नई दिल्ली: गांधीजी और नेताजी बोस के रिश्तों के बारे में काफी कुछ कहा जाता है, लिखा जाता है. कि कैसे गांधीजी बोस के विचारों से सहमत नहीं थे, कि कैसे बोस ने गांधीजी के समर्थित उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को 1939 में हराकर कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया था, कि कैसे बोस ने फिर भी आजाद हिंद फौज की एक ब्रिगेड का नाम गांधी ब्रिगेड रखा, कि कैसे 2 अक्टूबर 1944 को कई शहरों में आजाद हिंद फौज ने गांधी का जन्मदिन मनाया, कि कैसे बोस ने गांधीजी को रेडियो से ‘राष्ट्रपिता’ कहकर सम्बोधित किया.
ऐसे में कस्तूरबा और बोस के रिश्तों की नजदीकियों के बारे में बहुत कम लोगों को पता है कि कैसे कस्तूरबा उन्हें अपने बेटे की तरह ही मानती थीं.इस तस्वीर को अगर आप गौर से देखेंगे तो पाएंगे इसमें गांधीजी और नेताजी बोस तो हैं ही, कस्तूरबा भी पीछे बैठी हैं और दोनों को ध्यान से देख रही हैं. दरअसल कस्तूरबा बोस के बारे में सुन-सुन कर उनको काफी पसंद करने लगीं थीं, और कई बार गांधीजी से उनको लेकर बात किया करती थीं, बावजूद इसके कि उन्हें पता था कि गांधीजी बोस के विचारों से पूरी तरह सहमत नहीं हैं.
ऐसे में जब बोस एक बार गांधीजी से मिलने आए तो कस्तूरबा बोस से मिलने का, उनको निहारने का, उनकी बातें सुनने का मौका छोड़ना नहीं चाहतीं थीं. बोस को लेकर गांधीजी के आश्रम के लोगों के बीच काफी कौतुहल था, खासकर युवाओं के बीच और इसी के चलते कस्तूरबा को भी बोस पसंद आने लगे थे.
जब बोस गांधीजी से मिलने आए तो कस्तूरबा ने उनसे आग्रह किया कि वो भी उस कक्ष में रहना चाहती हैं, हालांकि गांधीजी ने उन्हें बातचीत में शामिल नहीं किया, लेकिन कक्ष में रहने की उनकी बात मान ली. ये उसी वक्त की तस्वीर है, जब गांधी जी के नाती कनु गांधी ने ये तस्वीर ली और ध्यान रखा कि कस्तूरबा भी इस तस्वीर में आ जाएं. कनु ने गांधीजी से इजाजत ले रखी थी कि वो बिना उनकी बातचीत या दिनचर्या को प्रभावित किए उनकी तस्वीरें ले सकते हैं. गांधीजी ने उनसे कह दिया था कि अगर उनको किसी तस्वीर पर कोई आपत्ति होगी तो वो मना कर देंगे.
बोस और बा (कस्तूरबा) के बीच का स्नेह बढ़ता गया, वो गांधी और बोस के बीच के विचारों के अंतर को एक बाप-बेटे के बीच की तकरार की ही तरह लेती थीं और बोस भी उन्हें मां कहकर सम्बोधित करते थे. हमेशा उनके पैर छूते थे. बा भी बोस के मिलने पर उन्हें बाकी और लोगों से ज्यादा स्नेह देती थीं. ऐसा ही एक वाकया 1928 के कोलकाता अधिवेशन के दौरान हुआ. कोलकाता में अधिवेशन था, तो जाहिर है बोस का प्रभाव रहना ही था. कांग्रेस अधिवेशन से ठीक पहले युवक कांग्रेस का भी अधिवेशन कोलकाता में ही हुआ.
सुभाष चंद्र बोस ने काफी जोशीला भाषण दिया, एक तरह वो गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांत पर सवाल उठा रहा था. बोस ने कहा, ‘’युवक संगठन उन ध्येय प्रेरित क्रांतिकारी युवाओं का समूह है, जिनके हृदय में वर्तमान व्यवस्था के प्रति उग्र विरोध के धधकते अंगारे खिलते हैं. अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त होने पर ही हमारी प्रगति का राजमार्ग खुल सकता है. हमें संघर्ष के लिए कटिबद्ध होना है. आज भारत में दो मठ ऐसे हैं, जो इस संघर्ष के तीव्र नहीं होने देते- एक साबरमती आश्रम तो दूसरा अरविंदपीठम.‘’ साफ था साबरमती आश्रम का नाम लेकर इशारा गांधीजी की तरफ किया गया था.
बोस के भाषण के दौरान ही जतिन दास की अगुवाई में बीस-तीस नौजवान सभा कार्यकर्ता भी मंच पर चढ़ गए, उन्ही में से एक भगत सिंह ने पूछा- “लाला लाजपतराय की हत्या का घाव हर नौजवान को साल रहा है, क्या अहिंसा के सिद्धांत से प्रभावित होकर अंग्रेज भारत छोड़ देंगे? एक प्रचंड धक्का तो देना ही होगा”. गांधीजी कोलकाता के पास ही सोदपुर आश्रम में थे, और अधिवेशन में नहीं आना चाहते थे, उनको किसी ने नमक मिर्च लगाकर बोस के भाषण और इस घटना की खबर पहुंचा दी. नाराज गांधीजी अधिवेशन में पहुंच गए.
गांधीजी प्रवेश द्वार पर पहुंचे तो देखा दो हजार नौजवान सैनिक वेश में कदमताल करते आ रहे हैं और उनके पीछे घोड़े पर कमांडर इन चीफ के रूप में नेताजी बोस चले आ रहे हैं. उनके ठीक पीछे अधिवेशन के अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू अपनी पत्नी स्वरूपा रानी के साथ एक रथ पर सवार होकर आ रहे थे, उस रथ को 34 घोड़ों पर सवार सैनिक खींच रहे थे.
गांधीजी को देखकर मोतीलाल नेहरू सम्मान में अदब से उतर गए तो बोस ने घोड़े से उतरकर गांधीजी को सैल्यूट किया. बोस कस्तूरबा के सामने प्रणाम मुद्रा में झुके और मां कहकर सम्बोधित किया. कस्तूरबा ने भी फौरन स्नेह से अपना हाथ सीधे बोस के सर पर रख दिया, पर जैसे ही बा की नजर उन दोनों की तरफ कठोर मुद्रा में देखते हुए गांधीजी पर पड़ी तो बा ने फौरन अपना हाथ बोस के सर से वापस खींच लिया.
नाराज गांधीजी का बोस से सीधा सवाल था, ‘ये स्वांग किसलिए?’, उनका इशारा सैनिक वेश में युवाओं की तरफ था, ये परम्परा कांग्रेस की नहीं थी. तो बोस ने जवाब दिया, ‘’बापू, इससे युवकों में अनुशासन व स्वाभिमान की वृत्ति का विकास होता है’’. गांधीजी ने उस वक्त तो अपने गुस्से पर काबू पा लिया था, क्योंकि उनके सामने उस वक्त बड़ा उद्देश्य था कि किसी भी तरह पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव इस अधिवेशन में पारित ना हो पाए.
कांग्रेसियों ने प्रचारित भी कर दिया था कि अगर ये पारित हुआ तो गांधीजी राजनीति से संन्यास ले सकते हैं. तो सुभाष बोस ने अपने अभियान को थोड़ा धीमा कर दिया और गांधीजी की जीत हुई, लेकिन अगले साल ही यानी 1929 में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित हो गया था. गांधीजी से बोस के रिश्ते कैसे भी खट्टे मीठे रहे हों, लेकिन बा के प्रति उनकी श्रद्धा और स्नेह में कभी कोई कमी नहीं आई थी. 1944 में कस्तूरबा की मृत्यु के बाद नेताजी बोस ने रंगून रेडियो से 6 जुलाई को गांधीजी के नाम जो संदेश दिया उसमें बा के लिए शोक संदेश भी था.
हालांकि इसी स्पीच में बोस ने गांधीजी को राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित किया और गांधीजी का नजरिया भी इस स्पीच के बाद बोस को लेकर काफी बदल गया था और ये गांधीजी ही थे, जिन्होंने 18 अगस्त 1945 को बोस के प्लेन एक्सीडेंट की खबर आने के बाद उनके घरवालों को टेलीग्राम भेजकर बोस का श्राद्ध ना करने को कहा, क्योंकि उनको लगता था कि बोस जिंदा हैं.