नई दिल्लीः “प्यारे देशवासियों… इस देश ने यह वर्षों से महसूस किया है कि भ्रष्टाचार, काला धन, जाली नोट और आतंकवाद, ऐसे नासूर हैं जो देश को विकास की दौड़ में पीछे धकेलती हैं. देश को, समाज को अन्दर ही अन्दर खोखला कर देती है. मेरे प्यारे देशवासियों, आतंकवाद की भयानकता को कौन नहीं जानता है? कितने निर्दोष लोगों को के मौत के घाट उतार दिया जाता है लेकिन क्या आपने सोचा है कि इन आतंकियों को पैसा कहां-कहां से मुहैया होता है? सीमा पार के हमारे शत्रु जाली नोटों के जरिए, नकली नोटों के जरिए अपना धंधा भारत में चलाते हैं और यह सालों से चल रहा है. अनेक बार 500 और हज़ार रुपये के जाली नोट का कारोबार करने वाले पकड़े भी गए हैं और ये नोटें जब्त भी की गई हैं.” (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राष्ट्र के नाम संदेश, 8 नवंबर, 2016)
नोटबंदी यानी 500 और 1000 रुपये मूल्य के नोटों को रद्दी बना देने का ऐतिहासिक फैसला क्यों लेना पड़ा, ये बताते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद का ज़िक्र किया था. उन्होंने आतंकवादी फंडिंग में हवाला और जाली नोटों के काले कारोबार का हवाला दिया था. प्रधानमंत्री मोदी ने बड़ी चतुराई से नोटबंदी को राष्ट्रवाद से जोड़ा था. पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक के एक महीना 10 दिन बाद नोटबंदी का ऐलान इस अंदाज़ में हुआ था, मानो अब आतंकवादी और नक्सली हाथ में कटोरा लेकर घूमने लगेंगे.
सत्ता पक्ष के नेताओं ने नोटबंदी को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जरूरी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. विपक्षी दलों के हाथ-पैर फूल गए कि नोटबंदी के इस उद्देश्य का विरोध करें तो किस मुंह से? राष्ट्रभक्त जनता को नोटबंदी का अर्थशास्त्र भले ना मालूम हो, इतना तो सबको पता ही होता है कि आतंकवाद के राक्षस को मारने के लिए हर तकलीफ, हर कुर्बानी बर्दाश्त करनी पड़ती है. जनता ने वही तो किया लेकिन क्या सरकार का नोटबंदी का ये उद्देश्य फलीभूत हुआ? क्या नोटबंदी के बाद आतंकवाद आर्थिक मंदी के चलते बेमौत मारा गया?
कुछ आंकड़ों और कुछ घटनाओं के जरिए जम्मू-कश्मीर में नोटबंदी के बाद आतंकवाद की स्थिति समझ लीजिए. साउथ एशिया टेररिज़्म पोर्टल के मुताबिक, 2017 में 29 अक्टूबर तक कश्मीर घाटी में तीन आत्मघाती हमले हुए थे, जिनमें सुरक्षा बलों के 12 जवान और 8 आतंकवादी मारे गए, जबकि 2016 में चार आत्मघाती आतंकी हमलों में 36 जवान और 11 आतंकवादी मारे गए थे. 2016 के आंकड़ों में उड़ी में सेना के कैंप पर आत्मघाती हमला भी शामिल था, जिसमें 20 जवान शहीद हुए थे. उड़ी आर्मी कैंप पर आतंकी हमले का परिणाम सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में हुआ था. अगर नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भी कश्मीर में आत्मघाती आतंकी हमलों की संख्या 4 से 3 हो गई, तो इसे आतंकवाद के खिलाफ कितनी बड़ी कामयाबी मानें?
2016 में कश्मीर में बम विस्फोट की 29 वारदातों में 4 लोगों की जान गई थी, 54 ज़ख्मी हुए थे. 2017 में 29 अक्टूबर तक कश्मीर में 36 धमाकों में 7 लोगों की जान गई, 95 घायल हुए. 2016 में कश्मीर में आतंकी वारदातों में 14 नागरिक, सेना और सुरक्षा बलों के 88 जवान और 165 आतंकवादी मारे गए थे. 29 अक्टूबर 2017 तक कश्मीर में 53 नागरिक, सेना और सुरक्षा बलों के 67 जवान और 178 आतंकवादी मारे गए. क्या इन आंकड़ों से ये लगता है कि नोटबंदी के बाद आतंकवाद पर कोई फर्क पड़ा?
कश्मीर ही क्यों, रेड कॉरिडोर के नाम से कुख्यात नक्सल-माओवाद प्रभावित इलाकों में भी लगा था कि नोटबंदी के बाद हालात सुधरेंगे, क्योंकि नक्सलियों और माओवादियों को अपना नेटवर्क चलाने के लिए पैसों की किल्लत हो जाएगी. साउथ एशिया टेररिज़्म पोर्टल के मुताबिक, लेफ्ट विंग चरमपंथी हिंसा में 2016 में 123 आम नागरिक, 66 सुरक्षा कर्मी और 244 चरमपंथी मारे गए थे, जबकि 2017 में 29 अक्टूबर तक 81 आम नागरिक, 69 सुरक्षा कर्मी और 106 चरमपंथियों की मौत हुई. नक्सल प्रभावित इलाकों में 2010 के बाद सबसे बड़ा नक्सली हमला नोटबंदी 6 महीने 15 दिन बाद ही हुआ था. छत्तीसगढ़ के सुकमा में हुए उस नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 26 जवान शहीद हुए थे.
मुझे इस बात में रत्ती भर संदेह नहीं कि आतंकवाद और नक्सली-माओवादी हिंसा के खिलाफ सेना और अर्धसैनिक बल निर्णायक युद्ध में रत हैं. सेना और अर्धसैनिक बलों की सफलता पर भी असंदिग्ध है लेकिन सवाल ये है कि क्या आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में नोटबंदी का कोई योगदान है? मैं ऐसा बिल्कुल नहीं मानता. मेरी इस सोच की वजह भी बहुत आसान और स्पष्ट है. कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी हों या फिर रेड कॉरिडोर में सक्रिय नक्सली-माओवादी, इनमें से किसी भी खर्च मेहनत की कमाई से नहीं चलता. वो लोगों को लूटकर अपना काम चलाते हैं. उगाही करते हैं. उनको भला इस बात से क्या फर्क पड़ा होगा कि नोटबंदी के बाद 500 और 1000 के नोट रद्दी हो गए? जिन लोगों से उन्होंने लूटा था, उन्हीं से फिर लूट लिया होगा.
आतंक को अर्थ और असलहा कैसे मिलता है, इस बात का थोड़ा अनुभव मुझे पत्रकारिता के शुरुआती वर्षों में मिला था. 1990 के दशक में गंडक नदी के दियारा यानी पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया, कुशीनगर और महाराजगंज और बिहार के सीमावर्ती जिलों में जंगल पार्टी का खौफ था. जंगल पार्टी यानी सोहगीबरवा और गंडक नदी के किनारे उगे वनों में ठिकाना बनाकर रहने वाले दस्यु या डकैत. उन दिनों छितौनी-बगला पुल नहीं बना था. यूपी से बिहार आने-जाने के लिए गंडक नदी नाव से पार करनी पड़ती थी. पाइरेट्स ऑफ कैरेबियन की तरह जंगल दस्यु अपनी नाव से आते, लोगों को घेरते और शक्ल-सूरत के आधार पर कुछ लोगों को बंधक बना लेते थे. जंगल दस्यु उन्हीं को ‘पकड़’ के तौर पर अपने साथ ले जाते थे, जो देखने-बोलने में संपन्न हों. फिरौती के तौर पर ‘पकड़’ के नाते-रिश्तेदारों से नकद पैसा और कारतूस मांगी जाती थी. मजबूरी में लोग अपने परिचित पुलिस वालों, शस्त्र लाइलेंस रखने वाले परिजनों-रिश्तेदारों और अवैध हथियार के सौदागरों से संपर्क करते थे, ताकि फिरौती में देने के लिए कारतूस का जुगाड़ हो सके. इस एक तरकीब से जंगल दस्युओं को ना तो कभी पैसों की किल्लत होती थी और ना ही गोली-बारूद की.
आतंकवादियों और नक्सलियों को नोटबंदी के चलते गोला-बारूद की कमी तो होने से रही. अगर ऐसी कोई आशंका होती तो प्रधानमंत्री ने नोटबंदी की घोषणा वाले अपने भाषण में इसका ज़िक्र ज़रूर किया होता. आतंकवादियों को पाकिस्तान गोला-बारूद देकर ही भेजता है. नक्सलियों ने अपनी जरूरत पहले तो पुलिस थानों के मालखानों को लूटकर पूरी की, फिर लगातार सप्लाई के लिए सुदूर जंगलों में हथियार बनाने का कुटीर उद्योग शुरू कर दिया है. अब रहा सवाल आतंकवादियों को रोज़मर्रा के खर्च के लिए धन की कमी का, तो नोटबंदी के कुछ ही दिनों के अंदर कश्मीर घाटी से लगातार खबरें आती रहीं कि आतंकवादियों ने बैंक लूट लिया, बैंक की कैश वैन लूट ली. आतंकियों की फंडिंग अगर जाली नोट से हो रही थी, तो यकीन मानिए, नोटबंदी अपने इस मकसद में पूरी तरह नाकाम ही रही, क्योंकि जाली नोटों के ट्रांजिट गोदाम के तौर पर कुख्यात पश्चिम बंगाल के मालदा जिले से 500 और 2000 के नए रंग-रूप वाले जाली नोटों की खेप अब दिल्ली तक पहुंचने लगी है. हाल ही में दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने ऐसी खेप पकड़ी, जिसे पुलिस बेशक कामयाबी माने, मैं इसे खतरे का सिग्नल ही मानता हूं, क्योंकि ये स्थापित सत्य है कि किसी भी अवैध कारोबार में जितनी बरामदगी पुलिस के गुड वर्क में होती है, असल में उससे 5 गुना से ज्यादा की सप्लाई मार्केट में खप चुकी होती है.