नई दिल्ली: दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव के बाद से सोशल मीडिया पर दो तस्वीरें खूब वायरल हो रही हैं. दावा किया जा रहा है कि एनएसयूआई ने बड़ी चालाकी से एबीवीपी कैंडिडेट से मिलते जुलते नाम और संगठन वाला इंडीपेंडेंट कैंडिडेट खड़ा करके छात्रों को कन्फयूज कर दिया जिससे एबीवीपी कैंडिेडेट रजत चौधरी हार गए. अपने दावों को साबित करने के लिए एनएसयूआई दो तस्वीरें भी सामने रख रही है.
इन दोनों तस्वीरों में से पहली तस्वीर जिसे मतों की गिनती वाली पर्ची कहा जा रहा है, उसे ध्यान से देखें तो उसमें अध्यक्ष पद के सभी प्रत्याशियों के नाम और उनको मिले वोट लिखे हुए हैं. पर्ची में एनएसयूआई के प्रत्याशी रॉकी का नंबर 9वां है और उसके सामने लिखे हुए हैं 16,299 वोट. रॉकी के ठीक ऊपर है एबीवीपी के प्रत्याशी रजत चौधरी, जिसका नंबर 8वां और रजत को मिले कुल वोट लिखे हैं 14.709.
अब ठीक रजत चौधरी के ऊपर यानी 7वें नंबर पर राजा चौधरी का नाम लिखा है. एबीवीपी कह रही है कि कांग्रेस ने बड़ी चालाकी से रजत से मिलते जुलते नाम वाले राजा को निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर खड़ा कर दिया जिससे छात्र दुविधा में पड़ गए कि राजा एबीवीपी का कैंडिडेट है या रजत और इसी गफलत में राजा को भी वो वोट मिल गए जो रजत को मिलने चाहिए थे.
दावा किया जा रहा है कि इसी दुविधा की वजह से रजत चौधरी हार गए, लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये खड़ा होता है कि डूसू चुनाव में कांग्रेस हो या बीजेपी, दोनों ही प्रचार प्रसार में करोड़ों रूपये लगाती है. चुनाव से पहले दोनों ही पार्टियां अपने कैंडिडेट के समर्थन में इतना प्रचार करती हैं कि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष क्या सचिव और संयुक्त सचिव का नाम भी हर छात्र की जुबान पर आ जाता है.
एबीवीपी की दलील है कि राजा और रजत मिलते-जुलते नाम हैं लेकिन राजा नहीं बल्कि रजत ABVP से प्रेसीडेंट पद के उम्मीदवार थे? दावा किया जा रहा है कि राजा के संगठन को भी एबीवीपी से मिलता जुलता ही रखा गया ताकि छात्र और दुविधा में पड़ें. राजा चौधरी का संगठन है अखिल भारतीय विद्या परिषद जबकि एबीवीपी का फुल फॉर्म होता है अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद.
एबीवीपी के समर्थक कह रहे हैं कि ABVP के नाम से एक फर्जी संगठन खड़ा कर लोगों को भ्रम में डाला गया और उसी का फायदा एनएसयूआई को हुआ. इन दावों पर विचार भी किया जाए तो इतनी आसानी से ये दावे हजम नहीं होते हैं. इस तर्क के पीछे भी कई सवाल खड़े होते हैं. पहला सवाल- इतने प्रचार के बावजूद छात्र नाम को लेकर कंन्फयूज कैसे हो गए जबकि चुनाव से पहले डीयू के कॉलेज में एबीवीपी ने बड़े-बड़े बैनर-पोस्टर लगाए. अगर एनएसयूआई ने पहले से ये गेम प्लान किया था तो चुनाव से पहले तक एबीवीपी को इसकी भनक क्यों नहीं लगी? छात्रों को कन्फयूजन से बचाने के लिए क्या किया गया?
रिजल्ट घोषित होने के बाद अभी तक एबीवीपी कोई ऐतराज क्यों नहीं जताया? जब एनएसयूआई अपने कैंडिडेट का नामांकन रद्द करने के खिलाफ हाईकोर्ट में पी चिदंबरम जैसे बड़े वकील को खड़ा कर सकती है तो एबीवीपी भी अपना कोई वकील कोर्ट में क्यों खड़ा नहीं किया और इस फैसले को चुनौती क्यों नहीं दी? इस मामले में जब तक एबीवीपी खुलकर सामने नहीं आती, तब तक इस पोस्ट की सच्चाई से पूरी तरह बाहर आना मुश्किल है. गौरतलब है कि डीयू में ये खेल बिलकुल नया नहीं है. दोनों पार्टियां सालों से करते आ रहे हैं. मिलते-जुलते नाम वाले कई कैंडिडेट उतारने में ना तो एबीवीपी पीछे रही है और ना एनएसयूआई. ये दोनो ही पार्टियों का इलेक्शन फंडा है. इनख़बर ना तो इस खबर की और ना ही इस पर्ची की सत्यता का दावा करता है.