विदेशों में क्रांतिकारियों का सबसे बड़ा मेंटर, आजादी के 55 साल बाद मोदी लेकर आए जिनकी अस्थियां

तारीख थी 30 मार्च 1930 और वक्त था रात के 11.30 बजे. जेनेवा के एक हॉस्पिटल में भारत मां के एक सच्चे सपूत ने आखिरी सांस ली और उनकी मौत पर लाहौर की जेल में भगत सिंह और उसके साथियों ने शोक सभा रखी, जबकि वो खुद भी कुछ ही दिनों के मेहमान थे. उनकी अस्थियां जेनेवा की सेण्ट जॉर्जसीमेट्री में सुरक्षित रख दी गईं.

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विदेशों में क्रांतिकारियों का सबसे बड़ा मेंटर, आजादी के 55 साल बाद मोदी लेकर आए जिनकी अस्थियां

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  • October 4, 2017 9:16 am Asia/KolkataIST, Updated 7 years ago
नई दिल्ली: तारीख थी 30 मार्च 1930 और वक्त था रात के 11.30 बजे. जेनेवा के एक हॉस्पिटल में भारत मां के एक सच्चे सपूत ने आखिरी सांस ली और उनकी मौत पर लाहौर की जेल में भगत सिंह और उसके साथियों ने शोक सभा रखी, जबकि वो खुद भी कुछ ही दिनों के मेहमान थे. उनकी अस्थियां जेनेवा की सेण्ट जॉर्जसीमेट्री में सुरक्षित रख दी गईं. बाद में उनकी पत्नी का जब निधन हो गया तो उनकी अस्थियाँ भी उसी सीमेट्री में रख दी गयीं. इस घटना को 17 साल गुजर गए, देश आजाद हो गया, किसी को याद नहीं था कि उनकी अस्थियों को भारत वापस लाना है. एक एक करके पचपन साल और गुजर गए, पीढियां बदल गईं. 
 
तब इस गुजराती क्रांतिकारी की अस्थियों की सुध ली एक दूसरे गुजराती ने, गुजरात के तत्कालीन सीएम नरेन्द्र मोदी ने और इस क्रांतिकारी का नाम था श्याम जी कृष्ण वर्मा.
 
 
22 अगस्त 2003 को गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी ने ये एक बड़ा काम किया, जेनेवा की धरती से श्यामजी और उनकी पत्नी भानुमति की अस्थियां लेकर भारत आए. मुंबई से श्यामजी कृष्ण वर्मा के जन्मस्थान मांडवी तक भव्य जुलूस के साथ उनका अस्थि कलश राजकीय सम्मान के साथ लेकर आए मोदी. इतना ही नहीं वर्मा के जन्म स्थान पर भव्य स्मारक क्रांति-तीर्थ  बनाया और उसके परिसर के श्यामजी कृष्ण वर्मा कक्ष में उनकी अस्थियों को सुरक्षित रखा गया. मोदी ने क्रांति तीर्थ को भी बिलकुल वैसा ही बनाने की कोशिश की जैसा कि श्याम जी कृष्ण वर्मा का लंदन में इंडिया हाउस होता था.
 
आखिर क्या था ये लंदन हाउस, विदशी सरजमीं पर सक्रिय रहे भारतीय क्रांतिकारियों की चर्चा करते ही इंडिया हाउस की चर्चा जरूर होती है. लंदन के मंहगे इलाके में श्याम जी कृष्ण वर्मा ने इंडिया हाउस खोला और उसमें 25 भारतीय स्टूडेंट्स के लिए रहने-पढ़ने की व्यवस्था की, ताकि वो वहां रहकर लंदन में अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें. इसके लिए श्याम जी कृष्ण वर्मा ने बाकायदा कई फेलोशिप भी शुरू कीं. ऐसी ही एक शिवाजी फेलोशिप के जरिए वीर सावरकर भी लंदन हाउस में रहने आए.
 
 
इसी लंदन हाउस में सावरकर ने क्रांतिकारी मदन लाल धींगरा को हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी, जिसने बाद में भारत सचिव वाइली की लंदन में ही गोली मारकर उसकी हत्या कर दी. भारत सचिव ब्रिटिश सरकार का वो अधिकारी या मंत्री होता था, जिसको भारत का वायसराय रिपोर्ट करता था. इस तरह से किसी भी ब्रिटिश अधिकारी के मारने की अब तक की ये सबके बड़ी घटना रही है, वो भी उनके घर में घुसकर यानी लंदन में. साफ है कि इंडिया हाउस युवा क्रांतिकारियों का गढ़ बनता चला गया.
 
 
श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर 1857 को कच्छ के मांडवी में हुआ था. पिता की जल्दी मृत्यु के बाद उनकी पढाई मुंबई के विल्सन कॉलेज से हुई. संस्कृत से उनका नाता यहीं जुड़ा, जो बाद में ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी में संस्कृत पढ़ाने के काम आया. उनकी पत्नी भानुमति एक सम्पन्न परिवार से थीं, इसी दौरान उनका सम्पर्क स्वामी दयानंद सरस्वती से हुआ और वो उनके शिष्य बन गए. पूरे देश में श्यामजी ने उनकी शिक्षाओं को प्रसारित करने के लिए दौरे किए. यहां तक कि काशी में उनका भाषण सुनकर काशी के पंडितों ने उन्हें पंडित की उपाधि दे दी, ऐसी उपाधि पाने वाले वो पहले नॉन ब्राह्मण थे.
 
 
उसके बाद वो ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी में पढ़ने लदन चले गए, जहां संस्कृत के प्रोफेसर मोनियर विलियम्स ने उन्हें अपना असिस्टेंट बना लिया. वहां से श्यामजी ने ग्रेजुएशन किया और एमए और बार एट लॉ ऑक्सफोर्ड से करने वाले वो पहले भारतीय बने. इस दौरान वो एशियाटिक सोसायटी के सदस्य बन गए, बर्लिन कांग्रेस ऑफ ओरियंटलिस्ट में भारत का प्रतिधित्व किया और सात साल लंदन रहने के बाद वो 1885 में भारत लौट आए.
 
ये वही साल था जब देश में कांग्रेस की स्थापना हुई थी, लेकिन वो कांग्रेस के, उसकी याचना की नीतियों के हमेशा आलोचक बने रहे. भारत आकर उन्होंने बतौर वकील अपना काम शुरू किया. बहुत जल्द उनको रतलाम स्टेट का दीवान बना दिया गया. लेकिन तबियत खराब रहने के चलते उन्होंने वहां से विदा ले ली. उस दौर के उस छोटे से समय की नौकरी की ग्रेच्युटी उन्हें बत्तीस हजार रुपए मिली थी. उन्होंने अपनी रकम कॉटन के बिजनेस में लगा दी और खुद अपने गुरू स्वामी दयानंद के प्रिय शहर अजमेर में बस गए और बिटिश कोर्ट में प्रेक्टिस करने लगे. इसी दौरान वो दो साल तक उदयपुर स्टेट के काउंसिल मेम्बर भी रहे. फिर वो गुजरात में जूनागढ़ स्टेट के दीवान भी बने. लेकिन एक ब्रिटिश एजेंट से इस कदर उनका झगड़ा हुआ कि ब्रिटिश सरकार के प्रति उनका मन नफरत से भर गया और उन्होंने इस नौकरी से भी इस्तीफा दे दिया.  
 
श्यामजी कृष्ण वर्मा कांग्रेस के गरम दल को पसंद करते थे, लोकमान्य तिलक उनके आदर्श थे. 1890 में एज ऑफ कसेंट बिल वाले विवाद में तिलक को उन्होंने जमकर साथ दिया, पुणे के प्लेग कमिश्नर रैंड की हत्या के केस में भी वो चापकर बंधुओं का समर्थन करने से पीछे नहीं हटे. लेकिन उनको लग गया था कि देश में रहकर अंग्रेजों का विरोध करना आसान नहीं, ये काम लंदन में रहकर थोड़ा आसानी से हो सकता है. 1900 में उन्होंने लंदन के पॉश इलाके हाईगेट में एक मंहगा घर खरीदा और उसका नाम ‘इंडिया हाउस’ रख दिया.
 
 
फिर तो वो घर भारत से लंदन आने वालों की सराय बन गया, गांधी से लेकर लाला लाजपत राय से लेकर तिलक और गोखले भी इंडिया हाउस में रुके, एक बार लेनिन भी. शुरुआत में 25 भारतीयों को उस इंडिया हाउस में बतौर हॉस्टल रुकने का ठिकाना दिया गया, जो वहां रहकर पढ़ रहे थे. बाद में दुनियां के कई शहरों में इंडिया हाउस शुरु किए गए, पेरिस, सैनफ्रांसिस्को और टोक्यो में भारतीय क्रांतिकारियों ने अपनी रणनीतियां बनाने के लिए इनका उपयोग किया. इसके साथ ही श्याम जी कृष्ण वर्मा ने ‘इंडियन सोशियोलॉजिस्ट’ नाम का अखबार शुरु किया, जिसकी कॉपियां पूरे यूरोप में भेजी जाती थीं और बाद में इंडियन होमरूल संगठन की भी स्थापना की.
 
इंडिया हाउस ने कई क्रांतिकारियों को शरण दीं, जिनमें भीखाजी कामा, वीर सावरकर, मदन लाल ढींगरा, वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय आदि प्रमुख थे, बाद में लाला हरदयाल भी जुड़ गए और अमेरिका से भगत सिंह के गुरू करतार सिंह सराभा और विष्णु पिंगले की अगुआई में अमेरिका से गदर आंदोलनकारियों का जत्था 1915 में एक बड़ी क्रांति के लिए भारत भी आया, सभी क्रांतिकारियों में जोश जगाने के लिए वीर सावरकर की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर लिखी गई किताब अमेरिका में पब्लिश करवाकर बांटी गई. लेकिन एक गद्दार की वजह से वो योजना फेल हो गई. उस गदर क्रांति को भी लाला हरदयाल और श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सहायता दी थी. इंडियन सोशियोलॉजिस्ट में उनके लिखे अंग्रेज सरकार विरोधी लेखों को लेकर श्यामजी अंग्रेजों के निशाने पर आ गए और साथ में उनका इंडिया हाउस भी. सीक्रेट सर्विस के एजेंट उन पर नजर रखने लगे. यहां तक कि उन पर कई तरह की पाबंदियां लगा दी गईं. इधर वीर सावरकर वहां आकर रहने लगे और कई साल तक रहे भी. उन दिनों वो मदन लाल ढींगरा को हथियार चलाने की ट्रेनिंग भी दे रहे थे.
 
श्यामजी ने इंडिया हाउस की जिम्मेदारी वीर सावरकर को सौंपी और वो 1907 में पेरिस निकल गए. हालांकि अंग्रेजी सरकार ने उनको वहां भी परेशान किया लेकिन श्याम जी ने कई फ्रांसीसी राजनेताओं से संपर्क बना लिया और वो वहीं से पूरे यूरोप के भारतीय क्रांतिकारियों को एकजुट करने, उनको मदद करने, कई भाषाओं में अखबार छपवाने आदि में मदद करने लगे. लेकिन ब्रिटेन और फ्रांस के बीच एक सीक्रेट टाईअप के चलते उन्होंने पेरिस को भी छोड़ना बेहतर समझा और वो प्रथम विश्व युद्ध से ठीक पहले स्विटजरलैंड की राजधानी जेनेवा के लिए निकल गए. हालांकि वहां उन पर थोड़ी पाबंदियां थीं, फिर भी वो जितना हो सकता था, यूरोप में सक्रिय भारतीय क्रांतिकारियों की मदद करते रहे, ये वही वक्त था, जब दुनियां भर में मौजूद भारतीय विश्व युद्ध का फायदा उठाकर अंग्रेजी सरकार पर हमला करना चाहते थे, गदर क्रांतिकारियों और बाघा जतिन, रास बिहारी बोस ने भी ऐसी ही कोशिश की थी.
 
 
श्याम जी कृष्ण वर्मा को ये बाद में पता चला कि जिस प्रो इंडिया कमेटी के प्रेसीडेंट डॉक्टर ब्रीस से वो सबसे ज्यादा बातचीत करते थे, वो एक ब्रिटिश सीक्रेट एजेंट था. इधर मदन लाल ढींगरा ने जैसे ही भारत सचिव के राजनीतिक सलाहकार वाइली की हत्या की, इंडिया हाउस अंग्रेजी सरकार के निशाने पर आ गया और 1910 में इसे बंद कर दिया गया. लेकिन आज इंडिया हाउस को श्याम जी की बजाय वीर सावरकर की वजह से ज्यादा जाना जाता है, इंडिया हाउस की सामने की दीवार पर ही लिखा हआ है, “Veer Sawarkar- Indian Patriot and Philosopher lived here”.
 
इधर जेनेवा में श्याम जी कृष्ण वर्मा की तबियत खराब रहने लगी थी. उन्होंने लोकल प्रशासन और सेंट जॉज सीमेट्री के साथ अपनी और पत्नी की अस्थियां सौ साल तक रखने का करार किया, इसके लिए उन्होंने फीस भी चुकाई. इस करार में ये भी था कि इस दौरान देश आजाद होता है तो उनकी अस्थियां उनके देश वापस भेज दी जाएं, वो वतन की मिट्टी में ही मिलना चाहते थे. देश आजाद हुआ तो किसी को उनकी सुध ही नहीं रही. इंदिरा गांधी के समय जरूर पेरिस के एक भारतीय विद्वान प्रथवेन्द्र मुखर्जी ने कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए. तब नरेन्द मोदी 2003 में उनकी अस्थियों को वापस भारत लाए और उनका शानदार स्मारक इंडिया हाउस की शक्ल में ही मांडवी में बनवाया. मोदी अपने गुजराती क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा से इतने ज्यादा प्रभावित रहे हैं कि ये माना जाता है कि जो दाढ़ी वाला लुक मोदी का है, वो दरअसल श्याम जी कृष्ण वर्मा के ही लुक से प्रभावित होकर रखा गया है, सच मोदी ही बेहतर जानते होंगे.  

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