इस जगह दफन होना चाहते थे बहादुर शाह जफर

नई दिल्ली : कितना है बदनसीब “ज़फ़र″ दफ़्न के लिए
                 दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
बहुत ही मार्मिक लहजे में ये लाइनें कभी मुगल वंश के इस आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर ने लिखी होंगी. दरअसल ज्यादातर मुगल बादशाह अपनी कब्रगाह या दफन होने का स्मारक य़ानी मकबरा पहले ही बनवा लेते थे. शाहजहां और ताजमहल के बारे में तो सभी जानते ही हैं.
बहादुर शाह जफर ने जो जगह अपने दफन होने के लिए चुनी थी, अब उसे सारे नेता भूल चुके हैं. इस जगह का नाम था जफर महल, जो दिल्ली के महरौली में ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह के पास बना है. एक वक्त में यहां काकी के उर्स के वक्त बड़ा मेला लगता था, पीएम नेहरू खुद कई बार गए. लेकिन उनके बाद के नेताओं ने इससे मुंह मोड़ लिया.
कल के रंगून और आज के यंगून में जफर की कब्र के बारे में कहा जाता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने वहीं से देश की आजादी की लड़ाई की शपथ ली. बाद में तमाम प्रधानमंत्री जब भी जाते, जफर की कब्र पर जरूर जाते. कई बार भारत ही नहीं पाकिस्तान ने भी कब्र पर अपनी अपनी मिल्कियत जताई और भारत से कई बार जफर की आखिरी ख्वाहिश पूरी करने यानी म्यांमार से अस्थियां लाकर जफर महल में दफनाने की मांग उठी, लेकिन कुछ नहीं हुआ. अब पीम मोदी के जाने के बाद जफर की कब्रगाह फिर से चर्चा में है, लेकिन दिल्ली के जफर महल की सुध किसी को नहीं, संरक्षित स्मारक होने के वाबजूद वो आधे से ज्यादा ठह चुका है.
माना जाता है कि बड़ी बड़ी इमारतें और किले खड़े करने के लिए मशहूर मुगल बादशाहों की ये आखिरी इमारत थी. दरअसल इस महल को जफर के पिता अकबर शाह द्वितीय ने बनवाया था, नाम दिया था रंग महल या लाल महल, उस पर एक बड़ा गेट हाथी दरवाजा जफर ने बनवाया था. बाद में इस महल और हाधी दरवाजा दोनों को जफर के नाम से जफर महल और जफर गेट कर दिया गया.
इसी के पास में मोती मस्जिद है और बख्तियार काकी का मकबरा भी. मोती मस्जिद को बहादुर शाह प्रथम ने बनवाया था, जिसे मुगल परिवार की निजी मस्जिद की तरह ही इस्तेमाल किया जाता था. जफर इसे समर पैलेस की तरह गर्मियों और मॉनसून के दौरान इस्तेमाल करते थे. वो शिकार के लिए हर साल एक खास वक्त में यहीं आते थे. इसी में काकी के उर्स पर सैर ए गुलफरोंसा यानी फूलवालों की सैर नामसे एक मेला ही शुरू कर दिया गया था, जो फरवरी मार्च में होता था.
1942 में इस आयोजन पर भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान रोक लगी, लेकिन बाद में पंडित नेहरू ने वो फिर से शुरू करवाया और वो खुद भी वहां जाते थे. इस इलाके में योगमाया मंदिर भी है, जो उन मूल 27 मंदिरों में से एक माना जाता है जिसे कुतबुमीनार बनाने के दौरान कुतुबुद्दीन ऐबक ने तुड़वा दिया था, ये इकलौता मंदिर बचा रहा, जिसका पुर्ननिर्माण बाद में हेमू विक्रमादित्य ने करवाया था. सो इस मंदिर पर भी हजारों भक्त हर साल जाते हैं.
दिलचस्प बात ये भी है कि इस महल या आसपास के इलाके में भले ही जफर की दफन करने की ख्वाहिश भले ही ना पूरी हुई हो, लेकिन इस जगह पर जफर के पिता अकबर शाह द्वितीय के अलावा कई मुगल बादशाह या शहजादे दफन हैं. जिनमें जफर के पिता अकबर शाह, दादा शाह आलम द्वितीय के साथ साथ जफर का बेटा मिर्जा फकरुद्दीन भी दफन है.
अब ऐसे में जबकि पीएम मोदी भी यंगून में बहादुर शाह जफर की कब्रगाह का दौरा कर चुके हैं, तो उम्मीद की जा रही है कि बादशाह जफर की ख्वाहिश जिस जगह दफन होने की थी, उस जगह की बेहतरी के बारे में भी कोई सोचेगा. वो मुगल म्यूजियम भी यहां खुलेगा जिसके बारे में सालों पहले एएसआई ने ऐलान किया था.
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