह भी उन्हें सिर्फ अपना वोट बैंक रूप में रखेगी.
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि पसमांदा मुसलमानों में कौन से मुसलमान आते है. बता दें कि पसमांदा फारसी का शब्द है यह दो पस और मांदा शब्दों से जुड़ कर बना है. पस का मतलब होता है पीछे और मांदा का मतलब होता है छूट जाना. अगर इन दोनों शब्दों को मिलाकर देखें तो पीछे छुटे हुए लोग. इसलिए मुस्लिम समाज ये समुदाय सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा तबका कहलाता हैं. इस समुदाय की 70 से 80 प्रतिशत आबादी मानी जाती है। यह वो मुसलमान है जो प्राचीन काल में हिंदू समाज से धर्मांतरण कर मुसलमान बने थे. प्राचीन काल में यह हिंदू समाज के दलित और पिछड़े वर्ग से धर्मांतरण करके मुसलमान बने थे.
भारतीय राजनीति में पसमांदा मुसलमान की शुरुआत का श्रेय जनता दल यूनाइटेड के टिकट पर दो बार राज्यसभा सांसद रहे अली अनवर को जाता है. उन्होंने 1990 के दशक में बिहार में ऑल इंडिया पचवारा मुस्लिम महज नामक संगठन बनाकर पसमांदा मुसलमानों को राजनीति में उनका हक दिलाने की शुरुआत की थी. 2006 में राज्यसभा सांसद सदस्य बनने के बाद अली अनवर ने यूपी में भी पसमांदा मुसलमानों को एकजुट करने की और उन्हें राजनीति में बड़ी ताकत बनाने का प्रयास किया था. उत्तर प्रदेश में भी पशु मान दा फ्रंट जैसे संगठनों ने संगठनों ने पसमांदा मुसलमानों को एकजुट करने के लिए लंबे समय तक लड़ाई लड़ी थी. लेकिन यूपी में आपसी बिखराव और एक दूसरे से खींचतान के कारण पसमांदा आंदोलन उस तरह का असर नहीं दिखा पाया जिस तरह से बिहार में दिखा था। लेकिन पिछले एक दशक में पसमांदा मुसलमानों ने यूपी की राजनीति में ग्राम पंचायत से लेकर जिला पंचायत के चुनाव और स्थानीय निकायों से लेकर विधानसभा चुनाव में असर रहा है।
हैदराबाद में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पीएम मोदी ने यूपी की पार्टी इकाई को पसमांदा मुसलमानों को बड़े पैमाने पर पार्टी के साथ जोड़ने की हिदायत दी. पीएम ने हिदायत देते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश में पसमांदा मुसलमानों की बड़ी संख्या है और बीजेपी इन्हें अपने साथ लेकर वोट बैंक बढ़ा सकती है. वहीं, राजनीति में इनको उनका वाजिब हक दिला सकते हैं. प्रधानमंत्री की हिदायत के बाद से ही पार्टी के नेता काम में लग गए हैं।
दरअसल पसमांदा मुसलमानों पर नरेंद्र मोदी की नजर प्रधानमंत्री बनने से पहले ही टिकी हुई है. जब पीएम मोदी को 2013 में बीजेपी की तरफ से उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया. तब से ही नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश के पसमांदा मुसलमानों को साधने में लग गए थे। मोदी से पसमांदा का एक प्रतिनिधिमंडल उनसे अहमदाबाद जाकर मिला था. इस प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात के बाद ही मोदी ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की बैठक में इस मुद्दे को उठाया था लेकिन 2014 के चुनाव में पार्टी ने इस पर चुप्पी साध रखी थी. हालांकि 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भुवनेश्वर की रैली में पसमांदा मुसलमानों के मुद्दे को उठाया था. लेकिन 2017 के बाद यूपी के विधानसभा चुनाव में भी इस मुद्दे को पार्टी ने ज्यादा नहीं छुआ तब तक पार्टी कट्टर हिंदू के मुद्दे पर चुनाव जीतने के बाद जनाधार को बढ़ाना चाहती हैं और अपने वोट बैंक को मजबूत करना चाहती है. इसी रणनीति के तहत यूपी में बीजेपी के पसमांदा मुसलमानों पर डोरे डाल रहे हैं
बीजेपी में 2014 तक अशर्फियां तबके के मुसलमान का ही दबदबा रहा था. इससे पहले बीजेपी में जितने सांसद विधायक पार्टी प्रवक्ता और मंत्री सदस्य हुए है. वो सब बड़े तबके मुसलमान थे. इनमें सिकंदर बख्त सैयद, शाहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी, नजमा हेपतुल्ला एमजे अकबर और हाल ही में एक राज्यसभा सदस्य इस्लाम का नाम शामिल है. पीएम बनने के बाद मोदी ने पहली बार राष्ट्रीय अल्पसंख्यक मोर्चा का अध्यक्ष अब्दुल रशीद अंसारी को बनाया. रशीज पुरे 5 साल तक इस पद पर रहे लेकिन वो अपने नेतृत्व में पसमांदा मुसलमानों को साथ नहीं ला पाए. बीजेपी ने इस गंभीरता को समझते हुए पिछले साल से कोशिशें शुरू औऱ 2015 में पार्टी में शामिल हुए साबिर अली को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक महासचिव बनाकर जिम्मेदारी सौपी.
बता दें कि यूपी में बीजेपी के द्वारा पसमांदा मुसलमानों को साधने की कोशिश के पीछे एक बड़ी वजह है. क्योकिं इसी साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव में सत्ता में दूसरी बार वापस लाने में पसमांदा समुदाय की अहम भूमीका रही है। भले ही बीजेपी ने एक भी मुसलमान को टिकट ना दिया हो लेकिन फिर भी पसमांदा मुसलमानों ने तमाम परिस्थितियों में बीजेपी को वोट देकर चुनाव की स्थिति में मजबूत किया. बीजेपी ने मुस्लिम बहुल इलाकों के करीब 50000 बूथों पर पार्टी के अल्पसंख्यक मोर्चे से जुड़े कार्यकर्ताओं को तैनात किया था. उन्हें कम से कम 30 मुस्लिम वोट डलवाने की सैलरी सौंपी थी. चुनाव के बाद तैयारी की गई रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ कि करीब 25 से 30 सीटों पर बीजेपी के मुस्लिम ने 2500 से 3000 हजार वोट मिली थी. इन सभी सीटों पर भाजपा ने बाजी मारी थी।
यूपी के विधानसभा चुनाव 2022 में बीजेपी को करीब 42% वोट मिला है जबकि उसके प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी को कई 32% वोट मिले और दूसरे नंबर पर रही. बीजेपी की कोशिश यूपी में अपना वोट बैंक को 50 फीसद तक लाने की है ताकि वह सत्ता में अगले 30 से 40 साल तक काबिज रह सके. इसके लिए उसे समाज के हर तबके से थोड़ा-थोड़ा वोट चाहिए. हिंदू समाज के पिछड़े और दलित समाज से बीजेपी की तरफ से काफी वोट पहले ही खिसक चुका है. विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मुसलमानों का वोट मिला है. इनमें से जन कल्याण योजनाओं के लाभार्थी हैं।
गौरतलब है कि पसमांदा मुसलमानों को जोड़ने की सबसे पहले पहल 2009 के लोकसभा चुनाव में डॉ एसके जैन ने की थी. डॉक्टर एस के जैन ने उस समय पार्टी में मुसलमानों से जुड़े मुद्दों के प्रभारी थे. उन्होंने कई बार पसमांदा मुस्लिम संगठनों के साथ बैठक करके इस पर विचार विमर्श किया था कि वह पार्टी के किन शर्तों के साथ जुड़ सकते हैं. लेकिन उन्हें खास कामयाबी नहीं मिली थी. अब उत्तर प्रदेश में नए सिरे की कोशिश की जा रही है. अगर बीजेपी मुस्लिम समाज के कुछ लोगों को पार्टी संगठन जगह देती है और सरकारी संस्थाओं में उनको भेजती हैं तो 2024 में के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को काफी फायदा मिल सकता है।
महाराष्ट्र: पूछताछ के लिए ईडी कार्यालय पहुंचे संजय राउत, कहा- जिंदगी में कभी गलत काम नहीं किया