नई दिल्ली। देश में आपातकाल को लगे हुए आज 47 साल पूरे हो गए। आज से लगभग साढ़े चार दशक पहले 25-26 जून की रात भारत के लोकतंत्र पर काले घने बादल छा गए थे। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर आपातकाल के आदेश पर हस्ताक्षर कर दिए। जिसके बाद अगले 21 महीने तक देश में सभी नागरिकों के अधिकार छीन लिए गए, सरकार के खिलाफ बोलना गंभीर अपराध हो गया, सारे विपक्षी नेता जेल में ठूंस दिए गए और सबसे बड़ी बात इन 21 महीनों के दौरान भारत के लोकतंत्र पर ऐसा बदनुमा दाग लगा, जिसे मिटाया नहीं जा सकता है।
आपातकाल लगाने की पूरी कहानी शुरू होती है 1971 के आम चुनाव से, जिसमें कांग्रेस नेता इंदिरा गांधी रायबरेली लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रही थी, उनके सामने समाजवादी आंदोलन से निकले नेता राजनारायण थे। इस चुनाव में इंदिरा गांधी की जीत हुई थी। लेकिन राजनारायण चुनावी प्रक्रिया और नतीजों से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में इंदिरा गांधी के खिलाफ एक याचिका लगा दी। जिसमें राजनारायण ने आरोप लगाया कि इंदिरा गांधी ने अनुचित तरीकों के इस्तेमाल से चुनाव जीता है।
अब यह केस वर्तमान प्रधानमंत्री के ऊपर था, इसीलिए इसे लेकर देश विदेश में भी काफी चर्चा थी। यह मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा के पास गया। 4 साल तक इस केस की सुनवाई चली। सत्ता पक्ष से आ रहे काफी दबाव से परेशान होकर जज जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने रजिस्टर को फोन लगा कर कहा कि ऐलान कर दें, 12 जून 1975 को कोर्ट अपना फैसला सुनाएगा। आखिरकार फैसले का दिन आ गया। कोर्ट में सबको हिदायत दी गई कि जब जज साहब अपना फैसला सुनाएंगे, उस दौरान कोई ताली नहीं बजाएगा।
जज जगमोहन लाल सिन्हा ने 258 पेज के फैसले को पढ़ते हुए कहा कि याचिका स्वीकार की जाती है और इसी के साथ राजनीतिक गलियारों में हलचल पैदा हो गई। जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को भ्रष्ट आचरण के दो मानदंडों पर दोषी ठहराया।
जज सिन्हा के फैसले के बाद सफदरगंज रोड पर स्थित तत्कालीन प्रधानमंत्री आवास पर खलबली मच गई। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सारे करीबी उनके आवास पर जुटने लगे।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निजी सचिव रहे आरके धवन ने 2015 में एक टीवी चैनल पर इंटरव्यू में बताया था कि आपातकाल लगाने का विचार इंदिरा गांधी का नहीं था। उन्हें पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने सुझाव दिया था। धवन के अनुसार सिद्धार्थ शंकर ने इंदिरा गांधी को 8 जनवरी 1975 में ही पत्र लिखकर आपातकाल लगाने का सुझाव दे दिया था।
धवन ने बताया कि जब जून 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला सुनाया तो पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर ने आपातकाल लगाने का दबाव बढ़ा दिया। धवन के अनुसार अदालत के फैसले के बाद इंदिरा गांधी इस्तीफा देना चाहती थी। इसके लिए उन्होंने इस्तीफा टाइप भी करवा लिया था, मगर उन्होंने कभी भी उस पर हस्ताक्षर नहीं किए।
इंटरव्यू में धवन ने आगे बताया कि फैसले के बाद पूरी कैबिनेट इंदिरा गांधी से मिलने आई और उन सभी का साफ कहना था कि आप इस्तीफा न दें। इस दावे में सच्चाई इसलिए भी नजर आती है क्योंकि बांग्लादेश युद्ध पर किताब लिखने वाले बी जेड खासरू ने भी कुछ ऐसे ही बात कही है। खासरु ने अपनी किताब में लिखा है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आने के बाद इंदिरा गांधी ने अपना उत्तराधिकारी चुनने के लिए कांग्रेस की संसदीय पार्टी की बैठक बुलाई। इस बैठक में वो अंतरिम प्रधानमंत्री का चुनाव करना चाहती थी। लेकिन उनके इस फैसले का जगजीवन राम ने विरोध किया, जिसके बाद बैठक बेनतीजा रही।
इन सभी घटनाक्रमों के बीच अचानक इंदिरा गांधी ने 25-26 जून की रात आपातकाल लगाने की घोषणा कर दी। प्रधानमंत्री गांधी के कुछ करीबियों को छोड़कर बाकी किसी को भी इस फैसले की कोई जानकारी नहीं थी। केंद्रीय कैबिनेट में भी सिर्फ एक दो मंत्रियों को ही आपातकाल के फैसले के बारे में पता था। प्रधानमंत्री ने आपातकाल के आदेश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को हस्ताक्षर करने के लिए कहा, जिस पर राष्ट्रपति ने अपनी मुहर लगा दी।
आपातकाल लगने के बाद जो हुआ वह शायद भारत के इतिहास में काले अध्याय के रूप में याद किया जाएगा। विपक्ष के सभी बड़े नेता जेल में ठूंस दिए गए। प्रेस की स्वतंत्रता खत्म हो गई। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पास सभी शक्तियां थी। वह जो चाहती थी वह होता था। उन्होंने अपने हिसाब से संविधान में खूब संशोधन किया।
बताया जाता है कि आपातकाल लगाने के फैसले से राजीव गांधी और सोनिया गांधी को कोई आपत्ति नहीं थी। इंदिरा गांधी की दूसरी बहू मेनका गांधी को भी आपातकाल के दौरान हुए घटनाक्रमों के बारे में सब कुछ पता था। उनको यह भी पता था कि उनके पति संजय गांधी ने इमरजेंसी के दौरान क्या-क्या किया। इंदिरा गांधी के निजी सचिव रहे धवन के अनुसार संजय गांधी के हाथ में आपातकाल के दौरान बहुत शक्तियां थी। उस दौरान के सभी बड़े फैसलों पर संजय गांधी छाप थी।
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