8 फरवरी के दिन ही जिस भारतीय ने रेता था सबसे बड़े अंग्रेज अधिकारी का गला, उसे आप नहीं जानते…!

शेर अली अफरीदी ने आज के दिन यानी 8 फरवरी को ही सबसे बड़े अंग्रेज अधिकारी गवर्नर जनरल लॉर्ड मेयो की हत्या कर दी थी. देश के इस वीर के बारे में ना तो आपको किसी किताब में जिक्र मिलेगा और ना ही इतिहास के पन्नों में इन्हें कोई खास जगह दी गई है. इसलिए हम आपको बता रहे हैं भारत के इस वीर सपूत की कहानी. पढ़िए वीर शेर अली अफरीदी की बहादुरी के बारे में...

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8 फरवरी के दिन ही जिस भारतीय ने रेता था सबसे बड़े अंग्रेज अधिकारी का गला, उसे आप नहीं जानते…!

Aanchal Pandey

  • February 8, 2018 1:40 pm Asia/KolkataIST, Updated 7 years ago

नई दिल्लीः जी हां.. ये सच है और 8 फरवरी ही वो तारीख है जिस दिन भारत में सबसे बड़े अंग्रेज अधिकारी यानी गर्नवर जनरल का गला रेत दिया गया था. ना किसी कोर्स की किताब में इस व्यक्ति का जिक्र किया गया है और ना उसकी याद में कोई उसकी जयंती मनाता है. यहां तक क्रांतिकारियों या देशभक्तों की किसी भी सूची में उसका नाम नहीं है. इसके पीछे कई वजह हैं, लेकिन ये भी सच है कि आजादी से पहले देश में तमाम बड़े क्रांतिकारियों ने जिसकी योजना बनाई, हमला भी किया लेकिन कामयाब नहीं हो पाए, वो काम उस अकेले शख्स ने कर दिखाया, वो भी बिना किसी क्रांतिकारी संगठन की मदद के. उसका नाम था शेर अली अफरीदी.

उसके किए काम के महत्व को समझने के लिए आपको पहले ये समझना होगा कि उसने जिस अंग्रेज अधिकारी की हत्या की वो हैसियत और ताकत में कितना बड़ा था. जिस तरह आज देश में प्रधानमंत्री की जो हैसियत है, उस वक्त वही हैसियत अंग्रेजी राज के गर्वनर जनरल की थी, ये अलग बात है कि वायसराय के रूप में वो ब्रिटेन की सरकार को रिपोर्ट करता था. शेर अली अफरीदी ने उस वक्त के गर्वनर जनरल लॉर्ड मेयो की हत्या कर दी थी, जो वाकई में पूरे अंग्रेजी राज के लिए बड़ा शॉक थाच. देश में उस वक्त अगर सबसे ज्यादा किसी की सुरक्षा के पुख्ता इंतजामात थे तो वह अंग्रेजी गर्वनर जनरल की थे, 8 फरवरी के दिन 1872 में शेर अली ने तमाम सुरक्षा बंदोबस्तों को ध्वस्त करते हुए चाकू से गोद गोद कर लॉर्ड मेयो की हत्या कर दी थी.

लॉर्ड रिचर्ड बुर्क (सिक्स्थ अर्ल ऑफ मेयो) की हत्या कितना बड़ा काम था, आप इसी बात से जान सकते हैं कि भगत सिंह ने जिस सांडर्स की हत्या की, वो डीएसपी स्तर का ऑफिसर था, पुणे में चापेकर बंधुओं ने कमिश्नर स्तर के अधिकारी की हत्या की थी, रासबिहारी बोस और विश्वास ने वायसराय लॉर्ड हॉर्डिंग के हाथी पर दिल्ली में घुसते वक्त बम फेंका था, महावत की मौत हो गई लेकिन हॉर्डिंग बच गया. वायसराय लॉर्ड इरविन की स्पेशल ट्रेन पर भगवती चरण बोहरा, यशपाल और साथियों ने आगरा से दिल्ली आते वक्त बम फेंका था, वो बच गया. ऐसे कितने ही क्रांतिकारी हुए जिन्होंने जान की बाजी लगाकर कई अंग्रेज अधिकारियों पर हमले किए, कइयों को मौत के घाट उतारा भी. लेकिन कोई उतना कामयाब नहीं हुआ, जितना शेर अली अफरीदी. फिर शेर अली अफरीदी को आप या देश की जनता क्यों नहीं जानती और क्यों इतना सम्मान नहीं देती…!

इसको समझने के लिए आपको शेर अली अफरीदी के बारे में जानना पड़ेगा, लेकिन उससे पहले ये समझना होगा कि अंग्रेजी राज में तमाम ऐसे बड़े नाम थे, जो देशभक्त होने के वाबजूद अंग्रेजी राज को क्रांतिकारियों की तरह एकदम जड़ से उखाड़ने के समर्थक नहीं थे. खुद कांग्रेस पार्टी ने स्थापना के चौवालीस साल बाद 1929 में पहली बार पूर्ण स्वतंत्रता की बात की, खुद गांधीजी ने पहली बार 1942 में जाकर भारत छोड़ो का नारा दिया. गांधीजी से तो क्रांतिकारियों का झगड़ा ही इस बात का था कि क्यों ना 1914 के प्रथम विश्व युद्ध और 1939 के दूसरे विश्व युद्ध को मौका मानकर अंग्रेजों पर अंदर से ही हमला बोल दिया जाए. गांधीजी अंग्रेजों की मजबूरी का लाभ उठाने के सख्त खिलाफ थे। बल्कि पहले विश्व युद्ध में तो खुद गांधीजी ने अंग्रेजी सेना में भर्ती होने के लिए भारतीय युवाओं से आव्हान किया था, तब लोग उन्हें भर्ती करने वाले सार्जेन्ट कहने लगे थे. गुरुदेव टैगोर ही नहीं चितरंजन दास, मोतीलाल नेहरू, दादा भाई नौरोजी जैसे तमाम कांग्रेसी नेताओं पर सरकारी उपाधियां थीं. कांग्रेस को एक अंग्रेज ए ओ ह्यूम ने ही शुरू किया था और पहले ही सैशन में वायसराय डफरिन ने पूरी कांग्रेस को दावत दी थी.

ऐसे में शेर अली का राजा राममोहन राय या वंदेमातरम लिखने वाले बंकिम चंद्र चटर्जी की तरह अंग्रेजी सरकार की नौकरी करना कोई बड़ी बात नहीं थी। 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाने वाले नाना साहेब के दीवान अजीमुल्लाह खान और आजाद हिंद फौज को खड़ी करने वाले कमांडर मोहन सिंह भी अंग्रेजों के खिलाफ जाने से पहले ईमानदारी से अंग्रेजी सरकार की नौकरी निभा रहे थे। शेर अली पेशावर के अंग्रेजी कमिश्नर के ऑफिस में काम करता था और खैबर पख्तून इलाके का रहने वाला था और पठान था। वो अम्बाला में ब्रिटिश घुडसवारी रेजीमेंट में भी काम कर चुका था। यहां तक कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में रोहिलखंड और ओढ़ के युद्ध में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से हिस्सा भी ले चुका था। अंग्रेजी कमांडर रेनेल टेलर उसकी बहादुरी से इतना खुश हुआ कि उसको तोहफे में एक घोड़ा, एक पिस्टल और बहादुरी का बखान करते हुए एक सर्टिफिकेट भी दिया।

जिस तरह अजीमुल्लाह खान कानपुर में अंग्रेजों और यूरोपियंस के बीच लोकप्रिय था, उसी तरह पेशावर के यूरोपियन अधिकारी शेर अली को भी काफी पसंद करते थे. टेलर ने तो उसे अपने बच्चों की सुरक्षा में लगा दिया. तब तक अंग्रेजी राज उसे बुरा नहीं लगता था, देश और देशभक्ति क्या है शाय़द उसे पता नहीं था, स्वामिभक्ति और बहादुरी की भावनाओं से लबालब था वो. लेकिन जिस तरह गांधीजी को साउथ अफ्रीका में ट्रेन से उतारने पर उनको नस्ल भेद के खिलाफ गुस्सा आया, जिअस तरह करतार सिंह सराभा ने सैनफ्रांसिस्को में अपमान झेला और गदर आंदोलन से जुड़े, जिस तरह लाला लाजपत राय पर लाठियां बरसने से कई क्रांतिकारियों का खून खौल उठा, ठीक वैसा ही शेर अली अफरीदी के साथ हुआ. एक खानदानी झगड़े में शेर अली पर अपने ही रिश्तेदार हैदर का कत्ल करने का इल्जाम लगा, उसने पेशावर में मौजूद अपने सभी अधिकारियों के सामने खुद को बेगुनाह बताया. लेकिन किसी ने उसकी बात नहीं मानी और उसे 2 अप्रैल 1867 को मौत की सजा सुना दी गई। उसका भरोसा अंग्रेजी अधिकारियों से, अंग्रेजी राज से एकदम उठ गया. उसको लगा कि जिनके लिए उसने ना जाने कितने अनजानों और बेगुनाहों के कत्ल किए, आज वो ही उसे बेगुनाह मानने को तैयार नहीं थे. पहली बार उसे अहसास हुआ कि कभी भी किसी अंग्रेज पर कत्ल का मुकदमा चलने से पहले ही उसे ब्रिटेन वापस भेज दिया जाता था, लेकिन आज उसे बचाने वाला कोई नहीं क्योंकि वो अंग्रेज नहीं बल्कि भारतीय है.

उसने फैसले के खिलाफ अपील की, हायर कोर्ट के जज कर्नल पॉलाक ने उसकी सजा घटाकर आजीवन कारावास कर दी और उसे काला पानी यानी अंडमान निकोबार भेज दिया। तीन से चार साल सजा काटने के दौरान उसकी तमाम क्रांतिकारियों से काला पानी की जेल में मुलाकात हुई, हालांकि उस वक्त तक क्रांतिकारी आंदोलन इतना भड़का नहीं था. फिर भी अंग्रेज विरोधी भावनाएं मजबूत हुईं, जो भी लोग कैद थे उनमें से ज्यादातर अंग्रेजी राज के दुश्मन थे. जेल में उसके अच्छे व्यवहार की वजह से 1871 में उसे पोर्ट ब्लेयर पर नाई का काम करने की इजाजत दे दी गई, एक तरह की ओपन जेल थी वो। लेकिन वहां से भागने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता था. हालांकि उसने अंग्रेजी राज को दी गई अपनी सेवाओं के बारे में लिखते हुए वायसराय से अपील की थी कि उसकी बाकी सजा को माफ कर दिया जाए, लेकिन वायसराय ने उसकी अपील खारिज कर दी. इससे उसके मन में वायसराय को लेकर काफी गुस्सा था, वो साफ देख रहा था कि छोटे से छोटे अंग्रेजी सैनिक को बडे से बड़े जुर्म के वाबजूद कोई सजा नहीं दी जाती थी, और उसे काला पानी भेज दिया गया था तिल तिल कर मरने के लिए. उनके तय कर लिया था कि उसे दो व्यक्तियों की हत्या करनी है एक उसका सुप्रिडेंटेंट और एक अंग्रेजी राज का वायसराय.

उसे ये मौका मिल भी गया जब गर्वनर जनरल लॉर्ड मेयो ने अंडमान निकोबार के पोर्ट ब्लेयर में सेलुलर जेल के कैदियों के हालात जानने और सुरक्षा इंतजामों की समीक्षा करने के लिए वहां का दौरा करने का मन बनाया। शायद मेयो का काम पूरा हो भी चुका था. शाम सात बजे का वक्त था, लॉर्ड मेयो अपनी बोट की तरफ वापस आ रहा था। लेडी मेयो उस वक्त बोट में ही उसका इंतजार कर रही थी. वायसराय का कोर सिक्योरिटी दस्ता जिसमें 12 सिक्योरिटी ऑफिसर शामिल थे, वो भी साथ साथ चल रहे थे। इधर शेर अली अफरीदी ने उस दिन तय कर लिया था कि आज अपना मिशन पूरा करना है, जिस काम के लिए वो सालों से इंतजार कर रहा था, वो मौका आज उसे मिल गया है और शायद सालों तक दोबारा नहीं मिलना है. वो खुद चूंकि इसी सिक्योरिटी दस्ते का सदस्य रह चुका था, इसलिए बेहतर जानता था कि वो कहां चूक करते हैं और कहां लापरवाह हो जाते हैं. हथियार उसके पास था ही, उसके नाई वाले काम का खतरनाक औजार उस्तरा या चाकू। उसको मालूम था कि अगर वायसराय बच गया तो मिशन भी अधूरा रह जाएगा और उसका भी बुरा हाल होगा, वैसे भी उसे ये तो पता था कि यहां से बच निकलने का तो कोई रास्ता है ही नहीं.

वायसराय जैसे ही बोट की तरफ बढ़ा, उसका सिक्योरिटी दस्ता थोड़ा बेफिक्र हो गया कि चलो पूरा दिन ठीकठाक गुजर गया. वैसे भी वायसराय तक पहुंचने की हिम्मत कौन कर सकता है, जैसे कि आजके पीएम की सिक्योरिटी बेधने की कौन सोचेगा! लेकिन उनकी यही बेफिक्री उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल हो गई। पोर्ट पर अंधेरा था, उस वक्त रोशनी के इंतजामात बहुत अच्छे नहीं होते थे। फरवरी के महीने में वैसे भी जल्दी अंधेरा हो जाता है, बिजली की तरह एक साया छलावे की तरह वायसराय की तरफ झपटा, जब तक खुद वायसराय या सिक्योरिटी दस्ते के लोग कुछ समझते इतने खून में सराबोर हो चुका था लॉर्ड मेयो कि उसने मौके पर ही दम तोड़ दिया। शेर अली को मौके से ही पकड़ लिया गया, पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में दहशत फैल गई. लंदन तक बात पहुंची तो हर कोई स्तब्ध रह गया. जब वायसराय के साथ ये हो सकता है तो कोई भी अंग्रेज हिंदुस्तान में खुद को सुरक्षित नहीं मान सकता था

शेर अली अफरीदी से जमकर पूछताछ की गई, उसने मानो एक ही वाक्य रट रखा था, “ मुझे अल्लाह ने ऐसा करने का हुक्म दिया है, मैंने अल्लाह की मर्जी पूरी की है बस”। अंग्रेजों ने काफी कोशिश की ये जानने की कि क्या कोई संगठन इसके पीछे है या फिर कोई ऐसा राजा जिसका राज उन्होंने छीना हो या फिर ब्रिटिश राज के खिलाफ किसी विदेशी ताकत का हाथ हो। लेकिन ऐसा कुछ नहीं मिला. हालांकि शेर अली ने जो सेलुलर जेल में तीन चार साल काटे थे, उस वजह से और उसकी नजरों में अंग्रेजों के दोगलेपन की वजह से उसका ब्रेनवॉश की बात की गई थी. जेल में बंद सारे लोग अंग्रेजी सरकार की खिलाफत करने वाले ही थे. उस वक्त चल रहे बहावी आंदोलन के भी कुछ अनुयायी उस वक्त इस जेल में थे.

वहीं मुस्लिमों को इस बात की भी टीस थी कि अंग्रेजों ने मुगल बादशाह की गद्दी कब्जा ली थी. कुछ इतिहासकारों ने शेर अली अफरीदी को पहला जेहादी बताने की भी कोशिश की है. लेकिन सच ये था कि वो स्वामीभक्त तो था, लेकिन गुलामी का अहसास उसे काफी बाद में जाकर हुआ था, कि कैसे अंग्रेजों की हर खता माफ और उसकी हर खता पर सजा. शेर अली ने अपने बयान में गुलामी और उससे जुड़े बदतर हालात की भी चर्चा की, लेकिन पूरे देश को लेकर उसकी सोच शायद उस वक्त नहीं बनी थी, क्योकि वो लड़ाकू तो था लेकिन भगत सिंह की तरह पढ़ाकू नहीं. सबसे खास बात थी कि जिस तरह असेम्बली बम कांड से पहले जिस तरह से भगत सिंह ने अपना हैट वाला फोटो पहले ही खिंचवाकर अखबारों में भेजने की व्यवस्था की थी, उसी तरह शेर अली ने भी गिरफ्तारी के बाद अपना फोटो खिंचवाने में काफी दिलचस्पी दिखाई. शायद वो भी इस बात का ख्वाहिशमंद था कि पीढ़ियां उसे याद रखें कि उसने इतना बड़ा काम कर दिया था. 11 मार्च 1873 को अंडमान निकोबार व्दीप समूह के वाइपर आइलेंड की जेल में उसको फांसी दे दी गई.

जेल में उसकी सेल के साथियों से भी पूछताछ की गई, एक कैदी ने बताया कि शेर अली अफरीदी कहता था कि अंग्रेज देश से तभी भागेंगे जब उनके सबसे बड़े अधिकारी को मारा जाएगा और वायसराय ही सबसे बड़ा अधिकारी था. उसकी हत्या के बाद वाकई वो खौफ में आ गए। इसीलिए ना केवल इस खबर तो ज्यादा तबज्जो देने से बचा गया बल्कि शेर अली को भी चुपचाप फांसी पर लटका दिया गया. लंदन टाइम्स के जिस रिपोर्टर ने उस फांसी को कवर किया था, वो लिखता है कि जेल ऑफिसर ने आखिरी इच्छा जैसी कोई बात उससे पूछी थी तो शेर अली ने मुस्कराकर जवाब दिया था, ‘नहीं साहिब’.लेकिन फांसी से पहले उसने मक्का की तरफ मुंह करके नमाज जरूर अदा की थी.

अंग्रेजों की तरह ही बाकी भारतीय इतिहासकारों ने भी इस शेर अली के इस काम को व्यक्तिगत बदला माना, किसी ने ये नहीं सोचा कि बदला लेना होता तो वो गिरफ्तार करने वाले ऑफिसर या सजा देने वाले जज से लेता, सीधे वायसराय का खून क्यों करता? वो क्यों अंग्रेजों को भारत से निकालने लायक खौफ उनके मन में पैदा करने के लिए वायसराय के कत्ल का अपना सपना अपने साथी कैदियों को बताता? जो भी हो लॉर्ड मेयो की याद में उसी साल ढूंढे गए एक नए व्दीप का नाम रख दिया गया. दिलचस्प बात ये है कि उन्हीं दिनों एक महाराष्ट्र में भी एक वीर बासुदेव बलवंत फड़के अंग्रेजों पर अपनी युवा सेना के जरिए कहर ढा रहा था, उसे भी हमारे इतिहासकार सालों तक डकैत ही कहते रहे. शेर अली अफरीदी का नाम तो इतिहास के छात्रों को भी पता हो तो हैरत की बात है.

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