नई दिल्ली: किसी भी बीजेपी सरकार की तरह मोदी सरकार को भी दो मोर्चे पर लड़ना पड़ रहा है, एक तरफ विपक्ष के आरोपों का जवाब देते हुए जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतरना है, दूसरी तरफ घर के लोगों यानी संघ परिवार के संगठनों की उम्मीदों को पूरा करना है. शायद उन सभी संगठनों के साथ मोदी सरकार का हनीमून खत्म हो चला है और तनातनी शुरू हो गई है, जिसकी एक बानगी मथुरा-वृंदावन में संघ की समन्वय मीटिंग में देखने को मिली. संघ परिवार के पांच बड़े संगठनों मजदूर संघ, किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, विद्यार्थी परिषद और विश्व हिंदू परिषद के अपने अपने मसले हैं, जिनमें से कुछ को सरकार और संघ ने कुछ समय के लिए समझा लिया है लेकिन सभी को संतुष्ट करना मुमकिन नहीं लगता.
संघ का फोकस किसानों पर था सो तीन दिन की समन्वय बैठक से पहले भारतीय किसान संघ का दो दिन का सम्मेलन उसी कैम्पस में हुआ, उन्होंने बताया कि कैसे अपनी सरकार बनने के बाद उनपर और भी दवाब बढ़ गया है. कई तरह के मुद्दे उठे, जिनमें फसली बीमा कंपनियों की ठगी से लेकर डिमोनटाइजेशन के चलते छोटी नौकरियों में होने वाली परेशानियां तक थीं. हालांकि यूपी और महाराष्ट्र में कर्ज माफी, जनधन खातों, उज्जवला योजना, नई एविएशन पॉलिसी आदि की बात रखकर संघ अधिकारियों ने संभालने की कोशिश की और किसानों तक इनको पहुंचाने की भी बात की. लेकिन एक यूपी, महाराष्ट्र के अलावा बाकी बीजेपी शासित राज्यों के किसान संघ अपने यहां भी कर्ज माफी की मांग को लेकर अड़े रहे, हालांकि अब राजस्थान में तो पचास हजार तक के कर्जों की माफी का ऐलान हो भी गया है। फिर भी ये मांग अब बाकी राज्यों में भी उठने लगी है.
फौरी तौर पर किसान संघ का गुस्सा अभी कुछ हद तक काबू में है, तो इस मीटिंग से फौरन पहले नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पानगढ़िया का इस्तीफा भी गुस्सा ठंडा करने की ही कवायद माना जा रहा है. नीति आयोग से ना केवल स्वदेशी जागरण मंच को परेशानी होने लगी थी बल्कि मजदूर संघ को भी समस्या थी. कई बार खुले तौर पर दोनों ही संगठनों के लोग नीति आयोग के तौर तरीकों पर अपना गुस्सा और विरोध जता चुके थे, ना केवल सरकार और संघ के अधिकारियों से बल्कि मीडिया में भी. मजदूर संघ ने तो मई में हुई अपनी नेशनल कॉन्फ्रेंस में 14 प्वॉइंट्स का एजेंडा केवल नीति आयोग के खिलाफ ही रखा, तो स्वदेशी जागरण मंच कई फील्ड्स में एफडीआई, जीएम सीड्स को मंजूरी आदि की मंजूरी को लेकर नीति आयोग पर कॉरपोरेट एजेंडा चलाने का आरोप लगा दिया. इन दोनों संगठनों का ही दवाब अरविंद पनगढिया की जल्दी विदाई के तौर पर जिम्मेदार माना जा रहा है. हालांकि इससे स्वदेशी जागरण मंच का गुस्सा थोड़ा कम जरूर हो गया है और वैसे भी फिलहाल ये संगठन चीनी सामान के बैन के कार्य़क्रम में दीवाली तक लगा रहेगा.
इधर विद्यार्थी परिषद को सरकार ने कई तरह के कदम उठाकर संतुष्ट करने की कोशिश की, जिनमें यूनीवर्सिटी रैंकिंग सिस्टम, 20 वर्ल्ड क्लास यूनीवर्सिटीज का ऐलान, डीय में चार साल का कोर्स खत्म करना, यूनीवर्सिटीज में खाली पड़ी सीटों को भरने के लिए एड निकालना और स्मृति ईरानी की जगह प्रकाश जावडेकर को एचआरडी मिनिस्टर बनाना, लेकिन असली टकराव तो तब होना है जब नई एजुकेशन पॉलिसी का ऐलान होगा. उस पर लगातार काम चल रहा है, एबीवीपी की तरफ से भी सुझावों का पुलिंदा दिया गया है, उनमें से कितनी सिफारिशें मानी जाती हैं, सब कुछ उस पर निर्भर करेगा. इसी तरह विश्व हिंदू परिषद और उसका सहयोगी संगठन बजरंग दल, जो पहले सर्जीकल स्ट्राइक के मुद्दे में उलझे थे, अब रोहिंग्या मुसलमानों में उलझ गए हैं. लेकिन उनको भी जनता और अपने समर्थकों के बीच जाना है, और बडा मुद्दा है राम मंदिर का. संतों की परिषद हरिद्वार में ऐलान कर ही चुकी है कि वो सुप्रीम कोर्ट का इंतजार करने के पक्ष में नहीं है, सरकार कानून बनाने की पहल करे.
इसी राय को लेकर बजरंग दल भी अक्टूबर में होने वाले अपने राष्ट्रीय अधिवेशन में यही प्रस्ताव पारित करने वाला है कि सरकार कानून बनाकर एक तय टाइम फ्रेम में मंदिर निर्माण का रास्ता खोल दे. ऐसे में अभी कोई बड़े आंदोलन का संकेत नहीं दिखता. लेकिन मोदी सरकार को सबसे ज्यादा मुश्किल होने वाली मजदूर संघ की तरफ से, भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) देश का सबसे बड़ा मजदूर संगठन माना जाता है. लैफ्ट की पकड़ कम हुई तो उसके सपोर्ट वाली मजदूर यूनियंस भी कमजोर हो गईं. इसी के चलते मजदूर संघ मजबूत होता चला गया, मजबूत इसलिए भी है कि इसे अपनी ही सरकारों के खिलाफ खड़ा होने में कोई गुरेज नहीं. दत्तोपंत ढेंगड़ी जैसे वरिष्ठ नेता ने भी अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के खिलाफ बडा आंदोलन छेड़ दिया था. मजदूर संघ ने 2015 में भी मोदी सरकार के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन करने की कोशिश की थी, तब संघ अधिकारियों ने समझा दिया था, लेकिन डिमोनटाइजेशन, जीएसटी लागू होने, लगातार रेलवे और एयरइंडिया जैसे संस्थानों में निजीकरण की खबरें आने से सबसे ज्यादा मजदूर प्रभावित हो रहा है. डिफेंस फील्ड में पहले ही सीमित निजीकरण हो चुका है. तब मजदूर संघ के डिफेंस सेक्टर के संगठन मजदूर प्रतिरक्षा संगठन ने निजी कंपनियों के तरीकों पर बाकायदा सबूत और तर्कों के साथ सरकार को एक रिपोर्ट पेश की थी.
इधर जैसे भी सरकार कोई बड़ा फैसला लेती है, अमीर या पढ़े लिखे लोग तो उसे समझ लेते हैं, लेकिन गरीब अनपढ़ मजदूरों की दिक्कतें काफी बढ़ जाती हैं. आधार लिंकिंग हो या ऑनलाइन लेन देन, हर कोई मजदूर को ठगता है और गैर संगठित क्षेत्र की तमाम छोटी बड़ी कम्पनियों को रेग्यूलेशन के दायरे में लाने का सबसे बड़ा नुकसान भी मजदूर को हुआ है. इधर सरकार गैस समेत तमाम सब्सिडियां भी खत्म करती जा रही है. ये सभी बातें कायदे से मजदूर संघ के नेता अपनी नेशनल कॉन्फ्रेंस में और मथुरा की समन्वय बैठक में संघ अधिकारियों को समझा चुके हैं. संघ को भी लगने लगा है कि जायज गुस्से को भी दबाना ठीक नहीं, इधर निजी सेक्टर के कर्मचारियों का ग्रेच्युटी की राशि का दस से बीस लाख होना, कम आय वालों के लिए होम लोन में तीन से चार परसेंट ब्याज का कम होना इसी दिशा में एक मरहम माना जा रहा है. लेकिन फिर भी मजदूर संघ ने अपनी तमाम मांगों को लेकर 17 नवम्बर को दिल्ली में एक बड़ी रैली का आव्हान किया है. माना जा रहा है कि देश पर के करीब पांच लाख मजदूर उस दिन दिल्ली की सड़कों पर उतरेंगे. पहले रामलीला मैदान में रैली होगी, फिर वहां से वो संसद कूच करेंगे. मथुरा बैठक में ही बीजेपी प्रेसीडेंट अमित शाह को ज्यादा से ज्यादा मांगों के बारे में बता भी दिया गया था और सीधे सीधे ये मैसेज भी दे दिया गया कि मोदी की लोकप्रियता भले ही कम ना हुई हो लेकिन जनता और जनता के बीच काम कर रहे संगठनों को भारी उम्मीदें हैं, ऐसे में आर्थिक मोर्चे पर सरकार को जनता को सीधे फायदे वाले फैसले लेने होंगे