नई दिल्लीः हाल ही में पैराडाइज पेपर्स में नाम आने पर जब बीजेपी एमपी आरके सिन्हा ने एएनआई के रिपोर्टर को कागज पर लिखकर बताया कि वो एक हफ्ते के लिए मौन व्रत पर हैं तो उनका जमकर मजाक उड़ाया गया. मौनी अमावस्या मनाने वाले हमारे देश में मौन व्रत का ऐसा मजाक कभी नहीं उड़ा, तमाम साधु संतों से लेकर गांधीजी, विनोवा भावे और अन्ना हजारे तक मौन व्रत रखते आए हैं. हालांकि गलती आरके सिन्हा की थी, मौनव्रत में भी वो लिख कर जवाब दे सकते थे, सो ये मौनव्रत के सहारे सवाल को टालना ज्यादा लगा. लेकिन एक वक्त था जब विनोबा भावे जैसे गांधीवादी संत और भूदान आंदोलन के प्रणेता विनोबा भावे भी इसी मौनव्रत के चक्कर में मुश्किल में फंस गए थे. आज तक लोग उन पर इमरजेंसी में इंदिरा का समर्थन करने के आरोप लगाते हैं.
इंदिरा, नेहरू परिवार से विनोबा भावे की नजदीकियां पुरानी थीं. ये अलग बात है कि विनोबा खुद को राजनीति से काफी दूर रखते थे और विवादों से बचते थे. जब नेहरू को 1964 में कांग्रेस के भुवनेश्वर अधिवेशन में पैरालिसिस अटैक पड़ा तो उन्हें कई दिनों का बेड रेस्ट लेना पड़ा था. तब विनोबा ने उनके लिए एक बांसुरी भिजवाई कि इसे बजाएं. ना नेहरू कुछ समझ पाए और ना इंदिरा, बाद में नेहरू ने बताया कि अरस्तू ने भी किसी को ऐसी ही एक बांसुरी भिजवाई थी. पीएम बनने के बाद भी सितम्बर 1966 में इंदिरा विनोबा से बिहार के पूसा आश्रम में मिलने पहुंची थीं. विनोबा इंदिरा को बेटी की तरह ही मानते थे.
तारीख थी 24 दिसम्बर, 1974 विनोबा भावे हमेशा की तरह मौन व्रत पर चले गए, लेकिन इस बार ये कुछ ज्यादा लम्बा था. उन्होंने एक साल के लिए ये मौन व्रत रखा था. सभी से सवालों के जवाब वो लिख कर दिया करते थे. इन दिनों वो महाराष्ट्र के पवनार आश्रम में रहा करते थे. इधर 25 जून, 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी का ऐलान कर दिया. तमाम विपक्षी नेता रातों-रात जेल में ठूंस दिए गए. ऐसे में जबकि संसद, कोर्ट्स सब ठप्प हो गईं, पूरा देश केवल इंदिरा के भरोसे था. सर्वोदय नेता वसंत नार्गोलकर ने ऐलान कर दिया कि 14 नवम्बर से वो तब तक भूख हड़ताल पर चले जाएंगे जब तक कि इमरजेंसी खत्म नहीं हो जाती, नहीं तो ऐसे ही मर जाएंगे.
विनोबा भावे ने उन्हें बुलाया और एक कागज पर लिख कर दिया कि 25 दिसम्बर को मैं अपना मौन व्रत तोडूंगा तब तक धैर्य रखो. भरोसे पर वसंत ने इरादा स्थगित कर दिया. ऐसे में सबको ये खबर हो गई कि विनोबा भावे का मौन व्रत 25 दिसम्बर को टूटेगा और तब वो इमरजेंसी के खिलाफ कुछ बोल सकते हैं. जेल में बंद सभी विपक्षी नेताओं में ये आस बंध गई कि विनोबा कुछ ना कुछ इमरजेंसी के खिलाफ जरूर बोलेंगे. इसी दौरान इंदिरा गांधी के करीब कांग्रेसी नेता बसंत साठे भी पवनार आश्रम में विनोबा से मिलने पहुंचे तो उन्होंने साठे को पास में रखे महाभारत के अनुशासन पर्व की तरफ इशारा किया और फिर अपने काम में तल्लीन हो गए, लेकिन लिखा कुछ नहीं.
ऐसे में बसंत साठे को ये मौका अच्छा लगा. तमाम कहानियां कांग्रेस नेताओं ने बाहर बना दीं कि विनोबा भावे ने इमरजेंसी को अनुशासन पर्व बता दिया है. उन्होंने स्लेट पर इसे लिखकर बताया है. लेकिन जेल में बंद विपक्ष के नेताओं को 25 दिसम्बर का इंतजार था. एल. के. आडवाणी अपनी किताब ‘ए प्रिज्नर्स स्क्रेप बुक’ में लिखते हैं, अटल को जन्मदिन का टेलीग्राम भेजने के बाद हमें बस एक बात का इंतजार था, वो थी ऑल इंडिया रेडियो पर विनोबा भावे की स्पीच. उनको उम्मीद थी कि वो इमरजेंसी और इंदिरा के खिलाफ कुछ बोलेंगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, आडवाणी का आरोप है कि उनके भाषण को एडिट कर दिया गया. हालांकि वो इसी बात से खुश थे कि विनोबा ने जेपी के खिलाफ कुछ नहीं बोला.
इंदिरा भी इमरजेंसी के बाद मिली करारी हार के बाद फिर से विनोबा से मिलने पवनार आश्रम गई थीं, तब भी विनोवा मौन व्रत पर थे. उन्होंने बस इतना लिख कर दिया कि Moov Forwar, Moov Forward. इससे ये लगता है कि इंदिरा भले ही उनकी कितनी करीबी हों, लेकिन विनोबा राजनीति के पचड़े में पड़ने से बचते थे. आज तक किसी को ये नहीं पता कि विनोबा ने साठे को अनुशासन पर्व क्यों दिखाया था और क्या उनके भाषण को सरकार ने एडिट कर दिया था. क्योंकि आडवाणी ने भी विनोबा पर सख्त लाइन नहीं ली. जो भी हो मौन व्रत में अगर आप गांधीजी की तरह अपनी बात ढंग से ना रख पाएं, या लोग ना समझ पाएं या जानबूझकर मौनव्रत का सहारा लें तो सवाल उठते ही हैं.