नई दिल्ली। 2014 के समय से सम्पूर्ण भारत की राजनीति मे कदम रखने वाले असद उद्दीन ओवैसी पर भाजपा की बी टीम होने का आरोप लगता रहा है। लेकिन क्या भाजपा को असदउद्दीन ओवैसी जैसे क्षेत्रीय नेता की आवश्यकता राष्ट्रीय स्तर के चुनावों में पड़ सकती है, क्या सच में ओवैसी भाजपा की बी टीम […]
नई दिल्ली। 2014 के समय से सम्पूर्ण भारत की राजनीति मे कदम रखने वाले असद उद्दीन ओवैसी पर भाजपा की बी टीम होने का आरोप लगता रहा है। लेकिन क्या भाजपा को असदउद्दीन ओवैसी जैसे क्षेत्रीय नेता की आवश्यकता राष्ट्रीय स्तर के चुनावों में पड़ सकती है, क्या सच में ओवैसी भाजपा की बी टीम के रूप में कार्य कर रहे हैं। इन सब सवालों के जवाब जानने के लिए इस लेख को पढ़ें।
2014 से ही भाजपा ने देश की राजनीति मे मस्लिम वोट बैंक का भ्रम तोड़ दिया है। भाजपा ने मुस्लिम प्रत्याशियों को नज़र अंदाज़ करते हुए एवं मुस्लिम मतदाताओं के तुष्टिकरण को एक तरफ रखते हुए सभी स्तर के चुनावों में प्रचंड जीत हासिल की, अपनी इस जीत के चलते भाजपा ने मुस्लिम वोट बैंक का भ्रम तोड़ते हुए हिंदू वोट के जरिए जीत का नया समीकरण बनाया, जिसके चलते सभी पार्टियां दंग रह गई हैं।
जो राजनीतिक दल मुस्लिम वोट बैंक के सहारे सत्ता का सुख भोग रहे थे अब उनके पास राजननीति में वजूद बचाने के लिए भी सिर्फ मुस्लिम वोट बैंक ही बचा है जिसके सहारे वह राजनीति मे कुछ भूमिका तो निभा ही सकते हैं उदाहरण के लिए सपा और कांग्रेस के पास यही नीति ही बची है, राहुल गांधी का वायनॉड से चुनाव लड़ना इस बात को स्पष्ट कर देता है।
ओवैसी की मौजूदगी से सभी दलों को यह लगने लगा कि, यदि ओवैसी ने मुस्लिम वोट बैंक पर सेंध मार दी तो उनके पास वजूद बचाने के लिए कुछ भी नहीं रह जाएगा और वह राजनीति के इस आंगन से बेदखल हो जाएंगे।
यदि गुजरात चुनावों मे ओवैसी की भूमिका देखें तो वह मात्र 14 सीटों पर ही चुनाव लड़ रहे है जिसमे उन्होने हिंदू उम्मीदवारो को भी टिकट दिया है। यदि वह भाजपा के लिए इस चुनावो में एंट्री करते तो वह पूरी उन 45 सीटों पर चुनाव लड़ते जिन्हे प्रभावित करने में मुस्लिम मतदाताओं का अहम योगदान रहता है। लेकिन मात्र 14 सीटों पर लड़कर ओवैसी ने यह साबित कर दिया है कि वह भाजपा की बी टीम के रूप में नहीं बल्कि अपने राजनीतिक वजूद के प्रसार के लिए चुनाव लड़ रहे हैं।