नई दिल्ली: जब भी आप कभी विजय चौक की तरफ से राष्ट्रपति भवन जाएंगे या उधर से गुजरेंगे भी तो आपको राष्ट्रपति भवन की तरफ एक ऊंची सी सड़क जाती दिखाई देती है, ढंग से राष्ट्रपति भवन नहीं दिखता. इसकी वजह काफी दिलचस्प है, जिसके चलते राष्ट्रपति भवन और नई दिल्ली की कुछ प्रमुख इमारतों के दो बड़े आर्किटेक्ट्स के बीच उन दिनों काफी तनातनी हो गई थी.
ये दोनों थे एडविन लुटियंस और हरबर्ट बेकर. दोनों में इस बात को लेकर उन दिनों इतनी तनातनी हुई थी कि वायसराय ने एक कमेटी बना दी थी.
दिल्ली में ये इमारत बनेगी ये तय तो तभी हो गया था जब बंगाली क्रांतिकारियों के भय और दिल्ली से बाकी देश पर ढंग से नियंत्रण की संभावनाओं के चलते अंग्रेजी सरकार ने राजधानी कोलकाता से दिल्ली ले जाने का ऐलान कर दिया था. ऑफीशियल ऐलान 1911 में लगे जॉर्ज पंचम के दरबार में हो गया कि नई दिल्ली तो बनेगी ही, वायसराय के रहने के लिए एक आलीशान और विशालकाय वायसराय हाउस भी बनेगा.
इसके लिए पहले किंग्जवे कैम्प का इलाका चुना गया, ये फैसला उन दिनों वायसराय लॉर्ड हॉर्डिंग और उनकी करीबी अधिकारियों ने लिया था. लेकिन जब 1912 में लंदन के मशहूर आर्किटेक्ट एडविन लुटियंस को इसकी जिम्मेदारी मिली तो उन्होंने बाढ़ की सम्भावनाओं के चलते इस लोकेशन को खारिज कर दिया. क्योंकि यमुना यहां से काफी पास थी, वो किसी पहाड़ी या ऊंचे इलाके की तलाश में थे. ताकि वायसराय हाउस विशाल और भव्य तो लगे ही दूर से भी दिखे, बाढ़ जैसी परेशानियों के साए से भी दूर रहे.
तब चुना गया रायसीना हिल पर सबसे टॉप की चोटी को। साथी आर्किटेक्ट हरबर्ट बेकर को काम दिया गया था. राष्ट्रपति भवन से पहले सचिवालय की दोनों बिल्डिगों को बनाने का, जिन्हें आप नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक के नाम से अभी जानते हैं. बेकर ने तय किया कि मुख्य भवन 400 गज पीछे होना चाहिए और बिना लुटियंस को जानकारी दिए उसने वायसराय को भी राजी कर लिया. इन दोनों इमारतों और बीच की सड़क के हाई प्वॉइंट पर होने के चलते राष्ट्रपति भवन छिप गया. लुटियंस की बेकर से बिगड़ गई. काफी कोशिश उसने की, लेकिन फिर भी वो जो पोजीशन वायसराय हाउस की चाहता था, वो नहीं मिल पाई.
जिसके चलते अरसे तक लुटियंस और बेकर में तनातनी रही. लुटियंस ने ये भी आरोप लगा दिया कि बेकर ये सब पैसे के लिए कर रहा है. एक कमेटी भी दोनों के झगड़े के बाद बनाई गई, लेकिन 1916 में उसने लुटियंस के तर्क को खारिज कर दिया.
अब एक ऊंची सी सड़क से एंट्री होती है और मुख्य भवन उससे छिप जाता है. इधर ज्यादातर जमीन जयपुर के महाराजा सवाई माधो सिंह की थी, उनके सम्मान में ठीक भवन के सामने 145 फुट का एक जयपुर स्तम्भ बनाया गया. रायसीना और मालचा गांवों के करीब 300 परिवारों को वहां से दूसरी जगह शिफ्ट किया गया. एक रेलवे लाइन पत्थर आदि लाने के लिए रायसीना तक बिछाई गई, पानी यमुना से पम्प करके लाया गया.
कुल 70 करोड़ ईंटें वायसराय हाउस को बनाने में लगीं और 30 लाख घनफुट पत्थर भी. 17 साल में 6 अप्रैल 1929 को बनकर तैयार हुए इस भवन का पहला निवासी था लॉर्ड इरविन, जबकि पहला भारतीय था सी राजगोपालाचारी. उनको आजाद भारत का पहला गर्वनर जनरल चुना गया था. सादा जीवन जीने वाले राजगोपालाचारी को वायसराय का बैडरूम इतना विलासिता वाला लगा कि उन्होंने उसकी बजाय गेस्ट रूम में सोना शुरू कर दिया, बाद में यही परम्परा जारी रही. पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने वायसराय हाउस का नाम बदलकर राष्ट्रपति भवन कर दिया.
मुख्य इमारत हारुन अल रशीद ने बनाई तो बाकी सब सुजान सिंह और उनके बेटे शोभा सिंह ने बनाया. 340 कमरों का ये भवन उस वक्त डेढ़ करोड़ रुपयों में बना था. मुख्य गुम्बद सांची के स्तूप से प्रेरित था तो हाथी, कोबरा, मंदिर की घंटी, जालियां, छतरियां, मुगल गार्डन काफी कुछ भारतीय वास्तुकला से लिया गया था.
राष्ट्रपति भवन में पांच सौ की कैपसिटी वाले दरबार हॉल में ही नेहरू ने 15 अगस्त 1947 को सुबह साढे आठ बजे भारत के पहले प्रधानमंत्री के पद की शपथ ली थी. कहा जाता है कि इस बिल्डिंग में लोहे का इस्तेमाल ना के बराबर किया गया था.
खुद लुटियंस को इस भवन से इतना लगाव था कि पूरे 22 साल तक वो हर साल लंदन से भारत आता रहा और वायसराय हाउस और नई दिल्ली के बाकी भवनों का मुआयना करता रहा. अब तक राष्ट्रपति भवन में लुटियंस और बेकर के अलावा दो ही आर्किटेक्ट ने काम किया है, 1985 से 1989 तक सुनीता कोहली ने रेस्टोरेशन का काम किया तो 2010 में सुनीता के साथ चार्ल्स कोरिया ने काम किया.