संघ परिवार का हिस्सा मानी जाने वाली भाजपा का किस तरह संघ से जुड़ाव हुआ ये जानना बेहद जरूरी है. संघ परिवार में संगठन मंत्री का पद खास होता है जो कि सिर्फ प्रचारकों और विस्तारकों को दिया जाता है. ये सारी उम्र बिना शादी किए या फिर कुछ साल परिवार छोड़कर संघ के लिए काम करते हैं जैसा बीजेपी के राष्ट्रीय संगठन मंत्री राम लाल भी कर चुके हैं.
नई दिल्ली. बीजेपी की 38वीं सालगिरह है. ऐसे में ये 38 बातें आपको बीजेपी के संगठन, इतिहास, विचारों, रणनीति और उसके नेताओं के बारे में समझने में मदद करेंगी.
1- बीजेपी को संघ परिवार का हिस्सा माना जाता है, लेकिन संघ से ये जुड़ाव किस तरह से होता है, ये जानना आपके लिए दिलचस्प होगा. संघ परिवार में संगठन मंत्री नाम का पद बड़ा महत्वपूर्ण होता है, जो प्रचारकों और विस्तारकों को मिलता है. ये वो लोग होते हैं, जो सारी जिंदगी बिना शादी किए, या कुछ साल के लिए घर छोड़कर केवल संघ या उससे जुड़े संगठनों के विस्तार के लिए काम करते हैं. जैसे बीजेपी के राष्ट्रीय संगठन मंत्री राम लाल पहले संघ में क्षेत्र प्रचारक के पद पर रह चुके हैं. ऐसे ही प्रदेश संगठन मंत्री चाहे वो हरियाणा के सुरेश भट्ट हों, यूपी के सुनील बंसल हों, पंजाब के दिनेश कुमार हों, ये सभी संघ प्रचारक हैं. जो संघ या उसके किसी और संगठन से जैसे विद्यार्थी परिषद या मजदूर संघ से जुड़े रहे हैं, बाद में उन्हें बीजेपी में भेजा गया. ये लोग बीजेपी और संघ में समन्वय का काम करते हैं.
2- संघ की तरफ से बीजेपी से आधिकारिक रूप से समन्वय का काम कभी मदन दास देवी जैसे वरिष्ठ प्रचारक देखते रहे हैं, अभी डा. कृष्ण गोपाल देख रहे हैं. डा. साहब संघ की कोर टीम में हैं और सह सर कार्यवाह के पद पर हैं.
3- आमतौर पर ये माना जाता रहा है कि जो प्रचारक बीजेपी में काम कर लेते हैं, या समन्वय का काम कर लेते हैं, उनके लिए संघ के सरसंघचालक की राह मुश्किल हो जाती है. हालांकि ऐसा कोई लिखित नियम नहीं है.
4- आमतौर पर मीडिया में कहा जाता है कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई की तरह बीजेपी का छात्र संगठन है, वो सांगठनिक रूप से बिलकुल गलत है. दोनों संगठन भले ही संघ परिवार का हिस्सा हों, लेकिन जिस तरह एनएसयूआई में जिले या नगर में पदाधिकारियों की नियुक्ति जिले या नगर के कांग्रेस अध्यक्ष करते हैं और राष्ट्रीय पदाधिकारियों की नियुक्ति अब तक सोनिया या राहुल गांधी करते आए हैं, वैसे अधिकार बीजेपी के ना तो जिला अध्यक्ष को हैं और ना ही राष्ट्रीय अध्यक्ष को. एबीवीपी का अपना अलग संगठन है, जिसमें आमतौर पर नगर, प्रदेश या राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर कोई टीचर या प्रोफेसर होता है. एबीवीपी वैसे भी संघ ने तब खड़ा किया था, जब ना जनसंघ बना था और ना बीजेपी, 1949 में इस संगठन की नींव पड़ी थी और आज बीजेपी में सबसे टॉप के नेता इसी संगठन ने दिए हैं, चाहे वो अमित शाह और जेटली जैसे नेता हों या फिर सुनील बंसल जैसे संगठन मंत्री.
5- बीजेपी के यूं तो कई प्रकोष्ठ हैं, जिसमें अनूसूचित जाति, जनजाति मोर्चा से लेकर किसान मोर्चा तक शामिल हैं. लेकिन बीजेपी से जुड़ा सबसे बड़ा सहयोगी संगठन है भारतीय जनता युवा मोर्चा. अनुराग ठाकुर के बाद इस पद पर पूनम महाजन की नियुक्ति हुई है, महिला मोर्च भी अब मजबूत हो चला है. बीजेपी का अपना कोई छात्र संगठन नहीं है, एक बार शुरू करने की बात भी हुई थी, लेकिन एबीवीपी से टकराव के चलते वो आइडिया टाल दिया गया. आम तौर पर संघ के कई संगठन जैसे विश्व हिंदू परिषद, एबीवीपी, किसान संघ, मजदूर संघ, बजरंग दल आदि बीजेपी को सपोर्ट भी करते हैं और मौके बेमौके विरोध भी. इसलिए अक्सर बिना संघ प्रष्ठभूमि के बीजेपी ज्वॉइन करने वाले नेता इस गोरखधंधे को समझ नहीं पाते.
6- संघ के वरिष्ठ पदाधिकारियों ने कई अनौपचारिक बातचीत में ये माना है कि संघ का इरादा अपनी कोई राजनीतिक इकाई खोलने का था ही नहीं. सावरकर की हिंदू महासभा से भी संघ का कोई आधिकारिक जुड़ाव नहीं था. 1925 में शुरू हुए संघ ने विद्यार्थी परिषद जैसे तमाम संगठन 1950 तक खड़े कर दिए थे, लेकिन राजनीतिक पार्टी को लेकर कभी आम सहमति नहीं बन पाई थी. ऐसे में महात्मा गांधी की हत्या ने काफी कुछ बदल दिया. हिंदू महासभा से वीर सावरकर जुड़े थे, उनसे नाथूराम गौडसे के रिश्तों को लेकर उन पर गांधी हत्या का केस चलाया गया. संघ को भी बैन कर दिया गया. बाद में सावरकर भी बरी हो गए, संघ पर से भी बैन हट गया. लेकिन इन तीन चार सालों में संघ के कार्यकर्ताओं को पुलिस और जांच एजेंसियों ने इतना परेशान किया कि उनको लगने लगा कि राजनीतिक पार्टी हो ना हो, लेकिन ऐसा कोई संगठन राजनीति में जरूरी है, जो संघ के प्रति मित्रभाव रखता हो. जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने गांधी हत्या के बाद हिंदू महासभा से इस्तीफा दे दिया तो उन्होंने संघ के सहयोग से बीजेएस यानी भारतीय जनसंघ की स्थापना की, तारीख थी 21 अक्टूबर 1951. यानी पहले आम चुनाव से ठीक पहले. उस चुनाव में जनसंघ को तीन सीटें मिली थीं.
7- श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिंदू महासभा के 1943 से 1946 तक राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे थे, धारा 370 का उन्होंने जमकर विरोध किया था. कश्मीर में घुसने के लिए भारतीयों को पहले परमिट लेना पड़ता था, मुखर्जी ने जमकर विरोध किया. दो साल के अंदर ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कश्मीर की जेल में मौत हो गई तो उपाध्यक्ष चंद्रमौली शर्मा को अध्यक्ष बनाया गया. उनके बाद प्रेमचंद्र डोगरा, आचार्य डीपी घोष, पीताम्बर दास, ए रामाराव, रघु वीरा, बच्छरास व्यास आदि जनसंघ की कमान संभालते रहे, 1966 में बलराज मधोक ने संभाला और 1967 में अध्यक्ष बने दीनदयाल उपाध्याय. उनके बाद अगले चार साल यानी 1972 तक अटल बिहारी बाजपेयी रहे और 1977 तक लाल कृष्ण आडवानी.
8- 1977 में जनसंघ जनता पार्टी की सरकार में शामिल हो गया. जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया. इंदिरा गांधी ने सत्ता से हटते ही जनता पार्टी के नेताओं की आपसी खींचतान को अपने दावपेंचों से बढ़ाना शुरू कर दिया. एक मुद्दा ये बना कि जनता पार्टी के जनसंघ से जुड़े सदस्यों को आरएसएस की भी दोहरी सदस्यता से बचना चाहिए. जोकि मुमकिन नहीं था. क्योंकि आरएसएस से केवल एक नेता के तौर पर आडवाणी और अटल नहीं जुड़े थे, वो तो उनके प्रचारक रहे थे. उनके लिए सरकार बाद में थी, संघ पहले और इस तरह 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई.
9- पहली बार जनसंघ की तरफ से आडवाणी जनता पार्टी सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री रहे थे और अटल बिहारी बाजपेयी विदेश मंत्री. उनका यूएन में हिंदी में दिया गया भाषण काफी चर्चा में रहा था.
10- जनता पार्टी के संघी नेताओं को लगा कि अब एक नए प्लेटफॉर्म की जरूरत है, योजना बनी और 6 अप्रैल 1980 के दिन मुंबई में एक नई राजनैतिक पार्टी की स्थापना हुई, नाम रखा गया भारतीय जनता पार्टी. एक तरह से जनता पार्टी की यादों को जनता के मन से धूमिल नहीं होने देना चाहते थे अटल और आडवाणी. दिन भी चुना गया 6 अप्रैल जब समंदर के किनारे ही 1930 में गांधीजी ने डांडी यात्रा के बाद नमक बनाकर काला कानून तोड़ा था.
11- बीजेपी से पहले जनसंघ ने पहला बड़ा अभियान कश्मीर को लेकर 1953 में चलाया था, वो बाकी राज्यों की तर्ज पर ही बिना किसी स्पेशल स्टेटस के कश्मीर को भारत में मिलाने का पक्षधर थी.
12- मुखर्जी के साथ संघ की तरफ से मदद के लिए उत्तरप्रदेश के उनके प्रचारक दीनदयाल उपाध्याय को लगाया गया था, पहले वो यूपी के संगठन मंत्री रहे. फिर पूरे देश का संगठन का काम उन्हें महासचिव के तौर पर सौंपा गया. मुखर्जी की मौत के बाद पूरी जिम्मेदारी एक तरह से उनके सर पर थी, एक युवा प्रचारक अटल बिहारी बाजपेयी का साथ उन्हें जरूर मिला. जनसंघ के अध्यक्ष भले ही बदलते रहे, लेकिन उपाध्याय ने परदे के पीछे से जिस तरह जनसंघ को मजबूती दी, वो काबिले तारीफ थी. आज अगर बात बात में बीजेपी के नेता उपाध्यायजी का नाम लेते हैं तो उसकी बड़ी वजह है. जहां चंद्रमौली शर्मा और बलराज मधोक जैसे नेता अपने सहयोगियों से ही विवादों में व्यस्त रहे, वहीं उपाध्याय ने बिना किसी महत्वाकांक्षा के इस संगठन को पूरे देश में बढ़ाया. पहले उनके साथ अटल और फिर आडवाणी ने पूरी मदद की, जो बाद में बीजेपी के बड़े चेहरों के तौर पर सामने आए.
13- उन्नीस सौ अस्सी में 6 अप्रैल को जब नई पार्टी बीजेपी के तौर पर अस्तित्व में आई तो इस बार पिछली कुछ गलतियों से सबक लिया गया था. हिंदू राष्ट्रवाद तो था लेकिन गांधीवादी समाजवाद को भी अपना लिया गया. बाजपेयी का नरम और स्वीकार्य चेहरा आगे रखा गया. लेकिन सर मुंडाते ही ओले प़ड़ने वाली बात थी. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या ने बाजपेयी के समर्थन में बने माहौल को खराब कर दिया और इंदिरा के पक्ष में उठी बड़ी सुहानुभूति लहर के चलते राजीव गांधी 400 से ज्यादा सीटें जीतकर पीएम बन गए, बीजेपी के हिस्से में केवल दो सीटें आईं. यानी 1951 में जनसंघ की जितनी सीटें आई थीं, उससे भी एक कम.
14- ऐसे में बीजेपी ने अपने रुख में बड़ा परिवर्तन किया. 1980 से 6 साल तक बाजपेयीजी अध्यक्ष रहे थे, उनको हटाकर लाल कृष्ण आडवाणी का चेहरा आगे किया गया. वो बाजपेयी की तरह वाक चतुर तो नहीं थे, लेकिन संघ को उनका कड़ा रुख और स्पष्टवादिता पसंद आती थी. अगले तीन साल आडवाणी ने बीजेपी को एक गुस्सैल और आंदोलनकारी पार्टी में तब्दील कर दिया. नतीजा ये रहा कि 1989 में बीजेपी की 85 सीटें आईं, यानी पिछली बार से 83 सीटें ज्यादा. विश्व हिंदू परिषद के आंदोलन के बाद आडवाणी की अगुवाई में बीजेपी ने भी राम मंदिर को अपने एजेंडे में शामिल कर लिया.
15- 1988 में वीपी सिंह ने जिस जनता दल को खड़ा किया था, उसने 1989 में बीजेपी और लैफ्ट पार्टियों के बाहरी सहयोग से कई पार्टियों वाली एक खिचड़ी सरकार बनाई. बीजेपी के इतिहास में ये सबसे दिलचस्प मोड़ था कि उसने भी एक ऐसी सरकार का सहयोग किया था, जिसे लैफ्ट पार्टियां भी बाहर से ही समर्थन दे रही थीं. ये सब एक साथ आए थे तो केवल कांग्रेस विरोध के नाम पर.
16- लेकिन आडवाणी को लग चुका था कि आजादी के बाद अगर दो बार कांग्रेस की केन्द्र में सरकार नहीं बनी है, तो इसका मतलब अब कांग्रेस पहले जैसी अजेय नहीं रही है. तो इसके लिए उन्होंने अपने आंदोलन को तेज कर दिया. हालांकि वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें भी लागू कर दीं, आरक्षण के विरोध में देश भर में आत्महत्याएं होने लगीं. बीजेपी ने आरक्षण और समर्थन और विरोध से इतर एक नया काम किया, बीजेपी ने राम मंदिर के लिए कार सेवा और आडवाणी की रथयात्रा का ऐलान कर दिया. यहीं से हो गया खेल, लालू ने आडवाणी को गिरफ्तार करवा दिया और बीजेपी ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस लिया और सरकार गिर गई.
17- 1992 में बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे के टूटने के बाद बीजेपी की चार सरकारों को गिरा दिया गया, दंगों के चलते बीजेपी को बाकी पार्टियों ने निशाने पर लिया. हालांकि बीजेपी बढ़ती रही, 1991 में 120 लोकसभा सीटें, 1996 में 161 सीटें आईं तो पहली बार भारतीय संसद में वो सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी. राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने बुला भी लिया, बाजपेयी ने सरकार भी बना ली, लेकिन बहुमत नहीं जुटा पाए. 13 दिन बाद इस्तीफा देना पड़ा.
18- बीजेपी को समझ आ गया कि ज्यादा दिन तक अछूत बने रहना अच्छी बात नहीं. संयुक्त मोर्चा की दो सरकारों के बाद मध्यावधि चुनावों के लिए एनडीए बनाया गया, शिवसेना, समता पार्टी, बीजू जनता दल, अकाली दल और एआईडीएमके से समझौता हुआ. बीजेपी को 182 सीटें मिलीं, बाजपेयी दूसरी बार पीएम बने. लेकिन 13 महीने बाद जयललिता ने समर्थन वापस ले लिया और 1 वोट से बाजपेयी सरकार फिर गिर गई. लेकिन चुनाव होने तक कार्यवाहक सरकार के मुखिया बाजपेयी ही रहे.
19- लेकिन अटल बिहारी बाजपेयी ने इस 13 महीने की सरकार में एक इतिहास रच दिया. 24 साल बाद परमाणु टेस्ट कर दिया, रूस और फ्रांस ने समर्थन दिया, लेकिन अमेरिका ने प्रतिबंध लगा दिए. पाकिस्तान ने भी जवाबी धमाके किए. बाजपेयी की छवि मजबूत होकर सामने आई. बाजपेयी ने लाहौर बस यात्रा के जरिए पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कूटनीति को अंजाम देकर भी इतिहास में अपनी जगह और मजबूत कर ली.
20- लेकिन अस्थिर सरकारों का चलन देखकर पाकिस्तान ने पीठ में छुरा घोंप दिया और कारगिल में घुसपैठ कर कुछ महत्वपूर्ण चोटियों पर कब्जा कर लिया. बाजपेयी को फिर मौका मिला, हद में रहकर पाकिस्तान को सबक सिखाया और कब्जे वाले सारे स्थान वापस प्राप्त कर लिए.
21- कारगिल विजय ने भारतीय जनता के दिलों में अटल के लिए फिर से इज्जत बढ़ा दी और 1999 के चुनाव में उनको फिर से विजय मिली. जयललिता से मुक्ति मिली और पांच साल सरकार चलाने का मौका भी पहली बार मिला. एनडीए को 303 सीटें मिलीं.
22- बाजेपेयी का कार्यकाल जहां प्लेन हाईजैक के बाद मसूद अजहर को छोड़ने और संसद अटैक के लिए विपक्ष के निशाने पर रहा, वहीं पूरे भारत को हाईवे से जोड़ने, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना की कामयाबी, 22 साल बाद किसी अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा जैसे मुद्दों के चलते बाजपेयी कार्यकाल चर्चा में रहा. तहलका के स्टिंग में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण के फंसने से किरकिरी भी हुई, तो परवेज मुशर्ऱफ की आगरा यात्रा का ड्रामा भी चर्चा में रहा.
23- बाजपेयी सरकार के दौरान 2002 के गोधरा कांड और पोस्ट गोधरा दंगों ने भविष्य की बीजेपी की नींव रख दी. फौरी तौर पर बाजपेयी सरकार का दोबारा ना आना एक परिणाम माना जाता है, लेकिन दूरगामी तौर पर बीजेपी को भविष्य का मजबूत नेता मोदी के तौर पर मिलना भी इसके परिणामों में गिना जाता है. इसी दौरान बाजपेयी को विकास पुरुष और आडवाणी को लौह पुरुष कहा जाने लगा.
24- बिना फील गुड फैक्टर, शाइनिंग इंडिया और प्रमोद महाजन की चर्चा के बिना भी बीजेपी की ये यात्रा अधूरी ही है. लेकिन कोई भी तिगड़म, तरकीब या कैम्पेन बाजपेयी को वापस नहीं ला सका. बाजपेयी की लगातार गिरती हैल्थ भी एक मुद्दा बन गई.
25- 2004 में बीजेपी 138 और फिर आडवाणी की अगुवाई में 2009 में चुनाव लड़ने पर 116 सीटों पर आ गई. संघ को फिर एक बड़े ऑपरेशन की जरुरत थी. अटल आडवाणी के बाद आडवाणी प्रमोद का युग भी खत्म हो चला था. अब एक नए चेहरे की जरूरत थी, जो नरेन्द्र मोदी के तौर पर सामने आया. एक तरह से निर्विवाद चेहरे के तौर पर, मोदी के गुरू आडवाणी के अलावा बाकी सबने संघ की इस पसंद के आगे हथियार डाल दिए और 283 सीटों के साथ प्रचंड जीत से मोदी ने इतिहास रच दिया. अकेले दम पर भाजपा की सरकार बनाकर.
26- मोदी के करीबी अमित शाह को भी बीजेपी के इतिहास में याद रखा जाएगा, प्राइमरी मेम्बरशिप के आधार पर विश्व की सबसे बड़ी पार्टी बनाने के लिए, 21 राज्यों तक बीजेपी की सत्ता पहुंचाने के लिए, सहयोगियों को ब्लैकमेलिंग से रोकने के लिए और एक आलीशान नया पार्टी हैडक्वार्टर बनाने के लिए भी.
27- जनसंघ का चुनाव चिह्न ‘दीपक’ था, लेकिन बीजेपी का चुनाव चिह्न कमल के फूल को चुना गया. कमल का फूल देवी सरस्वती का प्रतिनिधित्व करता है, जो शिक्षा और संगीत की देवी हैं. एक तरह से ये भारतीयता को दर्शाता है.
28- चूंकि बीजेपी 1980 में बनी, जनसंघ 1951 में बना, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ 1925 में बना. सो आजादी की लड़ाई में बीजेपी के योगदान पर कांग्रेस सवाल उठाती रही. संघ का आरोप रहा कि कांग्रेस सरकारों के चलते इतिहास गलत ढंग से लिखा गया, यहां तक दो दो बार काला पानी की सजा पाने वाले वीर सावरकर के साथ भी अन्याय हुआ. ऐसे में बीजेपी ने उन महापुरुषों को भी अपने प्रेरणा पुरुषों की सूची में रखा, जिनको कांग्रेस ने तबज्जो नहीं दी या नेहरू परिवार से मतभेद के चलते कांग्रेस ने जिनसे किनारा किया.तो कुछ लोग बीजेपी के हिंदुत्व आइकॉन भी थे. इन महापुरुषों में स्वामी विवेकानंद से लेकर, सुभाष चंद्र बोस, सावरकर, सरदार पटेल, डा. अम्बेडकर जैसे तमाम लोग हैं. यहां तक जब पीएम मोदी भाषण देते हैं, तो शास्त्रीजी, कामराज, सीताराम केसरी आदि के साथ भी कांग्रेस के उपेक्षापूर्ण व्यवहार को लेकर ताना मारने से नहीं चूकते. जबकि कांग्रेस महापुरूष चोरी का आरोप बीजेपी पर लगाती आई है.
29- बीजेपी की दिक्कत ये है कि उनके जो आदर्श हैं, उनमें एक बड़ी संख्या संघ के उन प्रचारकों की है. जिन्होंने शादी ना करके, घरबार छोड़के, कांग्रेस के विरोध का सामना करके, दुर्गम इलाकों और विपरीत परिस्थितियों में संघ या बीजेपी के काम को बढ़ाकर नींव के पत्थर की तरह काम किया. उनका जिक्र इतिहास में नहीं मिलता, लेकिन उनको श्रेय तो देना है. इसलिए दीनदयाल उपाध्याय, हेडगेवार, गुरू गोलवलकर, भाऊ साहब देवरस, रज्जू भैया, जैसे सैकड़ों लोगों से जुड़े कार्यक्रमों को भी करते रहना होता है.
30- टिकट बांटने में पैसे लेने का आरोप ना लगे, सरकार पर करप्शन के आरोप ना लगें, भाई भतीजावाद को बढ़ाने का आरोप ना लगे, किसी एक खानदान का कब्जा ना हो जाए, बीजेपी और संघ के पास इसका एक ही तोड़ है. प्रचारकों की नियुक्ति संगठन में हो और उनकी देखरेख में ही बड़े फैसले लिए जाएं. हालांकि राजनीति में आरोप लगना कभी नहीं रुकते, फिर भी बीजेपी में बाकी पार्टियों के मुकाबले मौका मिलने के ज्यादा अवसर हैं. गडकरी, राजनाथ, वैंकैया जैसे राष्ट्रीय अध्यक्ष पर रहने वाले नेता हों या फिर मोदी, योगी, शिवराज, बिप्लब, त्रिवेन्द्र सिंह रावत, मनोहर लाल खट्टर, फड़नवीस जैसे मुख्यमंत्री, कोई राजनीतिक खानदान की सीढ़ियां चढ़कर इस पद पर नहीं पहुंचा है. वसे प्रचारक सिस्टम के ही चलते बीजेपी में बगावत भी इतनी आसान नहीं होती.
31- लोगों को पहले लगता था कि अटल और आडवाणी के बाद कौन, अब लगता है मोदी-अमित शाह के बाद कौन? हो सकता है अभी कुछ नेताओं का करिश्मा ना दिख रहा हो. लेकिन बीजेपी के पास दूसरी और तीसरी पीढ़ी के नेताओं की इतनी लम्बी कतार है कि कब कौन आपको करिश्माई लगने लगे आपको खुद भी याद नही रह जाएगा. योगी को लोग अभी से भविष्य का मोदी मानने लगे हैं, यूपी में जिस तरह सुनील बंसल ने एक एक बूथ पर जाल बिछाकर जीत दिलवाई, उनकी राष्ट्रीय नेताओं में गिनती होने लगी है.
32- सुनील देवधर ने जो त्रिपुरा में किया, उससे आपको जान लेना चाहिए कि बीजेपी के पास छुपे रुस्तमों की कमी नहीं. जिस तरह परदे के पीछे से मुरलीधर राव साउथ में बिसात बिछा रहे हैं और राम माधव ने कश्मीर में महबूबा के साथ तार मिलाए और फिर नॉर्थ ईस्टर्न स्टेट्स के लिए रणनीति बनाई. उससे समझ जाने की जरुरत है कि बीजेपी को बस एक करिश्माई नेतृत्व और हवा की जरुरत भर है, उसके पास नेताओं की कमी नहीं.
33- बीजेपी को आम तौर पर मुस्लिम विरोधी माना जाता रहा है. जबकि उसको मिलने वाले वोट के आंकड़े कुछ और ही कहते हैं. बीजेपी को मुस्लिमों का वोट मिलने लगा है, शिया वोटों में बीजेपी ने सैंध लगाई है. ट्रिपल तलाक के मुद्दे और उज्जवला योजना जैसी योजनाओं के जरिए बीजेपी ने मुस्लिम महिलाओं के बीच भी जगह बनाई है. सिकंदर बख्त के बाद मुख्तार अब्बास नकवी और शाहनवाज ये दो चेहरे ही बीजेपी के पास हुआ करते थे. लेकिन वक्त बदल गया है, अब नजमा हेपुतुल्ला हैं, भले ही राज्यपाल बन गईं, लेकिन उनकी इमेज से फायदा तो बीजेपी को मिलती ही है. दिल्ली मे शाजिया जैसी साफ छवि की महिला नेता और गुजरात में आसिफा खान ने भी बीजेपी में आकर मोदी के पक्ष में मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में माहौल बनाया है. कश्मीर में भी मुस्लिम नेता हिना भट बीजेपी के टिकट पर चुनाव में उतरीं, कुल 17 मुस्लिम कैंडिडेट बीजेपी ने खड़े किए.
34- पुरुष मुसलमानों में एम जे अकबर हैं, मोदी सरकार में मंत्री हैं, प्रतिष्ठित पत्रकार हैं. सलमान ने मोदी के साथ पतंग उड़ाई, सलीम खुलकर मोदी का समर्थन करते आए हैं, सलमान के करीबी जफर सुरेशवाला मोदी के करीबी लोगों में हैं. यूपी के वक्फ बोर्ड मंत्री क्रिकेटर मोहसिन रजा बजरंग बली के मंदिर में भी मत्था टेक आते हैं. यूपी के शिय़ा वक्फ बोर्ड के चेय़रमेन वसीम रिजवी तो आतंकवाद और कई मसलों पर बीजेपी की ही भाषा बोलते हैं. डच बैंक के पूर्हाव इंडिया हैड सैय्यद जफर इस्लाम आर्थिक मामले के विशेषज्ञ हैं, युवा मुस्लिमों पर उनकी जबरदस्त पकड़ भी है, आजकल टीवी पर बीजेपी का चेहरा बनते जा रहे हैं. इसी तरह एबीवीपी की राजनीति से उभर कर बीजेपी दिल्ली में अल्पसंख्यक मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष रह चुके आतिफ रशीदी भी तेजी से बीजेपी में पहचान बना रहे हैं. अभी इसी मोर्चे के प्रभारी हैं, राष्ट्रपति ने उन्हें एएमयू कोर्ट में नोमिनेट किया है, मुस्लिम युवाओं में बेहतरीन पकड़ रखते हैं. मुस्लिमों को स्थानीय चुनावों में टिकट देने, फर्जी वजीफाओं को रोकने, मदरसों का मॉर्डनाइजेशन जैसे मुद्दे भी मुस्लिमों के बीच डिसकस हो रहे हैं. हालांकि इन सबसे बीजेपी थोड़ा चेहरा जरूर बदल रही है, लेकिन मैजोरिटी मुस्लिम अभी भी उसकी पकड़ से काफी दूर है. हालांकि बीजेपी ने कलाम को राष्ट्रपति बनाकर, वीर अब्दुल हमीद को अपना आइकॉन मानकर ये इशारा भी कर दिया है कि उसे राष्ट्रभक्त मुस्लिमों से कोई परहेज नहीं. बशर्ते वो बीजेपी की विचारधारा से परहेज ना करें.
35- पिछले कुछ सालों में बीजेपी को जो बड़ी कामयाबी मिली है, वो ये कि अब बाकी पार्टियों को हिंदू वोट की भी अहमियत समझ आने लगी है. ये भारतीय राजनीति में बड़ा बदलाव है. इफ्तार पार्टियां घट गई हैं, रामनवमी जुलूस और नेताओं के मंदिर भ्रमण बढ़ गए हैं. लेकिन इसका तोड़ विपक्षी पार्टियां मुस्लिम-दलित गठजोड़ में ढूंढने में लगी हैं. ये अलग बात है कि बीजेपी के तमाम सांसद दलित हैं, और जिस तरह मोदी की सरकार ने डा, अम्बेडकर से जुड़ी इंदु मिल की जमीन और लंदन वाला घर लिया है, एसएसटी एक्ट में स्पेशल कोर्ट की व्यवस्था की है, और संघ का जो आदिवासियों के बीच काम है, वो इतना आसान भी नहीं.
36- अमित शाह की अगुवाई में बीजेपी ने एक नया कैम्पेन चलाया हुआ है कि कैसे हर जिले में बीजेपी का अपना कार्यालय जरुर हो. हाल ही में उड़ीसा में अमित शाह ने 26 जिला मुख्यालयों की आधार शिला रखी. उनकी अगुवाई में लोकसभा में ही नहीं राज्यसभा में भी पहली बार सबसे बड़ी पार्टी बनने का मौका बीजेपी को मिला है.
37- बीजेपी का नया हैडक्वार्टर 80,000 स्क्वायर मीटर के प्लॉट पर बना है. दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय रोड पर काफी हाईटेक दफ्तर है ये, कुल दो इमारतें हैं, एक 3 मंजिला और दूसरी 7 मंजिला. वाटर हार्वेस्टिंग, सोलर एनर्जी, वाईफाई, 8 वीडियो कान्फ्रेंस हॉल्स, डिजिटल लाइब्रेरी जैसी तमाम आधुनिक टेक्नोलॉजी इस दफ्तर में इस्तेमाल की गई है. कुल 70 कमरे हैं, प्रवक्ताओं के कमरे गाउंड फ्लोर पर ही हैं. मीडिया के लिए हॉल के अलावा 2 सभागार मीटिंग्स के लिए हैं, एक 450 और दूसरा 150 की झमता वाला. 400 गाडियों की पार्किंग के लिए भी व्यवस्था है.
38- बीजेपी पहली ऐसी पार्टी है, जिसके कार्यकर्ता पहले से ही संघ में प्रशिक्षित होकर आ रहे थे. उसके बावजूद लगातार ट्रेनिंग सेंटर्स बनाए जा रहे हैं. मुंबई के पास रामभाई म्हालगी प्रबोधिनी ऐसी ही एक संस्था है, जहां नेता तैयार किए जाते हैं. बीजेपी नेता विनय सहश्रबुद्धे दीनदयाल उपाध्याय के इस सपने से जुड़े हुए हैं. विनय पॉलटिकल ट्रेनिंग के मास्टर माने जाते हैं. संघ के काफी करीबी हैं, संघ-बीजेपी के कई इंटलेक्चुअल ग्रुप संचालित करते हैं. हाल ही में उनको आईसीसीआर की जिम्मेदारी भी दी गई है. बहुत जल्द हरिय़ाणा में भी दिल्ली के पास एक ऐसा ट्रेनिंग सेंटर तैयार किया जा रहा है, जहां अभ्यास वर्ग तो लग ही सकेंगे, बड़ी मीटिंग्स और अधिवेशन भी हो सकेंगे.
सैलरी कम होने से नहीं हो रही दिल्ली के विधायकों की शादी, वेतन बढ़ाने को साथ आई आप और भाजपा