पटना. बिहार में बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए में इस समय सीट बंटवारे से बड़ा सवाल ये है कि गठबंधन में नेता नंबर 2 कौन- रामविलास पासवान या जीतनराम मांझी. उपेंद्र कुशवाहा खुद को नंबर 3 मान चुके हैं. सीट बंटवारे को लेकर मांझी की नाराजगी का दर्द इसमें ही छुपा है.
मांझी के सामने संकट ये है कि अगर पासवान से 1 परसेंट ज्यादा वोटर वाली मुसहर बिरादरी का नेता होकर भी वो 15 सीट पर मान जाते हैं तो उनके लोगों के बीच मैसेज खराब खाएगा. मांझी के सामने सवाल यही है कि 4.5 फीसदी वोटर वाले नेता को 41 सीट और 5.5 फीसदी वोटर वाले को 15 सीट का लॉजिक वो अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को कैसे समझाएंगे.
मांझी अगर पासवान से कम सीट पर मान जाते हैं तो ये भी मान लिया जाएगा कि वो पासवान से छोटे नेता हैं. सच हो या झूठ हो लेकिन मांझी आजकल यही मानते कि वो राज्य में नीतीश और लालू से भी छोटे नहीं हैं.
पासवान और मांझी के बीच नीचा दिखाने की बयानबाजी
राज्य में अनुसूचित जातियों के वोटरों की संख्या 18.44 फीसदी है. लोजपा अध्यक्ष रामविलास पासवान की पासवान बिरादरी के वोटरों की संख्या करीब 4.50 फीसदी है. जीतनराम मांझी की मुसहर बिरादरी के वोटरों की संख्या करीब 5.5 फीसदी है. राज्य में अनुसूचित जाति में कुल 22 उप-जातियां हैं जिनमें पासवान और मुसहर के बाद रविदास बड़ी संख्या में हैं. ये तीन अकेले दलित वोटरों का 70 फीसदी हैं.
जीतनराम मांझी और रामविलास पासवान के बीच एक-दूसरे को नीचा दिखाने वाली बयानबाजी पिछले कई दिनों से चल रही है. पासवान या मांझी को उपेंद्र कुशवाहा से कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि उनका वोट बैंक नीतीश कुमार के वोट बैंक से निकलता माना जाता है.
इसलिए ये माना जा सकता है कि सीट बंटवारे को लेकर एनडीए में अभी उठापटक का दौर चलेगा. अगर मांझी का सीट शेयर बढ़ेगा तो इससे पासवान को दर्द होगा और फिर वो नाखुशी जाहिर करेंगे. क्योंकि ये असल में सीटों की नहीं बल्कि दो दलित नेताओं के बीच अहम की लड़ाई है, दलितों का नेता बनने की लड़ाई है और सबसे बढ़कर बिहार में एनडीए का नेता नंबर 2 बनने की लड़ाई है.
बीजेपी की उलझन, सॉलिड वोट ट्रांसफर कौन कराएगा ?
बीजेपी के नजरिए से देखें तो रामविलास पासवान भरोसेमंद पार्टनर हैं. उनको बस केंद्रीय राजनीति में जगह चाहिए. रामविलास पासवान की वोट ट्रांसफर क्षमता से सारी पार्टियां परिचित हैं इसलिए केंद्र में संयुक्त मोर्चा सरकार से लेकर यूपीए सरकार और अब नरेंद्र मोदी की सरकार तक पासवान को मंत्री बनाने में किसी ने कभी कोई परहेज नहीं किया.
मांझी को लेकर बीजेपी में एक उलझन ये है कि जो नेता खुद को सीएम बनाने वाले नीतीश का नहीं हुआ वो हमारा क्या होगा. दूसरा मांझी जिस महादलित वोट बैंक के नाम पर सीटों की सौदेबाजी कर रहे हैं उस महादलित वर्ग में नीतीश को लेकर अपार गुस्सा है ऐसी कोई बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती. राजनीति में दलितों से पासवान को हटाकर बाकी को नीतीश ने ही महादलित बनाया इसलिए महादलितों के वोट ट्रांसफर को लेकर बीजेपी को मांझी की काबिलियत पर पूरा भरोसा नहीं है.
ये शक हमेशा से सबको रहा है कि मुख्यमंत्री रहते ही जीतनराम मांझी ने अपनी ही पार्टी जेडीयू के नेता नीतीश कुमार के खिलाफ बोलना और उनकी पसंद के खिलाफ जाकर काम करना शुरू किया था तो उसके पीछे बीजेपी की शह थी. इसी शह के दम पर वो नीतीश के खिलाफ बागी हुए और अपनी पार्टी भी बना ली.
आनंद मोहन की गलती नहीं दोहराना चाहते मांझी
शुरुआत में ये लगता था कि बीजेपी चाहती है कि मांझी सारी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ें और लालू-नीतीश के वोट काटकर बीजेपी के लिए जीत के रास्ते बनाएं. लेकिन मांझी इसके लिए तैयार नहीं हुए क्योंकि इससे एक तो खुद को कुछ ठोस मिले बिना ठगे जाने का बड़ा खतरा था तो दूसरा यह धब्बा लगने का कि बीजेपी के लिए मांझी वोटकटवा बनने को तैयार हो गए.
बिहार में अप्रासंगिक हो गए आनंद मोहन इसके उदाहरण हैं जिन पर आरोप लगा कि उन्होंने लालू प्रसाद यादव को 90 के दशक में फायदा पहुंचाने के लिए अपनी पार्टी बिहार पीपुल्स पार्टी को पूरे बिहार में हर सीट पर लड़ाया और कांग्रेस-बीजेपी के सवर्ण वोट काटे. मांझी राज्य में दूसरे आनंद मोहन बनने को तैयार नहीं हुए और अब एनडीए में नंबर 2 के रुतबे के लिए लड़ रहे हैं.
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